For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

इंटरनेट का अंडरवर्ल्ड

10:36 AM Sep 08, 2024 IST
इंटरनेट का अंडरवर्ल्ड
Advertisement

डॉ. संजय वर्मा

लेखक व्िाज्ञाान मामलों के जानकार एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

Advertisement

जितना इंटरनेट हमें वेबसाइटों, सोशल मीडिया मंचों और मैसेजिंग ऐप आदि के जरिये दिखाई देता है, उससे कई गुना बड़ी दुनिया खुफिया इंटरनेट यानी डार्क वेब की है जो इसका आपराधिक गतिविधियों वाला हिस्सा है। इसकी गुमनाम वेबसाइटें काला धन सफेद करने, मादक पदार्थों, हथियार खरीदारी और पोर्न तथा यौन दुर्व्यवहार के मामलों से जुड़ी हैं। कोई नहीं जानता कि वहां कितनी वेबसाइटें हैं। दावे हैं, डीप और डार्क वेब इंटरनेट का 96 फीसदी हिस्सा हैं जहां 24 लाख लोग प्रतिदिन कोई काला धंधा खोजते हैं। इसके लिए खास लेयर्ड ब्राउजर होते हैं। डार्क वेब की निगरानी बेहद मुश्किल है।
मानव सभ्यता की तरक्की को रोशनी से जोड़ा जाता है। वजह है अग्नि और फिर बिजली का आविष्कार। सदियों से अंधेरे में पड़ी दुनिया को इन चीजों ने सतत विकास के उजाले से भर दिया। लेकिन इससे अंधेरा खारिज नहीं हो जाता है। रात है, तभी तो दिन का महत्व समझ में आता है। फिर अंधेरा तो इस कायनात यानी ब्रह्मांड की मौलिक संरचना अर्थात बेसिक स्ट्रक्चर में शामिल है। हाल ही में,न्यू होराइजन यान से मिले आंकड़ों के आधार पर अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा का अंधेरे के वजूद पर एक अध्ययन सामने आया है। इसमें दावा किया गया है कि ब्रह्मांड का ज्यादातर हिस्सा अंधेरे से भरा है। लाखों आकाशगंगाओं और मंदाकिनियों से भरे ब्रह्मांड में सितारों की चमक और रोशनी मौजूद जरूर है, लेकिन अंधकार का साम्राज्य चारों तरफ बिखरा है। अंधेरे की इतनी चर्चा का इधर एक संदर्भ सोशल मीडिया से जुड़े मैसेजिंग ऐप- टेलीग्राम के सीईओ पावेल दुरोव की गिरफ्तारी से जुड़ता है। दावा किया जा रहा है कि पावेल दुरोव ने टेलीग्राम के जरिये होने वाले अवैध कारोबार, मादक पदार्थों की खरीद-फरोख्त, बच्चों के साथ यौन-दुर्व्यवहार और धोखाधड़ी के मामलों को रोकने की बाबत कुछ नहीं किया। यह बात इंटरनेट की अंधेरी दुनिया की है जिसमें तमाम गोरखधंधे बिखरे पड़े हैं।

डार्क वेब का टेलीग्राम

इंटरनेट के जिस खलनायकत्व वाले पहलू की चर्चा टेलीग्राम वाले मामले से जुड़कर शुरू हुई है, उसे डार्क वेब के नाम से जाना जाता है। जैसे एक दावा है कि हमारा ब्रह्मांड डार्क एनर्जी और अंधेरे से भरा हुआ है, बल्कि उसकी मात्रा प्रकाशमान और नजर आने वाले अंतरिक्ष के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ठीक उसी तरह माना जाता है कि जो इंटरनेट हमें वेबसाइटों, सोशल मीडिया मंचों और मैसेजिंग ऐप आदि के माध्यम से दिखाई देता है, उससे बीसियों गुना बड़ी दुनिया इंटरनेट के नहीं दिखने वाले पहलू की है। यह पहलू इंटरनेट के खुफिया, अवैध या आपराधिक गतिविधियों वाले संसार का है। टेलीग्राम ऐप के सीईओ पावेल दुरोव पर आरोप है कि दुनिया भर में उनका यह ऐप पेपरलीक, शेयरों की सट्टेबाजी, अवैध लेनदेन से लेकर बच्चों के यौन उत्पीड़न का जरिया बन गया है। चूंकि दुरोव टेलीग्राम पर हो रही इन गतिविधियों की अनदेखी करते रहे, तमाम गुजारिशों के बावजूद इनकी रोकथाम की असरदार कोशिशें नहीं कीं, इसलिए मामलों की जांच के सिलसिले में उन्हें फ्रांस में गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि दूसरे सोशल मीडिया मंच और मैसेजिंग ऐप कोई दूध के धुले नहीं हैं। लेकिन टेलीग्राम की ओर से अवांछित गतिविधियों की निगरानी और रोकथाम के लिए कोई सद्इच्छा तक नहीं दिखाई जा रही थी, लिहाजा सीईओ को पकड़ लिया गया।

