मोहब्बत की दुकान में जलेबी की मिठास
सहीराम
एक था लड्डू और एक थी जलेबी। यह दोनों क्योंकि एक ही खानदान से हैं यानी मीठे के खानदान से हैं तो भाई-बहन भी मान सकते हैं। लेकिन साथी तो अवश्य रहे हैं। पहले का जमाना होता तो जीवन साथी भी कहा जा सकता था। लेकिन दोनों एक साथ कम ही दिखाई देते हैं। वरना तो जी, एक जमाने में हरियाणा की शादियों में दोनों साथ होते थे। यह वह जमाना जब शादी-ब्याहों में भी पंगत लगती थी। अब बुफे के जमाने में जलेबी तो होती है, लेकिन लड्डू नहीं होते। हां, अलबत्ता जब शादी-वादी निपट लेती है तो विदाई में दिए जाने वाले मिठाई के डिब्बे में लड्डू बहुतायत में होता है और वहां से जलेबी वैसे ही गायब होती है जैसे खाने के मैन्यू से लड्डू गायब होता है।
वैसे लड्डू की व्याप्ति ज्यादा है, वह हर जगह होता है। वह शगुन से लेकर प्रसाद तक हर कहीं होता है। वह आम आदमी का भी प्रिय है और देवताओं का भी। गणेशजी तो मोदक से ही खुश होते हैं और गोपाल को लड्डू गोपाल बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। लड्डू तो भाई मन में भी फूट जाता है और कहावत यह है कि मन के लड्डू हैं तो फिर फीके क्यों? जलेबी इतनी सर्वव्यापी नहीं है। देवताओं के भोग में जलेबी का होना कभी सुना नहीं। लेकिन इधर वह नेताओं की बहुत प्रिय हो गयी है। इतनी कि अगर वह राहुलजी की इतनी प्रिय हो गयी है तो मोदीजी भी उसे कम नहीं चाहते।
असल में इधर लड्डू भी और जलेबी भी, दोनों ही राजनीति में कूद पड़े हैं। वैसे ही जैसे इधर एक ही परिवार के दो लोग और कई बार तो उससे भी ज्यादा लोग एक साथ चुनाव मैदान में कूद पड़ते हैं और आपस में गुत्थमगुत्था हो जाते हैं। फर्क यही है कि जो लड्डू कभी शगुन में काम आता था और कभी देवताओं के प्रसाद में, जो लड्डू कभी खुशी बांटने के काम आता था, देवताओं के भोग में काम आता था, उसी लड्डू का इस्तेमाल इधर कटुता बांटने के लिए करने की कोशिश हुई। अफवाह फैलाई गयी कि भगवान वेंकटेश्वर के प्रसाद के लड्डू में इस्तेमाल होने वाले में घी में चर्बी मिली है। जबकि परीक्षण में ऐसा कुछ भी नहीं पाया गया था।
लेकिन इससे पहले कि नफरत जीतती, अदालत ने नकेल कस दी और खुशी का, प्रसाद का, भोग का लड्डू नफरत का ज़हर बनने से बच गया। जलेबी इस माने में भाग्यशाली निकली। उस पर किसी की बुरी नजर नहीं पड़ी। इसलिए नहीं कि वह सीधी नहीं थी। सीधी होती तो शायद वही होता कि जिसने डाली, बस बुरी नजर डाली। फिर वह रस से भी भरी हुई थी। शायद इसलिए वह मोहब्बत की दुकान में सज गयी।