अनसुनी सिसकियां
अरुण नैथानी
रात के घने अंधेरे में टैक्सी वाले ने लगातार खड़ी चढ़ाई वाला बहाना बता मन-माफिक किराया वसूल जैसे ही गांव से बाहर सड़क पर उतारा अनिकेत को नई चिंताओं ने घेर लिया। दशकों बाद गांव आने पर उसके मन में शंका उठने लगी कि अगर रात को किसी गांव वाले ने अपने घर न ठहराया तो इस वक्त कहां जाऊंगा। सारे रक्त-संबंधी दशकों पहले घर-जमीन छोड़कर पलायन कर चुके थे। गांव के आसपास कोई दुकान-ढाबा भी तो न था कि जहां रात भी बितायी जा सके। इस मोटर मार्ग पर एक किलोमीटर दूर एक कस्बाई बाजार जरूर था, लेकिन पहाड़ी इलाकों की रात के दौरान जिंदगी की चहल-पहल जल्दी ही थम जाती है। दरअसल, ये बाजार ऊंचाई वाली सीमित जगह पर बसे होते हैं, जहां आसपास के दुकानदार शाम होते ही दुकानें बंद करके उतराई पर स्थित अपने-अपने गांव चले जाते हैं। फिर उस सबसे करीब के बाजार तक जाने का कोई साधन भी न था। इस रास्ते पर पहले दिन के समय में भी बसें चलती थीं, अब वे भी बंद हो चुकी हैं। पहले जीपें चलती थीं, मगर उनमें सवारियां कम आने से चालकों को मुनाफा कम होता था। अब ट्रैक्स चलते हैं। जिनमें ड्राइवर लोगों को ठूंस-ठूंस कर भर लेते हैं। उन्हें मुनाफा हो जाता है। पहाड़ी सड़कों में रात के वक्त पैदल भी जा नहीं सकते, जंगली जानवरों का भय लगा रहता है। जंगल में इन्हें अपना शिकार न मिलने पर ये बस्तियों की तरफ उतर जाते हैं। गाहे-बगाहे पहाड़ी इलाकों में तेंदुए के हमले की खबरें आती रहती हैं। कुछ वर्ष पूर्व गांव के भीतर दिन-दोपहरी बाघ एक गाय को मार गया था।
अभी रात के आठ ही बजे थे लेकिन अंधेरा घना हो चुका था। जो पहाड़ दिन में सूरज की रोशनी में मनमोहक लगते हैं, वे रात को डरावने लग रहे थे। पहाड़ों पर अंधेरा कुछ ज्यादा घना नजर आ रहा था। दूर पहाड़ों में निर्जन इलाकों में छितरे हुए दीये की धीमी रोशनी जैसे टिमटिमाते इक्का-दुक्का घर नजर आ रहे थे। अनिकेत सोच में डूब गया था कि कैसे वे लोग सदियों से इन हालातों में जीवनयापन कर रहे हैं। क्या उन्हें जंगली जानवरों से डर नहीं लगता होगा? कैसे वे जरूरी सामान खरीदने बाजार आते होंगे? कहां उनके बच्चे पढ़ते होंगे? कैसे बच्चे बियाबान जंगलों से गुजरकर स्कूल जाते होंगे। वाकई, पहाड़ में जिंदगी पहाड़ जैसी मुश्किलों भरी होती है।
इन्हीं सवालों से जूझते हुए अनिकेत को गांव के धर्मू भाई की याद आई। जिन्हें उसने घर से चलते समय फोन किया था कि रात को गांव में कहीं रहने की व्यवस्था हो सकती है। तब धर्मू भाई ने अनमने भाव से कहा था कि पास के कस्बे में कोई गेस्ट हाउस है। लेकिन ऐसा निश्चित भी नहीं कहा था कि मैं रात उनके घर भी रह सकता हूं। लेकिन उनके जवाब में कोई आत्मीयता नहीं थी। दरअसल, गांव के लोगों में हाल के वर्षों में एक ग्रंथि विकसित हो गई थी कि गांव के तमाम लोग सुख-सुविधाओं के लिये गांव को अपने हाल पर छोड़कर शहर चले गये। छोड़कर गये लोग गांव के प्रति वफादार नहीं रहे। यह भी कि पलायन की आंधी में भी गांव में रहने वाले इस जमीन के असली मालिक हैं।