Advertisement

सूचना का काला बाजार

आज की तारीख में कोई नहीं जानता कि कितनी वेबसाइटें हैं, कितने कारोबार हैं जो इंटरनेट के उस संसार में मौजूद हैं जो हमें आम तौर पर नजर नहीं आता है। गूगल के जरिये या समाचार अथवा खरीदारी कराने वाली ईकॉमर्स वेबसाइटों के जरिये हम इंटरनेट पर जो कुछ देख पाते हैं, उसमें ज्यादातर का वास्ता हमारे रोजमर्रा के जीवन से होता है। हम इनसे सूचनाएं पाते हैं। हम इनसे घर बैठे कई किस्म के कामकाज कर पाते हैं। हमारे मनोरंजन का बहुत सा हिस्सा भी इन्हीं सामान्य रूप से दिखने वाली वेबसाइटों पर निर्भर है। लेकिन इंटरनेट पर तमाम तरह की आपराधिक गतिविधियां भी चल रही हैं। साइबर हैकिंग से तो हम परिचित हैं, लेकिन कई गुमनाम वेबसाइटें हैं जो काले धन को सफेद करने में, मादक पदार्थों, हथियारों की अवैध खरीदारी और पोर्न तथा यौन दुर्व्यवहार से जुड़े वाकयों से संबंधित बताई जाती हैं। यकीन करना मुश्किल है, लेकिन डार्क वेब पर साइनाइड जैसे खतरनाक जहर की होम डिलीवरी भी होती है। अवैध हथियारों की बिक्री के साथ-साथ भाड़े के हत्यारे (कॉन्ट्रैक्ट किलर), वसूली के एजेंट, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, जाली पासपोर्ट, नकली ड्राइविंग लाइसेंस और फर्जी सरकारी दस्तावेज भी उपलब्ध कराए जाते हैं। सरकारी वेबसाइटों और बैंकों के डाटा में सेंध लगाने वाले हैकरों की इस पर पूरी फौज उपलब्ध होने का दावा किया जाता है। एक दौर में यह दावा भी किया गया था कि इस्लामिक स्टेट जैसा आतंकी संगठन डार्क वेब के जरिये चंदा जुटाने का काम करता है। ये सारे गोरखधंधे एक ऐसे गुमनाम वैश्विक इंटरनेट सिस्टम का हिस्सा हैं जिनका ऊपरी तौर पर पता लगाना संभव नहीं होता है। कहा जाता है कि इंटरनेट के इस अंडरवर्ल्ड में सिर्फ खुफिया सूचनाएं ही उपलब्ध नहीं हैं, बल्कि क्रिप्टो करेंसी का लेनदेन, फर्जी पासपोर्ट और लाइसेंस, हथियार, अश्लील सामग्री और मादक पदार्थ तक मौजूद हैं जो कुछ अधिक कीमत चुकाने पर अवैध रूप से मुहैया करा दी जाती हैं। इंटरनेट का यह अंडरवर्ल्ड उन लोगों ने तैयार किया है जो इस विचार के समर्थक हैं कि इंटरनेट को दुनिया के किसी भी कानून की हद में नहीं बांधा जा सकता है। साथ ही, ये लोग सरकारी या कानूनी एजेंसियों की ओर से इस डार्क वेब की निगरानी के भी सख्त खिलाफ हैं।

