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तूफ़ान थम गया था

06:39 AM Jan 07, 2024 IST
तूफ़ान थम गया था
चित्रांकन : संदीप जोशी
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दीपक गिरकर
आज आशुतोष के सामने मानो कॉलेज के पुराने दिन और यादें डायरी के पन्‍नों की तरह फड़फड़ाने लगीं। कल्पना सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी थी। लम्बा छरहरा बदन, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, सलीक़े से कढ़े बाल और हिरन जैसी बड़ी-बड़ी आंखें। जब वह हंस रही थी तो उसके गालों में डिम्पल पड़ रहे थे। कॉलेज की चमचमाती यूनिफॉर्म पहने वह बेहद सुंदर लग रही थी। उसकी देह में, आंखों में, मुस्कान में ऐसा जादुई आकर्षण था कि जो भी उसे देखता अभिभूत हुए बिना न रहता। उसकी आंखों में एक अजीब-सा आमंत्रण, अजीब-सा खिंचाव था। उसकी मुस्कान ने आशुतोष के दिल में अजीब-सी हलचल मचा दी थी। आशुतोष, कल्पना और अमन तीनों की दोस्ती धीरे-धीरे गहरी होती गई, कॉलेज में भी तीनों हमेशा साथ ही होते थे, पूरे बैच में तिकड़ी बहुत फेमस हो गई थी। अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर कल्पना आशुतोष के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई थी। कल्पना जब खिलखिलाकर हंस पड़ती तो ऐसा लगता जैसे मंदिर में झूलती छोटी छोटी घंटियां खनखना उठी हों। कल्पना के काले-लम्बे बाल नागिन की तरह थे। आशुतोष कॉलेज के दिनों में उन बालों से खेला करता था और उसे एक पारलौकिक सुख की अनुभूति हुआ करती थी। आशुतोष की चाय खत्म हो चुकी है, किन्तु विचारों का प्रवाह थम नहीं रहा है...
कल्पना, आशुतोष की बेहद अज़ीज़ दोस्त, जो बाद में आशुतोष की पत्नी बन गयी थी, की मुस्कराहट से आशुतोष को बेहद सुकून मिलता था। दोनों की लव मैरिज हुई थी। शादी के बाद वे कश्मीर घूमने गए थें। वहां कल्पना किसी चंचल हिरणी-सी कुलांचें भरने लगी थी। खुशी जैसे उसके अंग अंग से फूट रही थी। कश्मीर की सुन्दर प्राकृतिक छटा देखकर कल्पना का मन आनंद से सराबोर हो गया था‌। शादी के चंद साल ख़ुशनुमा गुज़रे। अंकुर व अखिल के आने से जीवन की बहार में चार चांद लग गए। कल्पना शादी के पहले से ही नौकरी कर रही थी। आशुतोष के परिवार में सभी कल्पना को बहुत पसंद करते थे। ऑफ़िस में भी कल्पना ने अपने काम से सभी का मन जीत लिया था। यही कारण था कि बॉस ने उसे एक काम के सिलसिले में दिल्ली भेजा था। वहां दिल्ली ऑफ़िस में उसकी मुलाक़ात अमन से हुई। अमन भी कल्पना की ही कंपनी में दिल्ली में पदस्थ था। अमन कल्पना को देखता ही रह गया। आज गहरे गुलाबी रंग की सिन्थेटिक साड़ी में कल्पना बेहद खूबसूरत लग रही है। दो बच्चे होने के बाद गदबदी भी हो गई है। कल्पना दिल्ली तीन दिन के लिए गई थी लेकिन वह दिल्ली में सात दिन रही और इन सात दिनों में अमन कल्पना के साथ ही रहा। कल्पना दिल्ली से लौट आयी थी लेकिन यह कल्पना आशुतोष की कल्पना नहीं थी। वह पूरी तरह से अमन के प्यार में रंग चुकी थी।
अमन ने अपना स्थानांतरण कल्पना और आशुतोष के शहर में ही करवा लिया था। कुछ दिनों से कल्पना के रंगढंग बदल गए थे। आजकल वह अपने ऑफिस में सजधज कर जाने लगी। कल्पना की और अमन की नजदीकियां बढ़ने लगीं। किसी अनजानी-सी डोर मे बंधी वह धीरे-धीरे अमन की ओर खींचती जा रही थी। और अमन उसकी ओर। एक दिन जब कल्पना बाथरूम में नहाने गई थी तब आशुतोष ने उसके मोबाइल में अमन का एक मैसेज पढ़ लिया था- ‘कल्पना, तुमने अपने पंख क्यों सिकोड़ रखे हैं? क्यों डरती हो उड़ने से? निरभ्र, अनंत आकाश है तुम्हारे सामने। बंधनों को खोलने की कोशिश तो करो।’
एक दिन कल्पना के ऑफिस में अमन की हरकत ने आशुतोष को झकझोर दिया। अमन के हाथ में कल्पना का हाथ था और वह कल्पना के बहुत पास था। इतना पास कि आशुतोष को देखते ही दोनों चौंक गए और छिटक कर दूर खड़े हो गए। आशुतोष के लिए यह अप्रत्याशित था। आशुतोष के क्रोधित चेहरे का बदलता रंग कल्पना से छिपा नहीं रहा था। आशुतोष उलटे पांव लौट आया। उसका चेहरा क्रोध और अपमान से लाल हो चला था। आशुतोष को ऐसी उम्मीद नहीं थी। आशुतोष का चेहरा अचानक स्याह पड़ गया और देखते ही देखते उस पर बेचारगी के भाव चस्पां हो गये थे। जाने, कब, कहां और कैसे आशुतोष का सबसे बेस्ट फ्रेंड अमन आशुतोष और कल्पना के बीच आ खड़ा हुआ था। आशुतोष को कल्पना कभी बेवफ़ा लगती तो कभी बेचारी। वह अजीब मानसिक दौर से गुज़र रहा था। खोया-खोया सा। उसे लगता कल्पना उससे दूर होती जा रही है और अमन एक शिकारी की तरह उसका शिकार कर रहा है। जाने कितने दिन आशुतोष और कल्पना के बीच एक सन्नाटा पसरा रहा।
