पितरों की विदाई और देवी आगमन का संधिकाल
महालया, भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो पितृ पक्ष के समापन और मां दुर्गा के आगमन का प्रतीक है। इस दिन लोग अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देते हैं और साथ ही देवी शक्ति का स्वागत करते हैं। बंगाल में महालया की विशेष धूमधाम होती है, जहां यह एक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। मध्यरात्रि से शुरू होने वाले उत्सव में पटाखों की गूंज और मां दुर्गा के मंत्रों की धुन वातावरण को गुंजायमान कर देती है। यह समय श्रद्धा, उत्साह और भक्ति का अद्भुत संगम होता है।
अलका ‘सोनी’
पूरे देश में महालया को पितृ पक्ष के समापन और मां दुर्गा के आगमन के रूप में मनाया जाता है, लेकिन बंगाल में महालया का अपना महत्व है। इसकी उद्घोषणा महालया के एक दिन पहले की मध्यरात्रि से ही होने लगती है, जब लोग जमकर पटाखे छोड़ते हैं।
मां शक्ति का आगमन
मां शक्ति के आगमन का जोश और उत्साह हर तरफ दिख पड़ता है। यह उत्साह हो भी क्यों न! यहां नवरात्र आने की आहट दो महीने पूर्व से ही सुनाई देने लगती है। फिर महालया का आना तो इस प्रतीक्षा की पूर्णाहुति होती है।
तर्पण और स्वागत का संधिकाल
आश्विन कृष्ण अमावस्या में, जहां एक तरफ लोग अपने पितरों का तर्पण कर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं, वहीं दूसरी तरफ देवी भगवती के आगमन का संधिकाल मनाया जाता है। इस पावन संधि काल को ही महालया कहा गया है। महालया, पितरों को श्रद्धांजलि देने का दिन है। इस दिन परिवार के बुजुर्ग सदस्य तर्पण करते हैं और अपने पूर्वजों की आत्मा को जल अर्पित करते हैं। यह पितरों के प्रति आभार व्यक्त करने का दिन है।
सपरिवार पृथ्वी पर
मान्यता है कि इस दिन पितरगण वापस अपने लोक को लौट जाते हैं और मां दुर्गा भगवान शिव के निवास कैलास से सपरिवार पृथ्वी पर आती हैं। महालया हमारे लिए अत्यंत धार्मिक महत्व रखता है। इस दिन मां दुर्गा की मूर्तियों को अंतिम रूप दिया जाता है। मूर्तिकार इस दिन मां दुर्गा की आंखें तैयार करते हैं।
महालया का अर्थ
वस्तुतः ‘महालया’ शब्द संस्कृत के दो शब्दों ‘महा’ और ‘आलय’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है ‘महान निवास’ या ‘देवी का घर’। जिसके दसवें दिन वह वापस लौटती हैं। इस दौरान पूरी सृष्टि मां दुर्गा के आलोक से जगमगा उठती है।
बंगाल में खास पूजा
महालया का महत्व सदियों से भारतीय संस्कृति में रहा है, लेकिन बंगाल में इसकी खास पूजा की जाती है। इस बार महालया 2 अक्तूबर को है और इसके अगले दिन, यानी 3 अक्तूबर से शारदीय नवरात्र प्रारंभ हो जाएंगे।
मूर्ति को अंतिम रूप
बंगाल की धरती पर जिस तरह दुर्गा पूजा का महत्व रहा है, उसी तरह महालया को भी बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। बंगाल में महालया का हर कोई इंतजार करता है, क्योंकि यहां पुत्री के रूप में मां भवानी को बुलाया जाता है। इस दिन देवी दुर्गा की प्रतिमा पर रंग चढ़ाया जाता है, उनकी आंखें बनाई जाती हैं और प्रतिमा समेत मंडप को सजाया जाता है। मां दुर्गा की मूर्ति बनाने वाले कारीगर अपना कार्य पहले ही शुरू कर लेते हैं, लेकिन महालया के दिन मूर्ति को अंतिम रूप दिया जाता है।