इंटरनेट का 96 फीसदी हिस्सा

जब कभी भी डार्क और डीप वेब की बात उठती है, तो सबसे पहला सवाल यह सामने आता है कि आखिर इसका आकार दिखने वाले यानी सर्फेस इंटरनेट की तुलना में कितना है। दावे कहते हैं कि डीप और डार्क वेब मिलाकर इंटरनेट का 96 फीसदी हिस्सा घेरते हैं। हालांकि इसमें डीप वेब ज्यादा है जो सर्फेस वेब के मुकाबले 400-550 गुना ज्यादा है। जबकि डार्क वेब कहलाने वाले इंटरनेट के खालिस आपराधिक साम्राज्य का कारोबार महज कुछ हजार वेबसाइटों तक ही सिमटा हुआ है। हालांकि डार्क वेब के मुरीद काफी ज्यादा हैं। वर्ष 2023 में हुए एक आकलन के मुताबिक हर दिन औसतन 24 लाख लोग डार्क वेब की शरण में जाते हैं और वहां अपने मतलब का कोई काला धंधा खोजते हैं। हालांकि हमें यहां डीप और डार्क वेब का फर्क समझना जरूरी है। सर्फेस इंटरनेट के नीचे छिपा हुआ हिस्सा डीप वेब में गिना ज्यादा है जो मौजूदा इंटरनेट का कुल 90 फीसदी है। छिपा हुआ संसार तो डार्क वेब का भी है, लेकिन आपराधिक गतिविधियों को समर्पित अवैध धंधों वाले इस इंटरनेट का औसत 6 फीसदी ठहरता है। यह भी उल्लेखनीय है कि डीप और डार्क – दोनों को ही सामान्य या आम सर्च इंजनों से खोजा नहीं जा सकता है। यानी यूजर डाटाबेस, पेमेंट गेटवे या ईकॉमर्स वेबसाइटों की तरह इनकी खोज नहीं की जा सकती है। इसे खोजने के लिए खास ब्राउजर चाहिए होते हैं। मोज़िला या इंटरनेट एक्लप्लोरर जैसे आम ब्राउजर की तुलना में डार्क वेब तक पहुंचाने वाले ब्राउज़र लेयर्ड होते हैं यानी वे परत-दर-परत सुरक्षित किए जाते हैं ताकि उनमें सिर्फ वही लोग दाखिल हो सकें जिन्हें इसके लिए इस दुनिया से जुड़े लोगों ने अधिकृत कर रखा हो। इसका एक और खास पहलू है। वह यह कि सर्फेस, ओपन या आम इंटरनेट पर तो नजर रखी जा सकती है और उसकी ट्रैकिंग कहीं से भी संभव है। लेकिन डार्क वेब की निगरानी करना मुश्किल है। इसका कारण यह है कि इससे जुड़ी वेबसाइटों के आईपी एड्रेस को सॉफ्टवेयर की मदद से छिपा दिया जाता है। ऐसे में गूगल करने या ट्रैक करने वाली तकनीकों के जरिये इनके असली वेब एड्रेस और इस्तेमाल करने वालों (यूजर्स) तक पहुंचा नहीं जा सकता है। ऐसे में यह जानना लगभग नामुमकिन हो जाता है कि कौन सा शख्स दुनिया के किस कोने में बैठकर क्या बेच या खरीद रहा है। ऐसे में यह डार्क वेब आपराधिक किस्म के लोगों का अड्डा बन गया है और पुलिस व खुफिया एजेंसियां चाह कर भी इन पर हाथ नहीं डाल पाती हैं। इन्हें पकड़ने का एक रास्ता कारोबार में वैध करेंसियों के इस्तेमाल की निगरानी के जरिये मिल सकता है। यानी यदि कोई शख्स रुपये या डॉलर के डिजिटल स्वरूप जैसे ई-रुपये या यूपीआई से कोई भुगतान करता है या रकम प्राप्त करता है, तो उस करेंसी ट्रेल को ट्रैक किया जा सकता है। लेकिन अपराधियों से इससे बचने के लिए बिटकॉइन जैसी क्रिप्टो करेंसी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। इन क्रिप्टो करेंसियों की खूबी यह है कि इसमें यह पता लगाना संभव नहीं है कि रकम एक हाथ से निकलकर किस दूसरे हाथ में पहुंची है और लेनदेन का रास्ता यानी ट्रेल क्या था।

