उड़ गया हंस बाकी न होने का दंश
अमृतलाल मदान
अाजीवन साहित्य से सम्मानित वैसे तो हंस जी हरियाणा के प्रथम राज्य कवि के रूप में प्रसिद्ध थे, किंतु मैंने उन्हें सदा जनकवि के रूप में ख्याति प्राप्त करते देखा। छोटे-बड़े अनेक नगरों के कवि- सम्मेलनों-मुशायरों में हज़ारों श्रोताओं को जिस सहजता से वह अपनी कविताओं, रुबाइयों, गीतों-ग़ज़लों के मधुर-कंठ पाठ से मंत्रमुग्ध कर दिया करते। वह रुबाई सम्राट तो कहलाते ही थे, सबमें जन-हृदय सम्राट भी थे। जनकवि बने ऐसे हंस जी को उनकी पांचवीं पुण्यतिथि की पूर्वसंध्या पर याद करता मानों स्मृतियों की पोटली खोल बैठना है।
जि़ला मुजफ्फरगढ़ (पाकिस्तान) में उनका जन्म दो अगस्त, 1926 को हुआ था जो संयोगवंश मेरा भी जन्म दिन है, किंतु पंद्रह वर्ष बाद का। हमारे बीच इस आत्मीयक के कुछ अन्य कारण भी हैं यथा हमारी एक ही मां बोली सरायकी; दूसरा पाकिस्तान में मेरा सिंधु नदी के एक किनारे के गांव में पैदा होना तो उनका उसके ठीक सामने दूसरे किनारे के गांव में। मां-बोली, जन्मभूमि और नदी का यह साझापन अदृश्य रूप से हमारी नाभियों को भी भाई समान परस्पर जोड़े रखता था। एक समय ऐसा भी आया जब हम दोनों हिंदी-मुल्तानी कवि सम्मेलनों में एक साथ होते।
हंस जी को मैं सन् 1967 में गुरु गोविंद सिंह के त्रिशती उत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित महाकाव्य ‘संत सिपाही’ से मिली प्रसिद्धि से जानने लगा था। तब मैं फुटकर स्वच्छ कविताएं ही लिखा करता था।
दो वर्ष बाद सन् 1969 में गुरु नानक के पंचशती समारोह के उपलक्ष्य में मैंने भी दुःसाहस किया कि अंग्रेजी शिक्षक होने के बावजूद मैं भी उस महान गुरु पर अपनी लेखनी चलाऊं, किंतु तब मुझे हिंदी का छंद-ज्ञान इतना न था। मैं हंस जी को करनाल के सदर बाजार में एक मकान में मिला, जहां विभाजन के बाद उनका परिवार आकर रहा था और हंस जी का जीवन-संघर्ष शुरू हुआ था। उनसे कुछ छंद-ज्ञान प्राप्त कर मैंने हिंदी में गुरु नानक पर काव्य रचा और पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में प्रकाशनार्थ सौंप दिया। इसके शीर्षक ‘संत महात्मा’ की प्रेरणा भी मुझे उनके चर्चित महाकाव्य ‘संत सिपाही’ से मिली और उनका आशीर्वाद भी उन्होंने कृपापूर्वक मुझे भी वरिष्ठ साहित्यकार के तौर पर हंस-सम्मान से सम्मानित किया। वह हर वर्ष हिसार में अपने जन्मदिन पर श्रेष्ठ कवियों को सम्मानित किया करते थे। प्राचार्य पद में उनकी सेवानिवृत्ति पर जो काव्य आयोजन हिसार में हुआ, उसमें स्व. प्रभाकर माचवे जैसे कई मूर्धन्य साहित्यकार मौजूद थे।
हंस जी के काव्य में सांप्रदायिकता और सामाजिक अन्याय का प्रखर विरोध, दीन-दुखियों की पीड़ा और उनके प्रति असीम करुणा के भाव, देश-प्रेम तथा पीछे छूट गयी अपनी जन्मभूमि का मोह स्पष्ट देखा जा सकता है। उनका यही मोह उन्हें दो बार पाकिस्तान की यात्रा पर भी ले गया, जहां वह पुराने मित्रों, सहपाठियों को तो मिले ही, वहां अदबी-गोष्ठियों में भी काव्य-पाठ किया। अब उनके सुपुत्र शशिभानु हंस को मिली सूचना के अनुसार हंस जी की पुस्तकें लायलपुर के कुतुबखाने (पुस्तकालय) में बड़े आदरपूर्वक रखी गयी हैं।
अपने प्रदेश से बाहर मैंने उन्हें इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए देखा तो बड़े गर्व की अनुभूति हुई। तब उन्होंने नेत्र-कष्ट के कारण काला चश्मा पहना हुआ था, फिर उन्होंने अपनी रुबाइयों व कविताओं का पाठ अपनी स्मृति के आधार पर किया। किन्तु बाद में दिल्ली के एक कार्यक्रम में स्मृति-लोप के आसार दिखने शुरू हो गये थे।
कालांतर में वह वृद्धावस्था के कारण और भी कई रोगों का शिकार हो गये। अंत पांच वर्ष पूर्व छब्बीस फरवरी वह मनहूस घड़ी आ ही गयी जब अशुभ समाचार मिला। अनेक संस्थाओं ने शोक-प्रस्ताव भेजे, जिनका संकलन भिवानी के आनंद प्रकाश ‘अर्टिस्ट’ ने अपने प्रकाशन से छपे स्मृति ग्रंथ ‘उड़ गया हंस अकेला’ में अन्य सामग्री सहित किया। इससे पूर्व 1999 में डॉ. राम सजन पाण्डेय ने भी ‘उदयभानु हंस रचनावली’ के चार भाग सम्पादित किये हैं। जो कृतियां हंस जी ने हिंदी साहित्य को ही वे हैं :- अमृत कलश, कुछ कलियां कुछ कांटे, देसां में देस हरियाणा, धड़कन, वन्दे मातरम, शंख और शहनाई, संत सिपाही, हिन्दी रुबाइयां, हरियाणा गौरव गाथा और सरगम आदि। उनका योगदान अविस्मरणीय है।
स्मृति कविता
भव-ताल के दूषित जर में भी
हंस अम्लान रहता है- विशुद्ध श्वेत
और यदि वह कवि हो तो
उसका प्रतिबिम्ब श्वेततर
तथा उसकी कविता श्वेततम।
सृजन के मूक क्षणों में तापस होता है वह
और उसकी कविता - तापसी, शुचितम।
और गरिमामयी हंसगति खिली-खिली
शीष उठाए कमल की तरह।
पंख फड़फड़ाता है जब वह,
मोती छिटकते हैं चहुंओर
रश्मियां बिखेरते रवि शशि की।
वह भाव-अतिरेकी भी होता है
स्वप्निल तथा नीर-क्षीर विवेकी भी
दोनों को पृथक्-पृथक् करता
लेखनी की नोक से।
सामाजिक न्याय का प्रबल पक्षधर
सौहार्द्र का प्रवर प्रवक्ता भी
शब्द-योद्धा और अर्थ-प्रहरी
डंके की चोट से।
बहता चलता है वह समय-धारा पर
चोंच मारता इधर-उधर
मोती चुगता प्रखर।
कुछ ऐसे ही थे कविवर
स्व. उदयभानु हंस
ऐसा ही काव्य था उनका
ज्यों लहरों का राजहंस।