सुरीली सारंगी के सिसकते आलाप
राजेश गनोदवाले
तुरत-फुरत मीडिया के इस दौर में कभी-कभार कुछ चौंका देने वाली सूचनाएं सामने आ जाती हैं तो अच्छा लगने लगता है। सिमट गए बेहद खूबसूरत वाद्ययंत्र सारंगी को आधार बनाकर दिखाए एक समाचार पर जब नज़रें ठहरीं तो दिल को ज़रा सुकून मिला। सारंगी की तरफ देखने का एक नया झरोखा भी खुला! भले ही बात पड़ोसी मुल्क से जुड़ी हुई हो।
कला के पारखी
एक्सप्रेस न्यूज़ में सारंगी पर दिखाई गई न्यूज़ कैप्सूल यों तो संक्षिप्त और मामूली थी। लेकिन जल्दबाज़ी में तैयार की गई उस रपट के निहितार्थ गहरे दिखे। इस बात का भी अहसास हुआ कि प्रायः राजनीतिक हालातों को ही समाज का सौ फ़ीसद समाचार मानकर चलने वाले चैनलों की भीड़ के मध्य वहां भी एकाध लोग ऐसे हैं जिन्होंने कलात्मक कामों को जगह देने की समझ बचाए रखी है! जब फीचर न्यूज़ की शक्ल में सारंगी के दर्दीले आलाप सुनाई दिए तो कान खड़े होने ही थे।
सारंगी का समय
रचनात्मक पत्रकारिता करते हुए, ख़ासकर संगीत पर लिखते हुए लगभग तीन दशक बीत रहे हैं। सारंगी खूब सुनी हैं। इस पर बड़े मनोयोग से लिखा है, लिखता रहता हूं। मध्य प्रदेश की उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत अकादमी के न्योते पर सारंगी वाद्य के लिए दिए जाने वाले राष्ट्रीय सम्मान की निर्णायक कमेटी में भी शामिल रहा हूं। लेकिन पहली बार जाना कि हमारे पड़ोसी मुल्क में सारंगी के हालात कैसे हैं!
रिश्ताें की सुगढ़ बढ़त के बावजूद
इसे संयोग कहें कि इधर कुछ सालों से पाकिस्तान के दिग्गज गवैयों के साथ समय-समय पर बात करने के मौक़े अपनी सांगीतिक दिलचस्पी से निकाले हैं। पड़ोस से बनते शास्त्रीय रिश्तों की इस सुगढ़ बढ़त के बावजूद कभी ख़याल नहीं आया कि पाकिस्तान में सारंगी किन हालातों से गुज़र रही होगी? कभी-कभार इसका जायज़ा भी लेना चाहिए। शुक्र है उस छोटी सी क्लिपिंग का जिसने वह नज़रिया दे दिया।
गुरु की सीख, शिष्यों का जुनून
पाकिस्तानी के लाहौर शहर का एक ख़ासा पुराना इलाक़ा है जिसे ‘लोहारी गेट’ के नाम से जाना जाता है। रोजमर्रा के सामानों से घिरी दुकानों वाली तंग गली नुमा सड़क भीतर से गुज़रते हुए कब एक खासे जर्जर मकान तक ले जाती है पता नहीं लगता! एक बारगी अंदाज़ लगाना भी कठिन कि उस बाज़ार के भीतर कहीं कोई आदमी सारंगी को बचाने की जद्दोजहद में लगा होगा। जिन हालातों में इसकी तालीम देने वाला स्कूल चल रहा था और जिस जगह में, वह भी हैरान कर देने वाला था! जर्जर सी इक मंज़िला बिल्डिंग के भीतर खस्ता हाल कमरे में बिना किसी साज-सज्जा के गुरु और शिष्य अपने वाद्य में मगन दिखाई दिये। उम्मीद का झरोखा खुल रहा था उस जुनून से जिसने इस ‘लाहौर सारंगी स्कूल’ की परिकल्पना को साकार करवा दिया। गुरु की बातों से समझना आसान था कि चंद सीखने वालों की ललक देख कर ही वे टिके हैं। फिलहाल छोटी उम्र से लेकर बड़ी उम्र तक चार शिष्य सारंगी सीखते मिले। गुरु ज़ोहेब हसन में भी वहीं रोमांच जो सीखने आए बच्चों में दिखाई दे रहा था।
मात्र दो सारंगी वादक
