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गांधीवादी मरहम की जरूरत है संकटग्रस्त दुनिया को

07:15 AM Oct 01, 2024 IST

अविजित पाठक
जब मैं मोहनदास करमचंद गांधी को याद करता हूं या उनकी लिखी किताबें – ‘द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ और ‘हिंद स्वराज’ - को विवेचनात्मक समझ के साथ पढ़कर, उनके विश्व-दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करता हूं, तो मेरे समक्ष विरोधाभास खड़ा हो जाता है। जिस दुनिया में हम रहते हैं, उसकी कठोर हकीकत पर सावधानीपूर्वक नज़र डालने से कह सकते हैं कि गांधी की भावना नकारी जा रही है। राजनीतिक अर्थव्यवस्था से लेकर संस्कृति एवं शिक्षा के क्षेत्रों तक में। फिर भी, इस तमाम नकारात्मकता के बावजूद, मुझे यकीन है कि जख्मी हुई इस दुनिया को बचाने और ठीक करने के लिए हमें उनके विचार के साथ गंभीर जुड़ाव बनाने की आवश्यकता है।
जब मैं मौजूदा अति-आधुनिक/परम-राष्ट्रवादी काल में हमारी सामूहिक नियति पर नज़र दौड़ाता हूं तो मुझे लगता है कि ‘बढ़िया जीवनशैली’ के मोहपाश में फंसकर हम अपनी पहचान को मुख्यतः बाजार-संचालित प्रचार से बहकाए गए बेलगाम उपभोक्तावाद और विशिष्टतावादी अहसास (जो चीज़ मेरे पास है वह किसी अन्य के पास नहीं) के खुमार में धुत्त एक अतिवादी योद्धा के रूप में परिवर्तित करते जा रहे हैं। जैसे-जैसे हम अनवरत उपभोग के सिद्धांत को आत्मसात करने लगे हैं – जो कि नवउदारवादी बाजार के मूल सिद्धांत का एक तार्किक हश्र है - हमारी ज़रूरतें बढ़ती जा रही हैं। हमारे अतृप्त लालच (अधिक कारें, अधिक उपकरण, अधिक खपत, अधिक बिजली, अधिक जीवाश्म ईंधन का धुआं, अधिक वनों की कटाई और इस तरह अधिक कार्बन उत्सर्जन) पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं।
इसी तरह, जैसे-जैसे हम अधिक से अधिक परम-राष्ट्रवादी होते जा रहे हैं, हम दुनिया को और ज्यादा विभाजनों और खंडों में बांट रहे हैं। देखा जाए तो, खुद को हिंदू बनाम मुस्लिम या भारत बनाम पाकिस्तान या फिर इस्राइल बनाम फलस्तीन के संकीर्ण पालों से मुक्त रखना बेहद मुश्किल हो जाता है। हां, हम खुद को उस स्थिति में पाते हैं, जिसकी संज्ञा कई सामाजिक वैज्ञानिक ‘जोखिमज़दा समाज’ के रूप में करते हैं - एक ऐसा समाज जो युद्ध, सैन्यवाद, आतंकवाद, अधिनायकवाद, और सबसे अधिक, जलवायु आपातकाल से त्रस्त है। कोई शक नहीं, इस दुनिया में गांधीवादी भावना का ज़रा नामो-निशान बाकी नहीं है।
गांधी – शायद हेनरी डेविड थोरो की भांति - हमें अपनी कृत्रिम ज़रूरतें कम करने, आध्यात्मिक रूप से जाग्रत होकर सादगी पर जोर देने और पर्यावरणीय तंत्र के साथ समरसता बनाकर रहने का आग्रह करते हैं। गांधी हम से आंतरिक शक्ति, साहस, सत्य और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता और अन्यायपूर्ण व्यवस्था (जैसे कि उपनिवेशवाद या जाति व्यवस्था) के विरुद्ध प्रतिरोध की कला का स्रोत अहिंसा, अपरिग्रह और सर्वोदय में खोजने का आह्वान करते हैं। संभवतः, गांधी की सोच के पीछे भगवद् गीता की कर्मयोग की धारणा और यीशु द्वारा पर्वत पर दिए अपने उपदेश में व्यक्त ‘प्रेम की मुक्तिदायिनी शक्ति’ का रचनात्मक सम्मिश्रण था।
इसके अलावा, औद्योगिक पूंजीवाद के संपूर्ण ढांचे की आलोचना करने के गांधी के तरीकों में ‘दार्शनिक अराजकता’ और रूमानियत के निशान खोजना कठिन नहीं है। हां, ‘हिंद स्वराज’ नामक अखबार में ‘डॉक्टरों और वकीलों’ पर की उनकी तीखी टिप्पणियां या काफी हद तक विकेन्द्रित ग्राम स्वराज के प्रति उनका लगाव यह दर्शाता है कि वे अपने वक्त में प्रचलित आधुनिकता की मानकीकृत धारणा से काफी अलग थे, चाहे यह बुर्जुआ औद्योगिक पूंजीवाद हो या मार्क्सवादी समाजवाद।