वैसे तो अनिकेत ने कोशिश की थी कि वह दिन ढलने तक गांव पहुंच जाए। अपने हिसाब से वह सुबह चार बजे उठ भी गया था। तैयार होते-होते साढ़े छह बज गये थे, फिर उसे साढ़े सात बजे की बस मिल भी गई थी। दरअसल, गांव की तरफ कोई बस सीधी भी तो नहीं जाती थी। कई जगह बसें व अन्य वैकल्पिक साधन यात्रा के लिए बदलने पड़ते थे। कई बस व छोटे वाहन बदले, लेकिन अपनी तरफ से पूरी कोशिश के बावजूद भी गांव-गांव पहुंचते-पहुंचते रात के आठ बज गये थे। दरअसल, सफल लंबा था और उसने कोशिश भी की थी कि गांव तक के लिये कार लेकर जाए, लेकिन फिर अपना महीने का बजट हिलता देख उसने बस से सफर करने का मन बनाया था।
लंबी बस यात्रा का सफर पूरा करने के बाद दूसरी बस लेकर वह पहाड़ी राज्य के प्रवेश द्वार पर स्थित शहर पहुंचा। मगर उसकी चिंता गांव तक पहुंचने को लेकर बढ़ गई। बस से उतरते-उतरते तीन बज गये थे। आम तौर पर पहाड़ों में बसें चलनी जल्दी बंद हो जाती हैं। किसी ने बताया कि एक जीपनुमा ट्रैक्स में ड्राइवर सवारियां भर रहा है। पास जाकर देखा तो आगे की दोनों पंक्तियों की सीटें भर चुकी हैं। ड्राइवर ने कहा- ‘आइए, पीछे की तरफ सीटें खाली हैं।’ पीछे देखा तो चार सीटों पर चार लोग पहले ही बैठे थे। ड्राइवर उनके बीच जगह का जुगाड़ करके बैठाना चाहता था। अनिकेत जानता था कि पहाड़ी इलाके में घुमावदार मोड़ पर वाहन में झटके लगते हैं, भीड़ में बैठकर सफर तय करना मुश्किल भरा था। अनमने ढंग से अनिकेत ने उसमें बैठने से मना किया। ड्राइवर अभी भी कह रहा था बहुत जगह है। सीटें ऐसे ही निकलती हैं। अनिकेत ने तय कर लिया कि बस से ही जाएगा, कम से कम आराम से बैठकर सफर तो कट जाएगा।
अनिकेत ने राहगीरों से बस अड्डे का पता पूछा। बताया गया पांच सौ मीटर की दूरी पर स्थानीय बसों का अड्डा है। पूछते-पछाते अनिकेत बस अड्डे पहुंचा। बस अड्डा क्या एक बड़ा-सा गैराज था, जिसके ऊपर कुछ प्राइवेट कंपनियों के दफ्तर खुले थे। वहां पूछा तो एक खिड़की में स्टेशन इंचार्ज बैठा था। नाक पर नीचे खिसके चश्मे से झांककर उसने लापरवाही से कहा- बगल वाली खिड़की से पूछो। पूछताछ करने पर पता चला कि जिला मुख्यालय तक जाने वाली आखिरी बस दो बजे चली गई। गांव के निकट साठ किलोमीटर तक जाने वाली बस भी तीन बजे निकल चुकी थी। एक मिनी बस खड़ी थी जो सिर्फ तीस किलोमीटर दूर तक जाएगी। वह भी आखिरी बस थी। अनिकेत काउंटर पर बैठे व्यक्ति के जवाब को सुनकर हैरत में था कि जहां शहरों में देर रात तक बसें चलती है, यहां तो आधे दिन को ही पूरा दिन मान लिया गया है। कहने को इस पहाड़ी इलाके को दो दशक पहले राज्य का दर्जा मिल चुका है। लेकिन बस अड्डे व बस सेवा का हाल देखकर अनिकेत दुखी हुआ कि बड़े राज्य का हिस्सा होने के वक्त की तरह अभी भी बस अड्डे व बस सेवा में कोई सुधार नहीं हुआ है। नेताओं के लिये लाल बत्तियों वाली गाड़ियां तो खूब बंटती रही हैं लेकिन आम आदमी के हिस्से में तो बस भी नहीं आ पायी। न नये रूट बने और न ही पर्याप्त नई बसें ही चली थी। दरअसल, यहां पहाड़ों के लिये बस एक स्थानीय सहकारी संगठन चलाता है। बसों की सीट के लिये भी मारामारी रहती है। खैर, मरता क्या न करता की तर्ज पर अनिकेत बस में सवार हुआ, जो यात्रियों से बस भरने के इंतजार में पहले ही निर्धारित समय से पंद्रह मिनट लेट हो चुकी थी। जैसे-तैसे बस चली तो गर्मी से कुछ राहत मिल सकी।