आशुतोष और कल्पना के बीच एक ख़ामोशी का रिश्ता बनता चला जा रहा था। आशुतोष समझ नहीं पा रहा था कि कल्पना के मन में क्या चल रहा था। आए दिन घर में छोटी-छोटी बातों पर चखचख होनी शुरू हो गई। कल्पना के चेहरे के भाव बदलने लगे थे। आशुतोष एक सप्ताह के लिए ऑफिस के काम से मुंबई गया था लेकिन उसका काम तीन दिनों में ही पूरा हो गया तो वह अचानक अपने शहर लौट आया। उस दिन बाहर का मौसम अचानक बिगड़ गया था। बादल गरज रहे थे। बिजली कड़क रही थी। भयंकर तूफ़ान आया था। इस तूफ़ान ने भारी तबाही मचाई थी। इस तूफ़ान की वजह से बहुत नुक़सान हुआ था। यही नहीं, इस तूफ़ान ने बर्बादी का आलम दिखाया था। ये ऐसी क़यामत थी जिसे इससे पहले न देखा था और न ही सुना था। इस तूफ़ान से आशुतोष के सपनों का महल भरभराकर धराशायी हो गया था। कभी कभी जीवन में कुछ ऐसा घटित होता है जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो आशुतोष को फिक्र होने लगी। ‘आज इतवार है। कल्पना ऑफिस नहीं गयी होगी। दरवाजे पर ताला भी नहीं है। इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गयी है। तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ आशुतोष सोचने लगा।
आशुतोष ने जोर से दरवाजा ठोकना शुरू किया। तब भी दरवाजा नहीं खुला। उसे अमन के जोरदार ठहाके की आवाज सुनाई पड़ी। कंधे पर बैग उठाए आशुतोष अनमना-सा खड़ा था कि खटाक से दरवाजा खुला। कल्पना आशुतोष को देखकर हैरान रह गई। उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई। उस के माथे पर पसीना आ गया। उस का घबराया चेहरा और घर में आशुतोष की गैरमौजूदगी में अमन को देख आशुतोष का माथा ठनका। गुस्से में आशुतोष की त्योरियां चढ़ गईं। घबराहट के मारे आशुतोष की धड़कनों की गति असामान्य हो गयी। रक्त रगों में तेजी से दौड़ने लगा था, सांस अंदर ही छूट गयी, हाथ-पैर फूलने लगे। पूछा, ‘अमन यहां क्या कर रहा है?’ किसी तरह इतने शब्द कहने को मुंह खुला, ‘मेरा ख्याल है तुम दोनों यहां से चले जाओ।’ अमन बिना कुछ कहे वहां से चला गया। कल्पना ने एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला। एक लंबी और गहरी ख़ामोशी धुएं की तरह हल्के-हल्के पूरे कमरे में फैल गई। आज आशुतोष खून का घूंट पीकर रह गया। भरोसे की वह नींव जिस पर आशुतोष का रिश्ता खड़ा था अचानक से भराभराकर गिर गई। इस घटना से आशुतोष का मन व्याकुल होकर विक्षोभ और निराशा में डूब गया। अपने अस्तित्व को उसने कुचला हुआ महसूस किया। आज आशुतोष की आंखों से विश्वास की पट्टी हट चुकी थी लेकिन बहुत देर हो चुकी थी।
आशुतोष और उसके दोनों बेटे कल्पना के लिए तड़प रहे थे। कल्पना अमन के ख्यालों में खोई खोई सी रहती। कल्पना का प्यार और आशुतोष का एकाकीपन समांतर रेखाओं पर विचरण कर रहा था। समय की रेल चल रही थी। दोनों पटरियां थरथरा रही थी। पर अलग-अलग, समानांतर, दिशा एक पर अलगाव विलक्षण। एक साल तक जब कल्पना अमन की खुमारी में थी तो दोनों बेटे आशुतोष की धड़कन बन गये थें। तीनों को बस एक ही डर सता रहा था कि कल्पना उनकी दुनिया से अलग न हो जाए। वह हाथ झटक रही थी और बाप-बेटे उसे कस कर अपनी ओर खींच रहे थे। इस अदृश्य रस्साकशी में सबके हाथ छिल गये थे। समय बीतता गया, आशुतोष और कल्पना के बीच दूरियां बढ़ती गईं। कल्पना के लगातार उपेक्षित व्यवहार से वह तिलमिला उठा था। अब कहने-सुनने के लिये कुछ शेष नहीं बचा था। आशुतोष के मन में अनेक प्रश्न उठ रहे थे। अन्त में उससे रहा नहीं गया और एक दिन अकेले में उसने उसकी कलाई ज़ोर से पकड़ कर, उसकी आंखों में झांकते हुए बहुत ही अपनेपन से पूछ बैठा : ‘कल्पना सच बताओ, आख़िर माजरा क्या है? तुम क्या चाहती हो?’
