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पांव पसारती डिजिटल दिवाली करे रीति-रिवाजों की झोली खाली

07:05 AM Oct 25, 2024 IST
पांव पसारती डिजिटल दिवाली  करे रीति रिवाजों की झोली खाली
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डॉ. मधुसूदन शर्मा

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सूर्य भगवान धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर बढ़ रहे थे, चारों ओर अंधकार फैलने लगा था। ये कार्तिक मास की अमावस्या का दिन था। शांतनु ने अपनी पत्नी और बच्चों को प्यार से बुलाया और रिमोट का बटन दबाया। पलक झपकते ही घर का आंगन रंगोली और दीपकों से दमक उठा। पत्नी और बच्चे यह दृश्य देखकर प्रफुल्लित हो उठे। कुछ देर बाद दूसरा बटन दबाते ही आरती और भजनों की मधुर ध्वनि पूरे घर में गूंजने लगी। तीसरे बटन के साथ ही आसमान में पटाखों की गूंज सुनाई दी, मानो त्योहार एक वर्चुअल क्रिया बनकर रह गयी हो।
आधुनिक तकनीक और डिजिटल उपकरणों ने दीपावली जैसे पारंपरिक त्योहारों को एक कृत्रिम रूप में बदल दिया है। जिसे कभी श्रम, समर्पण और समय के साथ सजाया जाता था, अब वह एक क्लिक पर सिमट गया है। लेकिन इस तकनीकी प्रगति ने दीपावली के उस वास्तविक स्वरूप को धुंधला कर दिया है, जिसमें आत्मीयता, सांस्कृतिक धरोहर और सामूहिक आनंद के भाव निहित थे। त्योहार का यह डिजिटल रूप कहीं न कहीं उस परंपरा और भावना से दूर जाता प्रतीत होता है, जिसे पीढ़ियों से सहेजा और निभाया जा रहा था।
डिजिटल दीपावली आज के तकनीकी युग का परिणाम है, जहां पारंपरिक त्योहारों को डिजिटल साधनों के माध्यम से मनाया जा रहा है। इसमें सोशल मीडिया, वर्चुअल ग्रीटिंग्स, ऑनलाइन शॉपिंग और डिजिटल गिफ्ट्स के माध्यम से उत्सव की भावना को साझा किया जाता है। रंगोली बनाने की जगह वर्चुअल एप्स ने ले ली है, दीयों की जगह एलईडी लाइट्स ने, और पटाखों की जगह वर्चुअल फायरवर्क्स का चलन बढ़ रहा है। पूजा-अर्चना के लिए लोग ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स का सहारा लेते हैं, जहां आरती और भजन के वीडियो स्ट्रीम किए जाते हैं। कई बार वीडियो कॉल पर ही परिवार के लोग एक साथ पूजा करते हैं।
आमजन में डिजिटल दीपावली को लेकर यह धारणा बनी है कि यह सुविधाजनक है और इसमें समय की बचत होती है। साथ ही इसमें आधुनिकता का आकर्षण है। लेकिन यह हमारे पारंपरिक त्योहारों की आत्मीयता और उसकी सांस्कृतिक जड़ों को किस हद तक बनाए रख पाता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
हमारे पूर्वजों द्वारा मनाई जाने वाली दीपावली न केवल एक उत्सव थी, बल्कि यह भारतीय जीवनशैली और संस्कृति की गहरी जड़ें दर्शाती थीं। दीपावली का पर्व पांच दिनों तक चलने वाला ऐसा उत्सव होता था, जो स्वच्छता, धन, धार्मिक आस्था और पारिवारिक एकजुटता का प्रतीक था।
पारंपरिक रूप से दीपावली की शुरुआत धनतेरस से होती थी, जब लोग अपने घरों की साफ-सफाई करते, नए बर्तन और आभूषण खरीदते और समृद्धि की देवी लक्ष्मी का स्वागत करने के लिए अपने घरों को तैयार करते थे। इसके बाद नरक चतुर्दशी पर घर को दीयों से सजाया जाता था, यह दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है।
दीपावली के दिन घर में मां लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा की जाती थी। मिट्टी के दीये जलाए जाते, जिससे वातावरण प्रकाशमय हो उठता था। हर घर के आंगन में रंगोली बनाई जाती थी, जो न केवल रचनात्मकता का प्रतीक थी, बल्कि इसका धार्मिक महत्व भी था। मान्यता थी कि इससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ता है और देवी लक्ष्मी घर में प्रवेश करती हैं।
पारिवारिक और सामाजिक जुड़ाव दीपावली का एक प्रमुख हिस्सा था। लोग एक-दूसरे के घर जाकर शुभकामनाएं देते, मिठाई बांटते और रिश्तों में मधुरता बढ़ाते। यह एक ऐसा समय होता था, जब परिवार और समुदाय एकजुट होकर त्योहार की खुशियां मनाते थे।
पटाखों का सार्थक और सीमित प्रयोग भी पारंपरिक दीपावली का हिस्सा था, जो उत्साह और उल्लास का प्रतीक माना जाता था। हालांकि, यह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की बजाय त्योहार का एक छोटा और सीमित हिस्सा होता था।
पारंपरिक दीपावली में आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक धरोहर का महत्व अधिक था। यह केवल भौतिक प्रसन्नता का त्योहार नहीं था, बल्कि आत्मिक शुद्धि और परिवार में एकता की भावना को बढ़ावा देता था। दीपों का प्रकाश अज्ञानता के अंधकार को मिटाकर सत्य, ज्ञान और धर्म की राह पर चलने का प्रतीक था।
आज के डिजिटल युग में, जब सब कुछ तेज और आसान हो गया है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन पारंपरिक तरीकों से दीपावली मनाने का एक विशेष महत्व है। यह हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखता है, और इस त्योहार की वास्तविक आत्मा को जीवित रखता है।
निस्संदेह, डिजिटल दीपावली का प्रचलन चिंता का विषय है। आवश्यकता है आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन स्थापित करने की। तकनीक का इस्तेमाल त्योहार को आसान और सुविधाजनक जरूर बना सकता है, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर और पारंपरिक तरीकों को न भूलें। इसके लिए कुछ उपाय किए जा सकते हैं मसलन, पारंपरिक तरीकों को प्रोत्साहन दें। अभिभावकों को अपने बच्चों को दीपावली के पारंपरिक तौर-तरीके सिखाने चाहिए, जैसे हाथ से दीये जलाना, घर में रंगोली बनाना और मिल-जुलकर पूजा करना। इससे नई पीढ़ी में त्योहार की वास्तविक भावना विकसित होगी। सामाजिक और पारिवारिक मेलजोल बढ़ाने के लिए डिजिटल ग्रीटिंग्स की जगह व्यक्तिगत रूप से मिलने-जुलने की आदत को प्रोत्साहित करना चाहिए। रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ समय बिताने से त्योहार का आनंद बढ़ता है और संबंधों में भी मजबूती आती है।
वैसे संतुलित डिजिटल साधनों का उपयोग केवल सुविधा के रूप में किया जाना चाहिए। लेकिन वह उत्सव की परंपरा पर हावी न हो पाए। परिवार के साथ मिलकर दीपक जलाना, घर सजाना और मिल-जुलकर पूजा करना त्योहार का वास्तविक आनंद वापस ला सकता है।

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