दूसरी मोनालिसा
देवेश के क्लिनिक से निकलते हुए मैंने उस युवती के चेहरे की ओर एक बार देखा। वह एक पत्रिका की ओट में थी। पर उसके चेहरे में क्या है? क्रोध या दुख, घृणा या उदासीनता या इन सबका मिलता-जुलता एक अन्य रूप? मैं कलाकार नहीं हूं। मुझमें तस्वीर आंकने की रत्तीभर भी क्षमता नहीं है, फिर भी मुझे आशा रहेगी कि कोई नया कलाकार निश्चय ही एक दिन इस युवती की तस्वीर को शाश्वत कायम रखेगा।
सुनील गंगोपाध्याय
इस बार मुंबई प्रायः पांच वर्षों के बाद गया। वहां बंगालियों और महाराष्ट्रीयनों में मेरे कई बंधु-बांधव बिखरे पड़े हैं।
चाहे जो हो, फिर भी इसी दौरान मुझे सुमिता के घर जाना ही था। उन्होंने बहुत पहले से ही मुझे निमंत्रण दे रखा था। उनके पति डॉक्टर हैं। वे लोग बहुत दिनों से मुंबई में ही हैं। अतः मुंबई के आसपास मुझे कौन-कौन सी जगह देखनी चाहिए, अच्छी तरह जानते हैं। सुमिता के बेटे का नाम आनंद है। वह अच्छी पेंटिंग करता है। सुदर्शन और उत्साही युवक है। उसकी दो-एक तस्वीरें यहां की प्रदर्शनियों में भी स्थान पा चुकी हैं। वह अपनी तस्वीरें दिखाने लगा। मुझे चित्रकारी का विशेष ज्ञान नहीं है, पर इन सब क्षेत्रों में बढ़िया कहने का ही नियम है, इसलिए मैं अच्छा, बहुत अच्छा कहे जा रहा था। एक बड़े फ्रेम में जड़ी तस्वीर को उसने मेरे सामने करते हुए कहा, ‘देखिए, मेरी यह तस्वीर प्रदर्शनी में पुरस्कृत हुई है।’
मैं सहज ही कह उठा, ‘वाह, बहुत अच्छी है।’
तस्वीर लियोनार्दो दा विंची की ‘मोनालिसा’ के सदृश्य थी। काले और नीले रंग का प्रयोग अधिक हुआ था। कुछ-कुछ फोटोग्राफी के निगेटिव की तरह।
मेरी प्रशंसा सुनते ही आनंद ने कहा, ‘आप यह तस्वीर लेना चाहेंगे?’
उसी समय सुमिता दी ने भी कहा, ‘हां, यह तस्वीर सुनील दा को उपहार में दे दो।’
मैंने प्रबल आपत्ति की। किसी के घर जाकर किसी वस्तु की प्रशंसा करने का अर्थ यह तो नहीं कि वह वस्तु लेने की ही इच्छा हो।
मैं जितना ही नानुकर करता रहा, वे उतना ही जोर डालने लगे। अन्त में मुझे दृढ़तापूर्वक कहना ही पड़ा कि मेरे लिए यह तस्वीर लेना संभव नहीं है क्योंकि यहां से मुझे अन्य तीन जगहों पर भी जाना है। इतनी बड़ी तस्वीर लेकर मैं सब जगह घूम-फिर नहीं सकता। इसके अतिरिक्त मुझे हवाई जहाज में कोलकाता लौटना है। इतनी बड़ी तस्वीर लेकर जाने की मुझे अनुमति नहीं मिलेगी। लगेज़ के तौर पर बुक कराने पर क्षतिग्रस्त, नष्ट हो जाने की संभावना है।
दरअसल, कोलकाता में मेरे घर में इतनी बड़ी तस्वीर टांगने की जगह ही नहीं थी। इसके अलावा मोनालिसा की इस नकल के प्रति मेरी कोई प्रबल उत्कंठा भी नहीं थी।
कोलकाता लौटने के डेढ़ माह बाद एक दिन एक अपरिचित व्यक्ति मेरे पास आए। उन्होंने बताया कि मुंबई से आ रहे हैं और उनके हाथ सुमिता ने एक चीज भेजी है। बड़े से पैकेट को देखते ही मैं समझ गया कि वह मोनालिसा की ही तस्वीर है।
