दोहों में माटी की सौंधी महक
सत्यवीर नाहड़िया
अपनी विशिष्ट मौलिक पहचान रखने वाला दोहा सदा से अपनी छाप छोड़ता रहा है। यही कारण है कि विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों में भी इस अर्द्धसम मात्रिक लौकिक छंद पर काफी काम हुआ है तथा संस्कृत तथा हिंदी साहित्य में समृद्ध रही सतसई परंपरा अब विभिन्न बोलियां में भी स्थान पा रही है। आलोच्य कृति ‘सुरेखा’ ऐसी ही एक हरियाणवी दोहा सतसई है, जिसमें रचनाकार सतपाल पराशर आनंद ने सामाजिक सरोकारों से जुड़े बहुआयामी विषयों पर कलम चलाई है। इन दोहों से गुजरते भी माटी की सौंधी महक को महसूस किया जा सकता है।
इस सतसई के दोहों में कहीं सामाजिक विसंगतियों व विद्रूपताओं पर करारे कटाक्ष हैं, तो कहीं सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं का मार्मिक रेखांकन है। कहीं जीवन दर्शन है, तो कहीं सामाजिक दायित्वबोध है। रचनाकार ने अपनी बात प्रेरक उदाहरणों के माध्यम से कही है, एक बानगी देखिए :-
हंकारी नर डूब ज्या,ज्यूं छेक्कां की नाव।
दूध पिलायां तै नहीं,बदलै सांप सुभाव॥
एक अन्य उदाहरण—
बुक्खा सोणा सै भला,बुरा मांगणा भीख।
कीड़ी कितना ढो रही, सीख सकै तै सीख॥
रचनाकार ने जीव जगत के सभी विषयों पर प्रेरक दोहे सृजित किए हैं। आध्यात्मिक तथा सामाजिक चिंतन पर अधिकांश दोहे प्रभाव छोड़ते हैं। जीवन दर्शन पर आधारित एक दोहा देखिएगा :-
भित्तर भी इक जेळ सै, बाहर भी इक जेळ।
जीण मरण के बीच म्हं,सारे जुट्ठे मेळ॥
ठेठ हरियाणवी शब्दावली, कलात्मक आवरण, विषय विविधता, सुंदर छपाई जहां इस सतसई की खूबियां कहीं जा सकती हैं, वहीं अनेक हरियाणवी शब्दों को हिंदी की तरह लिखने की प्रवृत्ति, कहीं-कहीं छंद दोष तथा वर्तनी की ढेरों अशुद्धियां अखरती हैं, जिन्हें अगले संस्करण में ठीक किया जा सकता है।
पुस्तक : सुरेखा रचनाकार : सतपाल पराशर आनंद प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन, गाजियाबाद पृष्ठ : 114 मूल्य : रु. 200.