नहीं लग पाया अंकुश

डार्क वेब की पड़ताल में एक और बड़ी बाधा है। देखा गया है कि जिस तरह पाइरेसी (फिल्मों, गीतों की नकल ) और पोर्न (अश्लील सामग्री) साइटों को एक बार बंद कराने के बाद वे नए नाम से बाजार में हाजिर हो जाती है, उसी तरह यदि किसी तरह डार्क वेब की कुछ वेबसाइटों को खोजबीन कर बंद कराया जाता है, तो वे नए रूप और कलेवर में अपनी ग्राहकों को उपलब्ध हो जाती हैं। ऐसा नहीं है कि दुनिया में डार्क वेब के काले धंधे पर लगाम लगाने की कोशिश नहीं हुई है। अब से करीब डेढ़ दशक पहले मादक पदार्थ मुहैया कराने वाली डार्क वेबसाइट ‘सिल्क रोड’ को अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने बड़ी मशक्कत के बाद 2013 में बंद करा दिया था। लेकिन पाया गया है कि एक साल बाद के अंतराल में ही 2014 से यह फिर से नशे का एक बड़ा बाजार बन गई थी। तब यूरोपोल (यूरोपीय खुफिया एजेंसी) की मदद से एफबीआई ने एक बार फिर इसे बंद कराया। इसके साथ-साथ मादक पदार्थों की दो अन्य डार्क वेबसाइटों- हंसा और एल्फाबे को एक टास्कफोर्स (डच नेशनल पुलिस, एफबीआई और डीईए ने मिलकर यह टास्कफोर्स बनाई थी) बंद कराया था। दावा किया गया कि इस छापेमारी में डार्क वेब के इन बाजारों के डाटाबेस से दुनिया भर में फैले नशे के कारोबारियों और खरीदारों के सुराग मिले थे, लेकिन इससे भी डार्क वेब पर यह कारोबार थमा नहीं।

ऐसे हुई थी शुरुआत

यहां सवाल पैदा होता है कि आखिर वह क्या वजह थी जो इंटरनेट पर अंधेरे का ऐसा साम्राज्य तैयार हो गया और वह कौन था, जिसने इसे अमली जामा पहनाया था। बताते हैं कि इसकी असल शुरुआत 90 के दशक में खुद अमेरिकी सेना ने की थी। उसका उद्देश्य यह था कि संकलित की गई खुफिया जानकारी ऐसे नेटवर्क पर डाली जाएं जिन पर आम इंटरनेट उपभोक्ता नहीं पहुंच सकें, लेकिन अमेरिकी सेना के अधिकृत लोग दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठकर वह जानकारी हासिल कर सकें। इसकी वास्तविक रणनीति यह थी कि उनके संदेश इंटरनेट की भीड़भाड़ की बातचीत में छिप जाएं। लेकिन तकनीक का यह अजूबा एक किस्म का भस्मासुर साबित हुआ। यहां एक सवाल यह है कि तकनीक से लैस होने के बावजूद दुनिया भर की साइबर पुलिस आखिर क्यों डार्क वेब की मार्फत हो रहे काले कारोबार पर लगाम क्यों नहीं लगा पा रही है। इसकी एक बड़ी वजह दुनिया के अलग-अलग देशों में लागू साइबर कानूनों की भिन्नता है। ऐसा कोई साझा वैश्विक कायदा नहीं बन सका है जिसमें इनसे जुड़े अपराधियों की धरपकड़ सुनिश्चित हो और उन्हें बराबर सजाएं मिलें। अलग-अलग देशों की पुलिस की सतर्कता का स्तर भी अलग-अलग होता है। कहीं तो पुलिस पूरी सतर्कता के साथ काम करती है, तो कहीं ऐसे मामलों में पुलिस का रवैया बेहद ढीला होता है। हमारे देश में ही साइबर पुलिस और थाने होने के बावजूद आलम यह है कि हर रोज सैकड़ों-हजारों लोग साइबर फर्जीवाड़े के शिकार होते हैं। इन मामलों में साइबर पुलिस का पीड़ितों के साथ रवैया भी बेहद लापरवाही भरा होता है। आम तौर पर साइबर पुलिस शिकायतकर्ता से ही अपराधी की धरपकड़ की उम्मीद करती है, खुद एक-दो विभागों को ईमेल भेजने के सिवा कोई हाथ-पैर नहीं हिलाती है। एकाध रसूखदार पीड़ितों के मामले हल कर मीडिया में वाहवाही लूटने वाली ऐसी साइबर पुलिस असल में किसी काम की नहीं है। सरकार को साइबर पुलिस और साइबर थानों पर खजाना लुटाने की बजाय पीड़ितों को उनका धन लौटाने की समझदारी दिखानी चाहिए।

Advertisement
Advertisement