इसी तरह, जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्पष्टतया व्यक्त किया है, जॉन रस्किन ने जिस तरह से श्रम की गरिमा को महत्व दिया और दमनकारी युग्मक - बौद्धिक बनाम शारीरिक- पर सवाल उठाया, उसका गहरा प्रभाव पड़ा। गांधी के विश्वदृष्टिकोण में किसान, बुनकर और बढ़ई डॉक्टरों और वकीलों से कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाते। इसलिए, कोई हैरानी नहीं कि ‘नई तालीम’ या बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत में इस तरह की शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया है, जिसमें विद्यार्थी केवल किताबी ज्ञान न पाकर हाथ- पैरों का उपयोग कर सीखें अर्थात व्यावहारिक शिक्षा, जिससे दिमाग एवं मन और सिद्धांत एवं व्यवहार के बीच नाता कायम होता है। यह मत भूलिए कि गांधी ने खुद 1910-13 के दौरान, दक्षिण अफ्रीका के टॉलस्टॉय फार्म में अपने साथ रहने वाले बच्चों या युवा शिक्षार्थियों के साथ काम करते हुए, एक ‘शिक्षक’ के रूप में, इसका प्रयोग किया था।
यहां, मैं अक्सर खुद से एक सवाल पूछता हूं कि इस अशांत समय में गांधी को फिर से खोजना, उनके विचारों के साथ आलोचनात्मक और रचनात्मक प्रयोग करना और न्यायपूर्ण एवं मानवीय दुनिया बनाने के लिए व्यवहार का दर्शन विकसित करना क्या संभव है? खैर, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गांधी के आलोचक भी बहुत थे। हम जानते हैं कि रजनी पाल्मे दत्त जैसे लोगों ने ऐतिहासिक भौतिकवाद के अपने मार्क्सवादी सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए, गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ या किसी किस्म के ‘अहिंसक समाजवाद’ को ‘राम राज्य की रूमानी हसरतें’ ठहराकर आलोचना की है। इसी तरह, जाति के सवाल पर डॉ. बीआर अंबेडकर कभी भी गांधी के दृष्टिकोण से सहज नहीं थे। और निश्चित रूप से, जैसा कि उनकी हत्या के पीछे की राजनीति से पता चलता है, उग्र हिंदू राष्ट्रवाद के हामियों का समूह गांधी और उनके अहिंसा और धार्मिक बहुलवाद के सिद्धांत से नफरत करता था।
इन आलोचनाओं के बावजूद, तथ्य यह है कि गांधी से ‘बचना’ मुश्किल है। इसका कारण यह है कि हमारी आधुनिकता - तर्क और मुक्ति के भव्य ज्ञानोदय वादों के बावजूद - विफल रही है। हम सर्वव्यापी हिंसा के दौर में जी रहे हैं – हिंसा जो तकनीकी-विज्ञान की है और इसकी यांत्रिक ‘तर्कसंगतता’ दुनिया को एक बड़े पैमाने की पर्यावरणीय आपदा की ओर ढकेल रही है, हिंसा जो निगरानी के नए उपकरणों से बनती है, जिसके माध्यम से आधुनिक राष्ट्र अपने नागरिकों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना चाहते हैं और यह लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांतों का भी अवमूल्यन है, हिंसा जो धार्मिक कट्टरवाद और आतंकवाद के विविध रूपों के एक साथ विकसित होने से बनती है, और सबसे ऊपर है, युद्ध का नियमितीकरण और सामान्यीकरण करना – एक युद्ध दूसरी लड़ाई की ओर ले जाता है!
तथापि, वे सब जो इस विद्रूप स्थिति द्वारा पैदा नैराश्य के चलते पंगु होने से इनकार करते हैं और मानते हैं कि इस दुनिया को बचाना अभी भी संभव है, वे मिसाल योग्य बदलाव करने के पक्षधर हैं – सत्ता की आक्रामकता से संवाद की सभ्यता की ओर, सब कुछ मेरा की बजाय बांटकर उपयोग करने की भावना बनाने की तरफ, धर्म को परम-राष्ट्रवाद के औजार के रूप में उपयोग करने की अपेक्षा प्रेम से परिपूर्ण सहृदयता एवं दूसरों को सहानुभूतिपूर्वक सुनने की योग्यता बनाने की ओर। या फिर उस दिशा में, जिसके लिए राजनीतिक दार्शनिक मार्था एकतरफा आर्थिक संपन्नता की बजाय शांति, समझौता एवं क्षमा को आत्मबल बनाने पर जोर देती हैं।
और अगर हम इस परिवर्तनकारी यात्रा पर निकलना चाहते हैं, तो हमें गांधी और उनके द्वारा सुझाई पर्यावरणीय सततता, शांतिपूर्ण एवं समतावादी दुनिया बनानी पड़ेगी। वह जो अत्यधिक केंद्रीकृत, सत्तावादी तंत्र की निष्ठुर शक्ति होने की बजाय लोगों के अंदर आत्मिक शक्ति बनाने पर जोर देने वाली हो। इस राह का कोई और विकल्प नहीं है।
गांधी भले ही सर्वकला संपूर्ण नहीं थे, तो भी उनसे प्रभावित होने से बचा नहीं जा सकता।
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लेखक समाजशास्त्री हैं।

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