बहरहाल, जैसे अनिकेत चिंताओं से जूझ रहा था। उसने गांव के प्रकाश जी को फोन लगाया, मगर उनका फोन लगा नहीं। वह चिंता में डूबा था कि प्रकाश जी का फोन आया- ‘अनिकेत, सड़क से लगे स्कूल की सीढ़ियों से उतरना शुरू करो मैं आ रहा हूं। घना अंधेरा था। पहाड़ के गांवों में स्ट्रीट लाइट तो होती नहीं है, सो अनिकेत ने मोबाइल की टॉर्च जलायी और उतरना शुरू किया। स्कूल के दायें तरफ की जर्जर इमारत के हाल ने उसे हिला दिया। जो बीच से खंडहर बन चुकी थी। उसे याद आया कि दायीं तरफ की इमारत में गांव की ताई कहलाने वाली महिला छात्रों को मध्यांतर में दलिया आदि दिया करती थीं। एक समय यह भवन आसपास के दर्जनों गांवों के छात्रों का होस्टल भी हुआ करता था। आज उस भवन की बदहाली देखकर मन बहुत दुखी हुआ।
तभी सामने से मोबाइल की टार्च जलाकर प्रकाश जी आते दिखाई दिए। अनिकेत ने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने हाल-चाल पूछा। खाली हुए गांव का दर्द और ढलती उम्र की टीस उनके चेहरे पर दिख रही थी। बोले- ‘तुम गांव आए अच्छा लगा। सारा गांव शहर चला गया है। गिनती के घरों में ही चूल्हे जलते हैं। स्कूल भी बस नामचारे को रह गया है। कभी आसपास के दर्जनों गांवों के बच्चे स्कूल में आते थे तो चहल-पहल बनी रहती थी। अब तो ज्यादातर दलितों के बच्चे ही स्कूल में आते हैं।’ देर रात सोने से पहले तक खाली होते गांव की चर्चा होती रही।
सुबह हुई तो अनिकेत ने गांव की जीवंत प्राणवायु को महसूस किया। वातावरण में अलग ताजगी थी। शीतल पवन की बयार को उसने शरीर पर महसूस किया। सुबह होते ही सामने की पहाड़ियां चमकने लगी थीं। रात को डराने वाले पहाड़ सूरज की रोशनी में नहाए हुए मोहक लग रहे थे। हालांकि, गांव में पहली जैसी चहल-पहल तो नहीं थी, लेकिन जितने लोग थे अपने काम-धंधों में लगे थे। एक समय था महिलाएं प्राकृतिक जल स्रोत पर पानी लेने जुटती थी। वहां पहुंचकर गांव-शहर की चर्चा होती थी। महिलाएं समूह बनाकर खेतों में काम करने व पालतू पशुओं के लिये घास लेने जाती थी। तब भी तमाम महिलाओं के पति फौज में होते थे, लेकिन जीवन के प्रति एक उत्साह रहता था। उनके फौज से घर लौटने का इंतजार होता था। जब वे गांव आते तो उनके भारी फौजी ट्रंक पर चर्चा होती। बच्चे टाफी-मिठाई का इंतजार करते तो बड़े बुजुर्ग कैंटीन की रम की ताक में रहते। फौजियों के गांव लौटने पर रौनक बनी रहती थी।
दिन चढ़ा तो अनिकेत का मन हुआ कि गांव का चक्कर लगाकर आए। जैसे-जैसे वह पहाड़ी गांव में ढलान की तरफ जाता गया खंडहर होते घरों को देखकर उसका मन उदासी से भर गया। कभी इस गांव में कितनी रौनक रहा करती थी। कई नामों से घरों के समूह थे। उसी नाम से वहां रहने वालों को याद किया जाता था। कहीं चारों तरफ गोलाकार परिधि में बसे घर होते और बीच में बड़ा आगंन होता था। जिसमें सामूहिक उत्सव व त्योहार मनाये जाते। आम तौर पर बड़े लोग अपनी चर्चाओं में लगे होते तो बच्चे खेल में मस्त रहते थे। अब उन आंगनों में दरकते घरों का मलबा गिर रहा था। बचपन में जो डबल स्टोरी नुमा परंपरागत पहाड़ी घर बड़े नजर आते थे, वे अब बौने नजर आ रहे थे। टूटे घरों में बिच्छू बूटी और दूसरी जंगली घास उग आई थी। यहां तक कि शहरों में घर बंद करके गये कई दरवाजों व तालों तक पर घास जम चुकी थी। अनिकेत के दिमाग में यूक्रेन युद्ध में रूसी हमलों व भय से खाली हुए घरों के दृश्य उभर आए। उसे लगा युद्ध ही नहीं, समय भी कैसी-कैसी क्रूरता दिखाता है कि बिना युद्ध के घर खंडहरों में तब्दील हो गये हैं।