सुमिता दी के बेटे ने तस्वीर बड़ी सावधानी से बांधी थी। ऐसी एक वस्तु मुझे उपहार में मिलने पर तनिक संकोच-सा हुआ। मेरा छोटा-सा कमरा पुस्तकों के रैकों से भरा पड़ा है। दीवार पर इतनी बड़ी तस्वीर टांगने में असुविधा थी। इसके अलावा बड़ी तस्वीर को थोड़ी दूर से ही देखना चाहिए। इतने छोटे कमरे में यह तस्वीर जंचती नहीं, पर उपाय भी नहीं था। अतः मैंने तस्वीर अपने बिस्तर के बगल में जमीन पर ही रख दी।
बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं लिखता या पुस्तकें पढ़ता हूं। प्रायः निगाहें तस्वीर की ओर आकृष्ट हो जाती हैं। प्रतिदिन देख-देखकर तस्वीर मेरे जेहन में उतर गई। कहां कौन-से रंग का मेल ठीक तरह हुआ या नहीं हुआ है, मैं अब सब बतला सकता हूं।
पेरिस के लूवरे म्यूज़ियम में मूल मोनालिसा की तस्वीर रखी हुई है। साहब लोग अब ‘मोनालिजा’ उच्चारण करते हैं, परंतु बांग्ला भाषा में मोनालिसा ही कायम है। मैंने कभी वह देखा था। फिर एक दिन एक आश्चर्यजनक घटना घटी। एक आवश्यक कार्यवश टैक्सी लेकर मैं यादवपुर की ओर जा रहा था। गाड़ियाहाट मोड़ से गुजरते समय बायीं ओर की फुटपाथ पर खड़ी एक युवती को देखकर मैं चौंक पड़ा। चेहरा जाना-पहचाना लगा, जाने कहां देखा है? गोलपार्क आने के पूर्व ही मुझे याद हो आया। अरे यह चेहरा तो बिल्कुल मोनालिसा की तरह है। बहुत मेल है। ऐसा भी कभी होता है क्या?
जाते-जाते मैं सोचने लगा, क्या यह मेरा भ्रम है? मैं घर पर सर्वदा मोनालिसा का चेहरा देखता हूं। शायद इसलिए राहों-चौराहों पर भी मैं अब मोनालिसा देखने लगा हूं, पर सड़क पर तो अन्य युवतियों को भी देखता हूं। ऐसा कभी नहीं हुआ।
मैं उस घटना को भूल गया। पर तकरीबन पन्द्रह दिनों के बाद संभवतः मैंने ऐसी युवती को पुनः देखा। इस बार मैं सड़क पर खड़ा था और युवती एक टैक्सी में चली गई। मेरी ओर एक बार उसने चेहरा घुमाया, तभी मैं कांप उठा था। अविकल वही चेहरा। मैं टैक्सी की ओर देखता रह गया, पर युवती जा चुकी थी।
उस रात एक तेज आवाज से मेरी नींद टूट गई। उठकर कमरे में रोशनी करने पर देखा, दीवार के साथ बड़ी तस्वीर मुंह के बल गिर पड़ी है। बाहर तेज आंधी-वर्षा थी। मैं उठा और जाकर तस्वीर को पुनः दीवार के सहारे खड़ा कर दिया। ऐसा लगा जैसे तस्वीर की मोनालिसा के चेहरे पर कुछ रोष के चिन्ह प्रकट हुए हैं। मैंने उसे सिर की ओर से हटा कर दरवाजे के पास रख दिया था, शायद इसीलिए। सौभाग्य से गिरने पर तस्वीर को कोई क्षति नहीं पहुंची थी।
दूसरे दिन सुबह उठने पर अहसास हुआ कि तस्वीर के प्रति बड़ी असावधानी बरती जा रही है। अपने घर में इस तरह उपेक्षित रखने से तो उचित है कि किसी को दे दूं, पर किसे दूं? परिचितों में कई हैं जो पेंटिंग पसंद करते हैं परंतु किसे दूं? फिर अचानक देवेश का स्मरण हो आया। पेशे से वे एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर हैं पर अन्य डॉक्टरों से बिल्कुल अलग। वे गीत-कविता, तस्वीर आदि बहुत पसंद करते हैं। सारा दिन अत्यन्त व्यस्त रहते हैं पर रात के आठ बजे के बाद रोगियों को नहीं देखते। कोई मरणासन्न रोगी आ जाए तभी देखते हैं, अन्यथा कह देते हैं, ‘अब मेरी छुट्टी है। सारा दिन अस्वस्थ लोगों के बीच बिता मैं स्वयं जीवित रहने का आनंद कब पा सकूंगा?’