बेशक इस बात पर न जाएं कि सवाल करने वाली रिपोर्टर में संगीत की समझ ठिकाने की थी या नहीं? हड़बड़िया अंदाज़ में उस रिपोर्टर ने भी सवालों के गोले दागते अंततः बात बना ली थी। चौंकाने वाली बातें पता लगीं। रिपोर्टर के मुताबिक़ 22 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान में सारंगी बजाने वाले इस समय केवल 2 व्यक्ति रह गए हैं। यानी एक जोहेब हसन जो बतौर गुरु हैं और दूसरे वादक हैं कराची में रहने वाले गूल मोहम्मद! ज़ोहेब हसन के मुताबिक़ प्रोफेशनल बजाने वाले वादक मात्र दो हैं।
पारंपरिक वाद्य बचाने की जद्दोजहद
उधर , कुछ और जानने जब ‘श्याम चौरासी’ घराने के नौजवान गवैये फैजान अली से बात करने का मन हुआ। पाकिस्तान फोन लगाया तो इस सम्बंध में उनसे पता लगा कि वास्तव में पाकिस्तान में सारंगी का संकट खासा गहराया हुआ है। वैसे लाहौर में एक अन्य वादक - अली ज़फ़र के होने की जानकारी देते फैज़ान ने यह बात भी बताई कि उनका ‘श्याम चौरासी म्युज़िक सर्कल’ अपने सभी आयोजनों में सारंगी ही नहीं , मैनुअल तानपुरा बचाए रखने भी हमेशा तैयार रहता है। इस वर्ष भी 23 अक्तूबर से शुरू हुए दो दिवसीय ‘याद-ए-सलामत’ में हर साल की तरह सारंगी पर संगत ज़ोहेब हसन ने ही की होगी। और तानपुरा तो होगा ही। उसके बगैर रागदारी संगीत की रूह कहां तैयार होगी?
सुध लेने वाले कद्रदान
कभी अविभाजित भारत में आकाशवाणी का लाहौर केंद्र उन तमाम बड़े कलाकारों के लिए जाजम बिछाए होता था जिन्हें खां साहब, उस्ताद या पण्डित के रूप में चाहने वाले जानते थे। वैसे इस तथ्य को भी आत्मसात करना होगा कि विभाजन के बाद शत-प्रतिशत सारंगी कलाकार इसी ओर रह गए। आज पाकिस्तान में सारंगी की सुध लेने सम्भवतः इसीलिए दूसरों को भी आगे आना पड़ा है। फैज़ान के ही मुताबिक लाहौर का सारंगी स्कूल कामरान अंसारी की देन है जो वर्ल्ड सिटी चेयरमैन हैं। रुचि के कारण उन्होंने ‘लाहौर सारंगी स्कूल’ खोल दिया।
क़ाबिल गवैये उस्ताद हुसैन बख्श गुल्लू
पाकिस्तान के सबसे उम्र दराज और उतने ही क़ाबिल गवैये उस्ताद हुसैन बख्श गुल्लू जब भारत आए तो कोलकाता की महफ़िल में उन्होंने अपने साथ सारंगी लेना पसंद किया था। ज़ाहिर है इस वाद्य के साथ गाने के मौक़े उन्हें पाकिस्तान में कम हासिल होते हों? यह बात भले अपनी जगह खरी हो। लेकिन इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि दर्ज़ेदार गवैया सारंगी के साथ गाने की अहमियत बखूबी जानता है। फिर हुसैन बख्श गुल्लू नाम से जो परिचित हैं वे उनके कद को भी जानते हैं। उनसे बातचीत के एकाधिक मौक़े मिले। याद आता है अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने सारंगी के सम्बंध में पूछे सवाल पर बताया था कि पाकिस्तान में इसके फ़नकार अब रहे नहीं। यदि जोड़ का बजाने वाला न मिले तो गाने में परेशानी होने लगती है इसीलिए उन्होंने इस वाद्य को अपने साथ लेना बन्द कर दिया। आज बदलते हुए भारत में , जब इधर हमने आज़ाद भारत के 75 सालों का जश्न मनाया है तब सारंगी के लिए उठे यह हाथ ‘साझा भारत’ के कलात्मक स्वरों को बचाने के लिये भी उठ रहे हैं यही मानना होगा। भले हमारे यहां ऐसा कोई प्रयास देखने में नहीं आता। लेकिन सारंगी को बचाना इस समय की बड़ी जरूरत तो है। हुक्मरानों को यह बात समझ आए या न आए।