अनिकेत आगे बढ़ा तो देखा कि गांव के बीच से एक सड़क बन गई थी, जो पास के गांव तक जाती थी। गांव दो हिस्सों में बंट गया था। जैसे ही अनिकेत गांव के भीतर जाने को होता मन गांव के हालात देखकर व्यथित हो जाता। एक समय यह गांव कितना भरापूरा व चहल-पहल वाला होता था। पिछले पांच दशक में गांव लगभग खाली हो गया था। जैसे गांव में शहर जाने की होड़ लगी हो। गाल बजाते नेता ग्रामीण युवकों को रोजगार नहीं दे पाये। वे भरे-पूरे गांव में बड़े मकानों को छोड़कर शहरों में दड़बानुमा घरों में रहने को चले गए हैं।
अनिकेत लंबे अरसे बाद गांव आया था। उसके परिवार के लोग तो पांच दशक पहले गांव छोड़ गए थे। गांव के बारे में बताने के लिए उसे वहां कोई जानता न था। तभी उसे एक घर के बाहर एक किशोर दिखाई दिया। अनिकेत ने उससे कहा- ‘यदि तुम्हारी पढ़ाई खराब न हो रही हो तो मेरे साथ गांव के भीतर चलो। मैं पुराने घरों को देखना चाहता हूं।’ किशोर सहर्ष चलने को तैयार हो गया। उसने अपना नाम हर्षित बताया। वह बोला- ‘फिलहाल नहीं पढ़ रहा हूं।’ उसने बताया कि वह जिला मुख्यालय से पॉलीटेक्निक कर रहा है।
अनिकेत ने उसे अपने जमींदोज हो चुके घर के हुलिये के बारे में बताया और वहां पहुंचाने में मदद करने का आग्रह किया। हर्षित को पहचान के लिये बताया कि हमारा घर विजेंद्र जी के घर के पास था। विजेंद्र जी रिटायर होने के बाद पहाड़ के प्रति मोह के चलते अपनी जन्मभूमि लौटे थे। बच्चे तो गांव लौटने को राजी नहीं हुए, लेकिन कभी-कभी पत्नी जरूर गांव आ जाती थी। उन्होंने रिटायरमेंट के बाद की अपनी जमा-पूंजी से नया घर बनाया था। सुंदर बाग-बगीचा लगाया। अनिकेत ने देखा था उनके हरे-भरे बगीचे में अमरूद लगे थे। साथ ही लंबी-लंबी लौकी-ककड़ियां लटकती रहती थीं। लेकिन बाद में वे बीमार रहने लगे थे। कालांतर गांव में पर्याप्त इलाज न मिलने पर वे अपने बेटे के पास गुड़गांव चले गये थे। अब वहां दरवाजों पर लटके ताले व सूखते पेड़-पौधे देखे तो मन रोने को हुआ।
विजेंद्र जी के घर की ढलान से जब अपने खंडहर हुए घर को अनिकेत ने देखा तो आंखों में आंसू आ गये। उसे अपराधबोध हुआ कि वे अपने पूर्वजों की विरासत को नहीं सहेज पाए। जमींदोज हुए पत्थरों की दीवार वाले घर में जंगली घास भरी हुई थी। अपने पुरखों के घर का हाल देखकर उसे रोना आया। उसे अपनी लाचारी पर रोना आया कि हमने शहरों में दो टके की नौकरियों के लिये क्या कुछ खो दिया। ये साफ-सुथरा हवा-पानी, पहाड़ों की धीरता, स्वादिष्ट अन्न व सब्जियां, औषधीय पौधे और प्रदूषण मुक्त शांत पहाड़ी जीवन खोकर हमने क्या हासिल किया?
सड़क से नीचे उतरकर उसने देखा, सामने खंडहर में तब्दील हुए घर के बाहर एक पेड़ का बड़ा तना गिरा हुआ है। उसके कटे हिस्से की दो समांतर हाथनुमा शाखाएं आकाश की तरफ उठी थीं। वे ऐसा आभास दे रही थीं कि जैसे कोई लाचार-देह दु:ख में आसमान की तरफ हाथ किए रहम की गुहार लगा रही हो।