देवी पक्ष की शुरुआत
महालया के दिन पितृपक्ष समाप्त होते हैं और इसी दिन से देवी पक्ष की शुरुआत हो जाती है। पितृपक्ष की तरह ही देवी पक्ष भी 15 दिन का होता है, जिसमें से 10 दिन नवरात्रि के होते हैं और 15वें दिन लक्ष्मी पूजा के साथ देवी पक्ष समाप्त हो जाता है, अर्थात शरद पूर्णिमा के साथ देवी पक्ष का समापन होता है।
मां दुर्गा का आह्वान
माना जाता है कि महिषासुर नामक राक्षस का अंत करने के लिए महालया के दिन ही देवी-देवताओं ने मां दुर्गा का आह्वान किया था। आज भी महालया के दिन मां दुर्गा के मंत्रों से वातावरण गुंजायमान हो उठता है। मन में स्वतः स्फूर्त भक्ति और ऊर्जा का संचार होने लगता है।
गणेश जी व कार्तिकेय भी
महालया अमावस्या की सुबह को पितर पृथ्वी लोक से विदाई लेते हैं और शाम के समय मां दुर्गा अपनी योगनियों और पुत्र गणेश व कार्तिकेय के साथ पृथ्वी पर पधारती हैं। इसके बाद नौ दिन घर-घर में रहकर अपनी कृपा भक्तों पर बनाए रखती हैं। बंगाल में साल भर दुर्गा पूजा का इंतजार रहता है और इस दिन देवी दुर्गा की कहानियों को बच्चों को सुनाया जाता है।
बेटी रूप में स्वागत
यहां मां दुर्गा बेटी हैं, जिनके स्वागत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते लोग। घर में हो रही पूजा को ‘बारिर’ कहते हैं। बारिर के लिए पूरे परिवार के सदस्य एक साथ पूजा करते हैं। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा को कई नामों से जाना जाता है, जैसे कि अकालबोधन, शरदियो पुजो, शरोदोत्सब, महा पूजो, मायेर पुजो आदि।
सांस्कृतिक विरासत
कोलकाता में दुर्गा पूजा को यूनेस्को ने ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ की सूची में भी शामिल किया है। देश भर में दुर्गा पूजा की सबसे ज्यादा आकर्षक और खूबसूरत परंपरा जहां नजर आती है, वह पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा है।
दिव्य और भव्य
जिसके बारे में सोचते ही आंखों के सामने नजर आने लगते हैं भव्य पंडाल, पूजा की पवित्रता, रंगों की छटा, तेजस्वी चेहरों वाली देवियां, सिंदूर खेला, धुनुची नृत्य और भी बहुत कुछ ऐसा दिव्य और अलौकिक, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सके। दुर्गा के साथ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाई जाती हैं। प्रतिमा की इस पूरी प्रस्तुति को ‘चाला’ कहा जाता है।
चोखूदान की परंपरा
दुर्गा पूजा के लिए चली आ रही परंपराओं में ‘चोखूदान’ सबसे पुरानी परंपरा है। ‘चोखूदान’ के दौरान दुर्गा की आंखों को चढ़ावा दिया जाता है। ‘चाला’ बनाने में 3 से 4 महीने का समय लगता है। इसमें दुर्गा की आंखों को अंत में, यानी महालया के दिन बनाया जाता है।
आस्था का सैलाब
महालया से लेकर विजयादशमी तक दुर्गा पूजा की विशिष्टता दर्शनीय होती है, जो अंतर्मन तक उतर जाती है। मानों कण-कण में मां दुर्गा समा गई हों। घर, दुकान, मंदिर, दुर्गा मंडप और तो और लोगों के जमघट में भी देवी दुर्गा स्थापित हो जाती हैं, अपने भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए।