कला की कसक
कला के संरक्षण के लिये नीति-नियंताओं से संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जाती है। बहुत संभव है कि यह संरक्षण दैनिक जीवन में किसी तरह की विसंगति पैदा करे, लेकिन भावी पीढ़ियों को अतीत के कला सौंदर्य से रूबरू कराना हर समाज का दायित्व होता है। कला संरक्षण की प्रासंगिकता का प्रश्न पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के उस निर्देश के बाद फिर सामने उत्पन्न हुआ है, जिसमें सड़क को चौड़ा करने तथा पार्किंग के विस्तार के लिये रॉक गार्डन की दीवार के एक हिस्से को ध्वस्त करने का निर्देश दिया गया है। यह प्रकरण विरासत के संरक्षण और बुनियादी ढांचे के विस्तार के बीच संतुलन को लेकर गंभीर चिंता उत्पन्न करता है। निस्संदेह, केंद्र शासित प्रदेश के अधिकारियों द्वारा क्रियान्वित निर्णय न केवल रॉक गार्डन के निर्माता नेक चंद की कलात्मक विरासत के एक हिस्से को मिटा देता है, बल्कि एक परेशान करने वाली मिसाल भी स्थापित करता है। जो बताता है कि कि नया भारत विकास के नाम पर अपनी सांस्कृतिक व वन विरासत के साथ कैसा व्यवहार करता है। निस्संदेह, इस तथ्य को लेकर दो राय नहीं हो सकती है कि रॉक गार्डन ने केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ को एक विशिष्ट पहचान दी है। नेकचंद की इस विरासत ने दुनिया को बेकार और अनुपयोगी चीजों को नया स्वरूप देने की एक नई दृष्टि प्रदान की है। दशकों से रॉक गार्डन रचनात्मक मानवीय कला दृष्टि के प्रमाण के रूप में खड़ा है कि कैसे सकारात्मक सोच के साथ कचरे को आश्चर्यजनक कृति में तब्दील किया जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि नेकचंद की इस अद्भुत कला से प्रेरित होकर देश-दुनिया के विभिन्न भागों में रॉक गार्डन की प्रतिकृति बनाने की भी प्रेरणा भी मिली। नेकचंद के जाने के बाद भी रॉक गार्डन कलात्मकता के एक जीवंत प्रमाण के रूप में विद्यमान है। ऐसे में समाज व प्रशासन का नैतिक दायित्व बनता है कि इस सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण किया जाए।
यही वजह है कि सिटी ब्यूटीफुल के तमाम जिम्मेदार, सजग व संभ्रांत लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिये आगे आए हैं। यह विडंबना कही जाएगी हम अपनी समृद्ध और कलात्मक विरासत के एक हिस्से को सड़क निर्माण और प्रदूषण बढ़ाने वाले वाहनों के उपयोग के लिये बनायी जा रही पार्किंग के लिये खो देंगे। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि ध्वस्त की गई दीवार रॉक गार्डन में नेक चंद द्वारा बनायी गई मूल संरचना का हिस्सा नहीं थी। दीवार को ध्वस्त करने पर बचाव के लिये दिए जाने वाले तर्क तर्कशीलता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। यदि यह तर्क स्वीकार भी कर लिया जाता है तो भविष्य में इस दलील के आधार पर इसके अन्य हिस्सों के अस्तित्व पर संकट मंडरा सकता है। निस्संदेह, किसी संरचना या सांस्कृतिक प्रतीक के महत्व को उसके ढांचे के रूप में नहीं बल्कि उसके साथ लोगों के सांस्कृतिक और भावनात्मक जुड़ाव के रूप में देखा जाना चाहिए। वास्तव में इस दीवार को तोड़ने के लिये दी जा रही दलीलों की तार्किकता कई स्तरों पर त्रुटिपूर्ण ही है। सबसे पहले, उच्च न्यायालय परिसर के आसपास यातायात की जो भीड़ उत्पन्न होती है, वह खराब प्रबंधन की देन है। इसमें रॉक गार्डन की संरचना की उपस्थिति की कोई भूमिका नहीं है। सही मायनों में बेहतर सार्वजनिक परिवहन और शटल सेवाओं जैसे टिकाऊ विकल्पों की अनदेखी की गई है। इसके साथ उच्च न्यायालय द्वारा केस सूचियों के व्यवस्थित पुनर्गठन से भी यातायात संबंधी चिंताओं को दूर करते हुए अदालत परिसर में दैनिक उपस्थिति को कम किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर प्रशासन द्वारा दीवार को दूसरी जगह बनवाने और फिर पेड़ लगाने का वायदा पारिस्थितिकीय तंत्र के अपरिवर्तनीय नुकसान की भरपाई नहीं करता है। चंडीगढ़ की प्रसिद्ध पेड़ों की विरासत पहले ही अपनी आभा खोती जा रही है। ऐसे में सदियों पुराने पेड़ों को हटाना इसके पारिस्थितिकीय संतुलन के मद्देनजर एक आत्मघाती कदम ही हो सकता है। निस्संदेह, अदालतों को न्याय का संरक्षक माना जाता है। यदि वे सार्वजनिक विरासत और पर्यावरण की रक्षा नहीं करेंगी तो कौन करेगा? प्रगति के नाम पर अतार्किक नियोजन घातक साबित हो सकता है।