‘मैं अब अमन के साथ रहना चाहती हूं।’
‘क्या बक रही हो कल्पना, होश में तो हो?’ मानों सातवें आसमान से गिरा था आशुतोष। कल्पना ने इतना कड़वा सच कहा कि आशुतोष के हाथ-पांव फूल गए। वह कुर्सी से खड़ा हुआ तो पैर लड़खड़ा गए और धम्म से फिर बैठ गया। सांसें धोंकनी के समान चलने लगीं जैसे अभी मीलों दौड़ कर आया हो। पसीने से तरबतर हो गया। भूल जाना... कितना आसानी से कह दिया था कल्पना ने पर क्या ये इतना आसान था आशुतोष के लिए। कल्पना अमन के यहां रहने चली गयी थी और आशुतोष चाय का खाली प्याला हाथ में थामे बुत बना बैठा था। इस अप्रत्याशित प्रहार से आशुतोष एकदम बौखला गया था। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कल्पना उसे और बच्चों को यों छोड़ चली जायेगी। एक ही झटके में उस ने सारे रिश्ते-नाते तोड़ दिए थे। कल्पना के जाने के बाद आशुतोष के दो-तीन महीने बहुत कठिनाई से बीते। उसे रह-रह कर कल्पना याद आती। मनुष्य का चरित्र कितने बाह्य आवरणों से ढका हुआ होता है। यह उसे अमन के चरित्र से समझ में आया। उसे रह रह कर अपने कमजोर वजूद पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों नहीं वह कानूनी रूप से अलग हो जाता। क्यों आज भी इस रिश्ते की लाश को ढो रहा हूं? अंत में वह मन में एक टीस दबाए नियति के आगे नतमस्तक हो गया। आशुतोष ने स्वयं को मानसिक रूप से मजबूत किया और समस्या समाधान के लिए उसने दृढ़ता-पूर्वक मन ही मन एक निर्णय ले लिया कि कल्पना को तलाक देना ही एकमात्र रास्ता है।
वक्त कब रेत की भांति आशुतोष के हाथों से फिसलता गया उसे पता ही न चला। उसका मन बुझ-सा गया था। विश्वासघात और नफ़रत की आग में तो आशुतोष कुछ दिन जला था। कोर्ट ने आशुतोष और कल्पना के रिश्ते पर डिवोर्स की मुहर लगा दी थी। समय सब से बड़ा डाक्टर होता है। जीवन अपने अपने रास्ते पर चल पड़ा था। आशुतोष ने तब से अकेले ही दोनों बच्चों की परवरिश की थी। उस ने अपने बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी।
समय अपनी गति से गुजर रहा था। दो सालों के बाद आज आशुतोष ने अपने कमरे को अच्छे से देखा होगा... कमरे का हर सामान कल्पना की याद दिला रहा था और पता नहीं क्यूं आज उसका मन बहुत बेचैन हो रहा था। दो वर्षों में ही अमन का मन कल्पना से भर चुका था। अमन ने कल्पना को छोड़ दिया था। बारिश की बूंदें, आशुतोष को कल्पना से जुड़े अनगिनत स्मृतियों से रूबरू करवा रही थी। कल्पना को बारिश में भीगना अच्छा लगता था। तूफ़ान थम गया था। अब शान्ति थी। सन्नाटा। भयंकर सन्नाटा। आवाज़ थी तो बाहर नीम के सूखे पत्तों के हिलने की सुर्र... सुर्र... और उसमें लय मिलाती कल्पना की सिसकियों की आवाज़। कल्पना के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। कल्पना की आंखों से पानी गंगा की तरह बह रहा था उसकी हिचकियां बंध गई। वह बड़बड़ाने लगी-आशुतोष, प्लीज मुझे माफ़ कर दो... दूर क्षितिज में इन्द्रधनुष अपनी सतरंगी छटा बिखेर रहा था।

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