उपेक्षित किरदार को नेपथ्य से पर्दे पर खींच लाये शोमैन
दीप भट्ट
अगर राजकपूर की फिल्मों का विश्लेषण करें तो राजकपूर समाजवादी दृष्टिकोण के सबसे ज्यादा करीब थे। उनका शुरुआती सिनेमा इस बात की तसदीक भी करता है। उनकी फिल्मों में समाजवादी दृष्टिकोण का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। राजकपूर ने अपने एक इंटरव्यू में इस बात की पुष्टि यह कहते हुए की है कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और मैंने औपनिवेशिक गुलामी की जंजीरें साथ-साथ तोड़ी। उन्होंने कहा कि जो काम आजाद भारत में पंडित नेहरू राजनीतिक धरातल पर कर रहे थे उसी काम को वे सांस्कृतिक धरातल पर कर रहे थे। मतलब साफ था, जो सपने नेहरू आजाद भारत की नौजवान पीढ़ी को दिखा रहे थे उन्हीं सपनों को राजकपूर अपनी फिल्मों के मार्फत उस वक्त नौजवानों को दिखा रहे थे।
सामाजिक जवाबदेही
राज-देव-दिलीप की तिकड़ी में राजकपूर अपने सोशल कमिटमेंट के लिए याद किए जाते हैं। उनकी फिल्म ‘आग’ हो या ‘आह’ या ‘आवारा’ या ‘श्री 420’ या ‘जागते रहो’ या फिर ‘बूट पॉलिश’ या ‘जिस देश में गंगा बहती है’ या बहुत बाद की ‘प्रेम रोग’ या ‘राम तेरी गंगा मैली’, इन सभी फिल्मों में उनका सामाजिक दायित्व स्पष्ट तौर पर नजर आता है। उनका सिनेमा समाजवादी प्रभाव का सिनेमा है। राजकपूर पर कोई भी चर्चा उनके गीत-संगीत के बगैर अधूरी रहेगी। उनकी फिल्मों के गीतों में समाजवादी दृष्टिकोण की झलक साफ देखी जा सकती है। राजकपूर के बारे में कहा जाता है कि वे कम्युनिस्ट विचारधारा से कभी प्रभावित नहीं रहे पर उनकी टीम के दो महत्वपूर्ण आधारस्तंभ तो कम्युनिस्ट विचारधारा से लैस थे। एक तो उनकी फिल्मों के स्थाई लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास और दूसरे उनकी फिल्मों के गीतकार शंकर शैलेन्द्र।
उपेक्षित वर्ग के किरदारों की प्रधानता
दरअसल इनकी संगत में रहते-रहते राजकपूर भी एक रोमानी मार्क्सवादी हो गए थे। यही वजह थी कि राजकपूर की फिल्मों के किरदार समाज के तिरस्कृत तबके के किरदार हैं। इन किरदारों की वेदना उनकी फिल्मों में बड़ी गहराई और संवेदनशीलता से उभरकर आती है। उनकी आग हो या आवारा या श्री 420 या जिस देश में गंगा बहती है या अन्य फिल्में- सभी में एक निहायत भोले-भाले और पूंजीवादी व्यवस्था की जकड़न से परेशान-हैरान नौजवान की पीड़ा उभरकर आती है। जब आवारा का नायक यह कहता है, ‘क्या करूं मेरी सूरत ही ऐसी है’, तो उसकी पीड़ा को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है।
राष्ट्रीय भावना- वेदना के स्वर
शोषित-दमित नायक की आंतरिक पीड़ा को स्वर देते हैं शैलेन्द्र के गीत। इन गीतों में नेशनलिज्म भी है, व्यवस्था का दंश झेल रही जनता की वेदना भी है और सामाजिक रूप से उपेक्षित किरदारों के मर्म को फिल्मी पर्दे पर व्यक्त कर रहा नायक भी है। नायक तो राजकपूर ही है। उनकी हर फिल्म में सामाजिक लक्ष्य बड़े साफ तौर पर देखा जा सकता है। आवारा में उन्होंने इस बात को बड़ी शिद्दत से स्थापित किया कि किसी भी व्यक्ति को गढ़ने में उस माहौल और परिवेश की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिसमें वह जी रहा होता है। एक जज का बेटा जब अभावों का जीवन जीता है तो उसकी मंजिल क्या होगी इसे राजकपूर ने आवारा में गहरी संवेदनशीलता और बेहद मार्मिकता से दिखाया।