कोलकाता में एकमात्र देवेश के क्लिनिक में ही मैंने रवीन्द्र-रचनावली देखी है। रोगियों को देखने के बीच जो समय मिलता है, उसमें रवीन्द्रनाथ की कविताएं पढ़ लेते हैं। एक दिन बातों ही बातों में मैंने कहा, ‘देवेश, आप एक तस्वीर लेंगे? आपके क्लिनिक में इस ओर दीवार खाली है, यहां तस्वीर बहुत जंचेगी।’
‘कैसी तस्वीर?’
मैंने तस्वीर के बारे में उन्हें बताया। देवेश सुनकर अभिभूत हुए, ‘निश्चय ही लूंगा। रोगियों को देखने के दौरान बीच-बीच में तस्वीर की ओर देख मेरा मन प्रसन्न हो उठेगा। रोगियों को भी अच्छा लगेगा। ले आना।’
मैंने वह तस्वीर उनके पास पहुंचा दी।
उस दिन से मेरा कमरा सूना-सूना-सा लगने लगा। कमरे में प्रवेश करते ही ऐसा जान पड़ता कि न जाने क्या अपने स्थान पर नहीं है। इतने दिनों तक एक औरत का साथ रहा। अब घर शून्य-सा लगने लगा। किसी-किसी दिन देर रात घर लौट कर रोशनी करते ही अचानक ऐसा लगता है, मैं अपने बिस्तर के सिरहाने मोनालिसा को देखूंगा पर वहां अब पुस्तकों का ढेर पड़ा है। मन तनिक दुखी हो जाता है। संभवतः इस तस्वीर के आकर्षण से ही मैं देवेश की महफिल में बार-बार जाने लगा। उनसे बातें करते-करते प्रायः तस्वीर की ओर देखता हूं। लगता है मोनालिसा मेरी ओर अपलक देख रही है, जैसे उसके चेहरे पर थोड़ी-सी नयी रोष की पतली छाया हो।
देवेश ने कहा, ‘मेरे पास रोगी आते हैं तो मैं सबसे पहले इस तस्वीर के बारे में ही उन्हें बताता हूं। विशेषकर इस तस्वीर को लेकर अधिक देर तक बातें करता हूं गर्भवती महिलाओं के साथ।’
‘मतलब यह कि आप भी विश्वास करते हैं कि मोनालिसा एक गर्भवती महिला की तस्वीर है।’ मैंने पूछा।
उन्होंने जोर देकर कहा, ‘निश्चय ही। दोनों आंखों के नीचे गौर से देखो। ऐसा गर्भवती महिलाओं में ही होता है। फिर युवती की जो उम्र है, उस तुलना में उसके वक्ष बड़े हैं अर्थात् नौ महीने और इसकी जो पोशाक है, यूरोप की गर्भवती महिलाएं ऐसा पहनती हैं।’
मैंने कहा, ‘सो तो है।’
देवेश ने आगे कहा, ‘सबसे बड़ी बात है इसकी मुस्कान! आहा... जैसे विश्व-प्रकृति! वह प्रकृति जो मानव के जीवन-प्रवाह को अक्षुण्ण रखे हुए है। प्राण-सृष्टि का क्या ही अपूर्व आनंद! इसीलिए मेरे पास जो गर्भवती महिलाएं आती हैं, मैं उनसे कहता हूं - आप लोगों को जो कष्ट या असुविधा हो रही है उसे भूल जाएं और इस तरह जरा मुस्कुराना सीखें।’
‘देवेश, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कोलकाता की सड़क पर मैंने एक युवती को देखा है जो देखने में हुबहू मोनालिसा की तरह है।’
देवेश ठहाका मार कर हंसे। मेरे कंधे पर जोर से मारते हुए कहा, ‘तुम कवि भी बड़े रोमांटिक होते हो। ऐसा चेहरा वास्तव में कभी किसी से मेल नहीं खा सकता। यूरोप में ही ऐसा मुखड़ा देख पाना मुश्किल है और तुमने कोलकाता में देख लिया?’
