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जन्म से मिले जो अपनत्व की घनी छाया

07:59 AM May 14, 2024 IST

डॉ. जवाहर धीर
जन्म के साथ मिले संबंध-नाते जीवन में घनी छाया की भूमिका निभाते हैं। सबसे पहले माता-पिता, फिर बहन-भाई, दादा-दादी चाचा-ताऊ, मामा-मासी, बुआ और फिर चचेरे-ममेरे पारिवारिक रिश्ते। इस तरह रिश्तों का व्यापक ताना-बाना है जो एक परिवार में जन्म के साथ ही व्यक्ति को मिलते हैं। लेकिन इन सबमें नजदीकी रिश्ता है माता-पिता का। आधुनिक संदर्भों में तो एकल परिवार में माता-पिता ही प्रमुख अभिभावक व पालनहार होते हैं। लेकिन प्रकृति ने सबसे नजदीकी रिश्ता मां का ही बनाया है। दरअसल, जो कभी भी नहीं बदलती, वो मां ही होती है। उसकी शख्सियत बहुत ही विराट है।
पिता का संरक्षण-संबल
यह भी सही है कि एक पिता बच्चे के पालन-पोषण व संरक्षण के मोर्चे पर ताउम्र एक मूक योद्धा की भूमिका निभाता है। वहीं जरूरत-मुसीबत में भाई-बहन से मिलने वाले सहारे-संबल का जवाब ही नहीं। दरअसल सिबलिंग घर में मौजूद निकटस्थ मित्र होते हैं। जो बात बड़ों को कहते हुए हमें अकसर भय-संकोच रहता है वह उनसे झट से शेयर कर सकते हैं। लेकिन इन सब में सबसे अच्छी दोस्त,सबसे अच्छी बहन, सबसे अच्छा भाई, सबसे अच्छी टीचर और कभी-कभी तो सबसे अच्छे पापा, दादा, दादी... ये सभी हमारी मां में ही रचे-बसे हैं।
हर किरदार निभाती है मां
मां जीवन के हर किरदार को निभाती है। मां बच्चे के लिए मज़बूत विश्वास है। एक मां जिसकी कोई उपमा न हो, जिसके प्रेम को कभी पतझड़ ने स्पर्श न किया हो। जिसने हमें जन्म दिया, इस सुन्दर धरती पर लेकर आई, जो बेमिसाल है। तुलना कैसे और किससे कर सकते हैं। अपनी आवश्यकताओं को अनदेखा कर बच्चों के शौक पूरा करती है मां। उनके सुख-दुख, प्रगति और पतन से, मां ही जुड़ी होती है। सचमुच उसका होना ही सुकून का अहसास है क्योंकि बड़ी से बड़ी परेशानी से लेकर आचार डालने के तरीके तक सारे हल मां के पास हैं।
शायरों की कलम से
शायर निदा फ़ाज़ली लिखते हैं कि घोंसले में आई चिड़िया से चूज़ों ने पूछा -मां आकाश कितना बड़ा है? चूज़ों को अपने पंखों के नीचे समेटती हुई चिड़िया बोली, ‘सो जाओ। आकाश इन पंखों से छोटा है।’ प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राना लिखते हैं :-
‘किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई। मैं घर में सबसे छोटा था,मेरे हिस्से में मां आई।’ यह भी कि ‘चलती-फिरती हुई आंखों से अजां देखी है, मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, मां देखी है।’ मां को उसके बच्चे प्यार करें या न करें मगर वह अपने बच्चों की सलामती की दुआ हर समय करती है। मां की परिभाषा तो इतनी विराट है कि उस पर जितना भी लिखा जाए कम है। शब्द ही कम पड़ जाते हैं। हमने आज तक भगवान को तो नहीं देखा,पर जिसने भगवान के बारे में बताया, उस मां को जरूर देखा है।
जननी जीवन का आधार
जब सृष्टि बनी तो संसार में जीवन का आधार मां बनी जो आज भी है और भविष्य में भी रहेगी। धर्म गुरु श्रीश्री रविशंकर कहते हैं- ‘ईश्वर की तुलना मां से की गई है। उन्हें मीनाक्षी कहा गया है-जिसका अर्थ है कि ईश्वर जिसके पास मीन यानी मछली की आंखें हैं। मछली ही एकमात्र ऐसा जीव है,जो अपनी आंखें कभी भी बंद नहीं करती। वह अपने बच्चों पर नज़र रखते हुए सदा उनके पीछे चलती रहती है। इसीलिए ईश्वर को मीनाक्षी-मां कहा गया है। बच्चे जहां कहीं भी, किसी भी रास्ते पर गये हों, मां की नज़र से बाहर नहीं होते। उसका प्रेम हमेशा उनके साथ चलता रहता है।’
एक मासूम की पाती
एक बार स्कूल में नन्हीं बालिका को मातृ दिवस के अवसर पर मां के नाम एक चिट्ठी लिखने को कहा गया। बालिका ने लिखा- ‘प्यारी मां, मैं आपसे प्यार करती हूं क्योंकि आप बहुत हंसाती हो। इसीलिए भी कि आप झूले को बहुत अच्छी तरह से धक्का देती हो। आपने मेरे लिए मैक्रोनी बनाना सीखा और थोड़ा मुझे भी सिखाया। आपने मुझे साइकिल चलाना सिखाने के लिए पहले ख़ुद सीखा। आप गिर भी पड़ीं थीं,पर मुझे बचाया। मैं आपसे प्यार करती हूं आप चोट पर बैंडएड बहुत अच्छी तरह से लगाती हो। और भी बहुत कुछ है पर मैं लिख नहीं पा रही।’ दरअसल, माता-पिता का प्यार होता क्या है,इसका पता बच्चों की भोली भाली बातों से हम जान‌ पाते हैं। कहा जाता है कि ईश्वर प्रत्यक्ष कभी बच्चे के आंसू पोंछने नहीं आता, लोरी सुनाने नहीं आता क्योंकि वह हर जगह खुद नहीं आ सकता। इसीलिए उसने यह दायित्व मां को सौंपा है।
सर्वस्व लुटाने को तत्पर ममतामयी
एक स्त्री जब वह बच्चे को जन्म देती है तो वह हमेशा के लिए 'मां' हो जाती है और कुछ नहीं रहती। हर वक्त दुआएं देने वाली मां बच्चे के लिए सर्वस्व लुटाने में तत्पर रहती है। इसी बात लेकर एक शे’र है :
‘क्या सीरत, क्या सूरत थी, मां ममता की मूरत थी।
पांव छुए और काम बने,अम्मा एक मुहूरत थी।’
मगर आज जीवन का चलन बदल गया है। जब तक होश नहीं ‌संभालते,तब तक मां बच्चों की सांस में बसती है, पिता का सम्मान रहता है। और जब बड़े हो जाते हैं तो वे एक नये संसार की तलाश में माता-पिता को छोड़ जाते हैं, विदेश में जा बसते हैं। समय के साथ मां स्मृतियों में भी मिटने लगती है। संतान की दुनिया में ऐश-ओ-आराम, पैसा ही रह जाते हैं। उन्हें जननी की चिंता नहीं रहती। भौतिकवाद व स्वार्थ की अंधी दौड़ में,समय के साथ-साथ मां-बाप को भूलती जा रही आज की पीढ़ी एक न एक दिन यह महसूस करेगी कि मां-बाप से दूर होना सबसे बड़ी ग़लती थी।

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