आवारा के बाद उनकी लोकप्रियता हिन्दुस्तान के अलावा पूरे पूर्वी यूरोप में उस शिखर पर पहुंची जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। यह राजकपूर के अद्भुत अभिनय और केए अब्बास की कलम का ही कमाल था। राजकपूर के पिता और महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर एक बार अपनी चीन यात्रा के दौरान जब वहां के राष्ट्राध्यक्ष माओत्से तुंग से मिले तो उन्होंने बड़े जोशो-खरोश से उनका स्वागत करते हुए कहा-आपका बेटा बहुत अच्छी फिल्में बनाता है। बताया कि उन्होंने ‘आवारा’ तीन बार देखी है। यही नहीं, आवारा के बाद हिन्दुस्तान में एक जुमला ही चल पड़ा कि पंडित नेहरू और राजकपूर को सोवियत रूस में प्रवेश और रहने के लिए पासपोर्ट-वीजा की जरूरत नहीं। बस उनका नाम ही काफी है।
फिल्मों में प्रेम की पुकार
राजकपूर की फिल्मों की केंद्रीय वस्तु था प्रेम। इसके बगैर राजकपूर की किसी फिल्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती। एक इंटरव्यू के दौरान सुप्रसिद्ध अभिनेता शशि कपूर ने मुझे राजकपूर को लेकर किए गए एक सवाल के जवाब में कहा था, राजकपूर किशन-कन्हैया थे फिल्मों के। जो भी फिल्में उन्होंने बनाईं वे उनमें सामाजिक मकसद भी दिखाते थे। चाहे आग हो बरसात या आह, आवारा, श्री 420, जागते रहो, बूट पॉलिश, जिस देश में गंगा बहती है, ये सभी पिक्चरें अर्थपूर्ण थीं। यहां तक कि बॉबी में उन्होंने बहुत प्यार से बता दिया कि धर्म-वर्म का मामला प्यार के लिए कोई महत्व नहीं रखता। उन्होंने कहा था राजकपूर साहब बहुत किस्मत वाले थे कि उन्हें एक बहुत ही उम्दा टीम मिली। शैलेन्द्र, केए अब्बास, हसरत जयपुरी, शंकर-जयकिशन, नरगिस और मुकेश सभी तो उनके साथी थे।
व्यक्तित्व के आयाम
राज साहब की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह बात जो उन्हें कहनी होती थी, बड़े प्यार से, मोहब्बत से और म्यूजिक से सजाकर कहते थे। उनके व्यक्तित्व के तीन आयाम थे। एक वह जो प्रोड्यूसर है, एक वह जो डायरेक्टर है और एक वह जो फैमिलीमैन है। उन्होंने अपनी इन तीनों भूमिकाओं को अलग-अलग ढंग से बड़ी खूबसूरती से जिया।
नरगिस के साथ उनका इश्क हुआ था यह सच्ची बात थी मगर उन्होंने रियलाइज किया कि इसका कोई अंत नहीं है। नरगिस ने भी अहसास किया। आग फिल्म के दिनों की बात है यह साल 1948 की। सोलह-सत्रह साल की उम्र थी उनकी तब। उन्होंने रियलाइज किया राजकपूर ने शादी करनी नहीं है। वे पहले ही शादीशुदा हैं तो उसने छोड़ दिया। राजकपूर मानते थे प्यार से बढ़कर कोई चीज नहीं। राज साहब की ‘आग’ हो या ‘राम तेरी गंगा मैली’ सबकी आत्मा में तो प्यार ही था। फिल्मों में व्यक्त प्रेम को वे संगीत से संवारते थे। शंकर-जयकिशन, सलिल चौधरी और रवीन्द्र जैन उनके पसंदीदा संगीतकार रहे हैं।
मां से मिली संगीत की सीख
राजकपूर पर कोई भी चर्चा उनके संगीत ज्ञान के बगैर अधूरी है। शशि कपूर ने उनके संगीत ज्ञान को लेकर बताया था कि राज जी को म्यूजिक का ज्ञान अपनी मां रामशरणी देवी से मिला। मां को संगीत का अच्छा ज्ञान था। संगीत की बुनियादी शिक्षा उन्हें मां से ही मिली होगी। आरसी बोराल उस जमाने में बहुत मशहूर संगीतकार थे। उनके अंडर सहगल साहब काम करते थे। राज साहब उनके साथ बैठे रहते थे और तबला बजाते रहते थे। आरसी बोराल साहब मेरे पिताजी को कहा करते थे कि ये लड़का आगे बहुत चमकेगा। वहीं पापा जी अलग तरह के एक्टर थे। वे सीरियस माइंडेड जबकि राजकपूर रोमांटिक थे। राजकपूर ने अपनी फिल्मों के जरिये पूरे हिन्दुस्तानी अवाम को जो फलसफा दिया वो आज भी प्रासंगिक है और आने वाली सदियों में भी प्रासंगिक रहेगा। उनके ‘मेरा नाम जोकर’ के इस गीत- ‘कल खेल में हम हों न हों गर्दिश में तारे रहेंगे सदा, भूलोगे तुम, भूलेंगे वो, पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा...।’