एक दिन संध्या समय मुझे देवेश के पास जाना पड़ा। इस समय क्लिनिक में बड़ी भीड़ होती है। अंदर एक रोगी था, इसलिए मैं देवेश के सहायक कन्हाई के हाथ एक स्लिप भेज कर बाहर बैठ गया। क्लिनिक के बाहर ‘वेटिंग रूम’ में कई तरह की पुरानी पत्र-पत्रिकाएं रखी हुई थीं। ऐसी ही किसी पत्रिका को उठाने जा रहा था कि उसी समय बगल में बैठी युवती ने उसी पत्रिका की तरफ हाथ बढ़ाया। मैंने उसी वक्त हाथ हटा कर कहा, ‘लीजिए, आप ले लीजिए।’
युवती ने मेरी ओर देखा और तभी मैं अचानक चौंक उठा। इसे ही तो मैंने एक दिन गाड़ियाहाट के मोड़ और फिर एक दिन टैक्सी में जाते देखा था। वही मोनालिसा-सा चेहरा।
स्वस्थ-सुन्दर शरीर, चेहरे पर आधुनिक अभिजात्य के चिन्ह! बिना कुछ कहे उसने पत्रिका उठा ली। बगल में बैठी थी इसलिए मैं उसे भलीभांति देख नहीं पा रहा था। तनिक दूर बैठा होता तो अच्छा रहता। थोड़ी ही देर में देवेश ने अपने रोगी को विदा कर दरवाजा खोल मुझे बुलाया, ‘आओ सुनील, अंदर आओ।’
अंदर प्रवेश करते ही मैं अपनी बातें कहने के बजाय उत्तेजित होकर फुसफुसा कर कहने लगा, ‘देवेश, मैंने आपसे कहा था न कि एक युवती देखने में बिल्कुल मोनालिसा की तरह है।’
देवेश ने पूछा, ‘कौन-सी युवती?’
मैंने कहा, ‘मैं जहां बैठा था, ठीक उसके बगल में बैठी है।’
देवेश क्लिनिक का दरवाजा खोल बाहर झांक आए। लौटकर कहा, ‘तुम्हारा दिमाग खराब है। वह तो रुचिरा सान्याल है, जस्टिस पी. सान्याल की पुत्री। तुमने उसमें मोनालिसा की कौन-सी समानता देख ली?’
‘क्यों आप नहीं देख पाये?’
‘कैसी समानता? कोई समानता नहीं है।’
मैंने तस्वीर की मोनालिसा की ओर देखा। बहुत समानता है। वैसा ही चेहरा, वैसी ही आंखें, होठों की एक-सी रेखाएं।
देवेश ने कहा, ‘परिचय करा दूं?’
मैंने कहा, ‘नहीं-नहीं, अब मैं क्या बात करूंगा?’
देवेश ने मोनालिसा की तस्वीर को एक बार देखा, फिर एक दबी हुई लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘तुमने जब बात उठाई है तो तुम्हें बता ही दूं। कहना उचित नहीं, फिर भी कह रहा हूं। रुचिरा यहां क्यों आती है, जानते हो?’
मैं कोतूहलभरी आंखों से उन्हें देखने लगा।
उन्होंने कहा, ‘वह गर्भपात कराना चाहती है। मैंने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं मानी। अब मुझे भी कुछेक दिनों से लग रहा है कि उसका निर्णय ठीक है।’
मेरे मुंह से निकल गया, ‘क्यों?’
देवेश ने कहा, ‘तुमने रुचिरा सान्याल का नाम नहीं सुना है? समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हुआ है। राजनीतिक कारणों से गत वर्ष पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया था। जिरह करते वक्त विभिन्न वीभत्स अत्याचारों से वह बेहोश हो गयी थी। वे सब अत्याचार की बातें मैं तुम्हें सुनाना नहीं चाहता। फिर जब वह जमानत पर रिहा हुई तो उसे पता चला कि वह गर्भवती है। उसके गर्भ में एक चरम अन्याय की संतान थी। बाप कौन है वह नहीं जानती। इस संतान के प्रति उसके मन में सद्भावनाओं का संचार कभी नहीं हुआ, इसलिए वह चाहती है... इस बारे में तुम क्या कहते हो?’
मुझे कुछ कहना नहीं था। अतः चुप रहा।
देवेश के क्लिनिक से निकलते हुए मैंने उसे युवती के चेहरे की ओर एक बार देखा। वह एक पत्रिका की ओट में थी। हां, अब देखने पर लगता है कि युवती गर्भवती है, पर उसके चेहरे में क्या है? क्रोध या दुख, घृणा या उदासीनता या इन सबका मिलता-जुलता एक अन्य रूप? मैं कलाकार नहीं हूं। मुझमें तस्वीर आंकने की रत्तीभर भी क्षमता नहीं है, फिर भी मुझे आशा रहेगी कि कोई नया कलाकार निश्चय ही एक दिन इस युवती की तस्वीर को शाश्वत कायम रखेगा।
मूल बांग्ला से अनुवाद ः रतन चंद ‘रत्नेश’