जड़ता के समाज में विद्रोहिणी की गाथा
राजकिशन नैन
उन्नीसवीं सदी के पुनर्जागरण के समय महाराष्ट्र व बंगाल में समाज सुधार हेतु जो आंदोलन चले उसने भारतीय मनीषियों और समाज को खूब उद्विग्न एवं उद्वेलित किया। कई दफा तो ये आंदोलन पुनर्जागरण कम और पुनरुत्थान ज्यादा लगते हैं। सुजाता द्वारा ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ शीर्षक के तहत लिखी गई जीवनी रमाबाई समेत तमाम भारतीय स्त्रियों द्वारा भोगे गए दारुण दुखों की प्रामाणिक एवं प्रेरणीय कहानी है। उन दिनों एक स्वायत, सबल व समर्थ स्त्री पुरुषवादी पितृसत्ता को फूटी आंखों नहीं सुहाती थी। रमाबाई पितृसत्ता के इस दंभ को, जो स्त्री को संपत्ति अथवा निर्जीव वस्तु की तरह देखता है और स्त्री के अभिकर्तृत्व को सदा से छीनने पर आमादा है, खूब पहचानती थी। रमाबाई ने भारत की गुलामी, काले दासों की गुलामी और स्त्रियों की गुलामी को हमेशा समानांतर रखकर देखने का साहस किया।
रमाबाई की किताब ‘द लाइफ ऑफ हाई कास्ट हिंदू वूमेन’ का पाठ सामने आया तो भारत में स्त्रीवाद के अतीत की जो तस्वीर सुधारकों द्वारा गढ़ी हुई थी, प्रश्नेय हो गई। अंतर्जातीय प्रेम विवाह रचाने वाली, एकल अभिभावक, उद्यमी, खतरों से खेलने वाली, स्त्री स्वायत्तता की हिमायती, शिक्षा और रोजगार के पक्ष में मजबूती से खड़ी तथा अगणित नये विचारों की प्रणेता रमाबाई निश्चय ही समाज सुधार हेतु पैदा हुई थी। वह सही मायनों में ‘सेल्फ मेड’ स्त्री थी।
रमा का स्त्रीवाद जाति, धर्म, नस्ल और राष्ट्रीयताओं के इंटरसेक्शन पर खड़ा हुआ था। प्राचीन शास्त्रों की अद्वितीय अध्येता रमाबाई की महिमा इस कारण है कि तमाम उपेक्षाओं एवं अपमानों से डरे बिना उन्होंने औरतों के हक की खातिर न केवल बौद्धिक दखल किया बल्कि सेवा का ऐसा क्षेत्र चुना जो किसी अकेली औरत के लिए उस दौर में असंभव माना जाता था। यह सब करने के लिए रमा ने बड़ी कीमत भी चुकाई। विधवाओं हेतु आश्रम की स्थापना, उनके पुनर्विवाह तथा स्वावलंबन हेतु नई पहल और यूरोप तथा अमेरिका में जाकर भारतीय औरतों के लिए समर्थन जुटाने का रमा का भगीरथ प्रयास उसके धर्म परिवर्तन के निर्णय की आड़ में छुपा दिया गया। इतिहास में रमाबाई की अनदेखी लंबे समय तक रही। 1989 में सरकार ने ‘मुक्ति मिशन’ का सौवां साल पूरा होने पर रमाबाई के नाम का डाक- टिकट जारी किया। आज जब स्त्रियों के खिलाफ अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं, राजनीति में मर्दवाद का बोलबाला है, तब हम समझ सकते हैं कि रमाबाई जैसी फेमिनिस्ट की कितनी सख्त जरूरत है। हिंदी के तमाम पाठकों तक यह कृति शीघ्र पहुंचनी चाहिए।
पुस्तक : विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई लेखिका : सुजाता प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 240 मूल्य : रु. 299.