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नर्तियांग का अनूठा दुर्गा उत्सव

10:52 AM Apr 08, 2024 IST
नर्तियांग का अनूठा दुर्गा उत्सव
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राहुल कुमावत
उत्तर-पूर्वी भारत में स्थित मेघालय के एक छोटे-से कोने में स्थित है नर्तियांग। नर्तियांग में बसती है जैंतिया जनजाति, जो हिन्दू धर्म से प्रभावित है जिसको प्रत्यक्ष रूप से नर्तियांग के दुर्गा उत्सव में देखा जा सकता है।
1502 में खासी जनजाति के एक शक्तिशाली कबीले सुतगा ने पड़ोसी राज्य बंगाल के जैंतिया परगना पर कब्जा कर जैंतियापुर में अपनी राजधानी स्थापित कर ली थी। जैंतिया परगना पर उन दिनों एक स्त्री जयंति का शासन था। उसी शासिका के नाम पर सुत्गा खासी जाति को जैंतिया नाम मिला जो आज मेघालय की प्रमुख दो जातियों में से एक है। नाम के साथ-साथ जैंतियों ने अपने नए राज्य की हिन्दू धर्म की परंपराएं जैसे हिन्दू देवी-देवताओं पर आस्था अपना लीं।
चूंकि जैंतिया परगना बंगाल में होने के कारण नवरात्रों में यहां दुर्गा पूजा विशेष धूमधाम से मनाई जाती थी, इसलिए यह परंपरा जैंतिया समाज में भी जल्दी ही लोकप्रिय हो गई। यूं तो जैंतिया जाति के लोग सभी त्योहार मनाते हैं, लेकिन नर्तियांग का दुर्गा-उत्सव इसलिए विशेष है, क्योंकि यह जैंतिया जाति की पारंपरिक भूमि है जिसे कभी सुत्गा कबीले ने जीता था। लेकिन वर्तमान में जैंतिया परगना बांग्लादेश के सिलहट जिले का एक हिस्सा है। फिर भी यहां दुर्गा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
नर्तियांग में प्राचीन शिव और दुर्गा मन्दिर के अतिरिक्त जैंतिया समाज के कुछ अन्य प्राचीन मंदिर भी हैं जिनकी देखभाल एवं सेवा-पूजा मूलतः जैंतियापुर का बंगाली ब्राह्मण परिवार करता है। नर्तियांग की मुख्य पूजा चार दिन की होती है।
नवरात्र के प्रथम दिन बामन (पुजारी) गाजे-बाजे के साथ गांव में बहने वाली वाहभिंतांग नदी पर जाता है। नौ दिनों तक देवी मां गांव की अतिथि होती हैं और गांववासी नदी पर उनका स्वागत करते हैं। रोचक बात यह है कि दुर्गा मां नदी पार कर नाव में एक केले के तने के रूप में अवतरित होती हैं। यानी केले के तने को वस्त्रा-भूषण से सजाकर दुर्गा का आकार देकर गाजे-बाजे के साथ लाकर गांववासी देवी मां के मंदिर में स्थापित कर देते हैं और नौ दिन तक मां यहीं विराजती हैं। प्रसाद से अगले दिन हर घर में भोग लगाया जाता है। भोग में चावल के लड्‌डू‌ और कई प्रकार की मिठाइ‌यां होती हैं। अगले सात दिन तक पूरे गांव-वासी मंदिर में इकट्ठे होकर दुर्गा मां की पूजा, आरती, प्रसाद और भजन-कीर्तन में व्यस्त रहते हैं।
दुर्गा मंदिर के साथ लगे एक अन्य मंदिर (सहमई मंदिर में) भी पूजा होती है। कहा जाता है कि यह मंदिर पारंपरिक रूप से तो सुत्गा कबीले के देवता ‘सहमई’ का है, लेकिन इस मंदिर में शिव और गजानन की प्रतिमा भी विराजमान है। इस मंदिर में कद्‌दू और केले के अलावा पान-सुपारी का भोग लगाया जाता है।
पर्व के आखिरी यानी नौवां दिन विसर्जन का दिन होता है जिसे ‘अर्वीलयांग’ कहा जाता है। अर्वीलयांग हेतु केले के तने स्वरूप दुर्गा प्रतिमा को बामन, धुलियों और उपासकों के साथ नदी के घाट पर लाता है जहां प्रतिमा की फिर पूजा की जाती है। अंत में बामन प्रतिमा के हिस्से पर एक पत्थर बांधकर उसे नदी में प्रवाहित कर देता है जिसे प्रतिमा का विसर्जन कहा जाता है।

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