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नदी मरी नहीं

08:17 AM Sep 08, 2024 IST

बांग्ला कहानी

बहुत दिनों बाद एक बार सोनापुर गया। जाकर देखा, तरला नदी अब गांव के पास से नहीं बहती। जल में गंदगी फेंक-फेंककर गांववालों ने उसका अस्तित्व लगभग मिटा डाला था, परंतु नदी मरी नहीं थी। वह अपनी गति परिवर्तन कर पास के गांव से होकर गुरजने लगी थी। जो नदी सोनापुर की शोभा थी, उसे शस्य श्यामला किए रखती थी, वह अब रहीमगंज के पास से बहती है। अब वह वहां की शोभा बढ़ा रही है।

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बनफूल

पीताम्बर मेरे बाल्यकाल का साथी है। एक ही गांव के एक ही परिवेश में हमारा बचपन बीता है। हमारे गांव को छूकर तरला नाम की एक नदी बहती थी। उस नदी के किनारे पीताम्बर और मैंने कई खेल खेले। जल में तैरे, कई नाव तैरायी। उसकी यादें आज भी मेरे मन में ताजा हैं। तरला के बिना हम अपने गांव की कल्पना भी नहीं कर सकते। वह मानो गांव की ही एक रहवासी हो। उसके कई रूप, उसकी मधुर कलकल ध्वनि और भी न जाने क्या-कुछ? उस नदी को मैं बहुत चाहता था। उस समय मुझे बड़ा कष्ट होता, जब गांव के लोग उसमें कूड़ा-कचरा फेंकते। सारा कचरा उसी में फेंका जाता। मानो वह नदी न होकर कोई गंदा नाला हो। फिर भी तरला मुस्कुराते हुए सब कुछ सह लेती, हालांकि उस समय वह बहुत उदास और दुखी होती, जब उसमें गंदगी डाली जाती, परंतु दूसरे दिन उसे मैं पूर्ववत हंसता-मुस्कुराता पाता।
जैसे मां की गोद में चिरकाल तक नहीं रहा जा सकता, उसी तरह गांव की गोद में भी नहीं। अंततः एक दिन गांव छोड़ना ही पड़ता है। पाठशाला की शिक्षा पूरी होते ही मुझे और पीताम्बर को गांव छोड़ना पड़ा। मैं कोलकाता चला गया और पीताम्बर पहुंचा कूचबिहार। मैं बोर्डिंग में रहकर आगे की पढ़ाई करने लगा। पीताम्बर के मामा कूचबिहार में कार्यरत थे। वह उनके घर पर ही रहकर पढ़ाई में लीन हुआ। शुरू-शुरू में हम दोनों में पत्रव्यवहार होता रहा और फिर वह भी क्रमशः थम गया। पीताम्बर से संपर्क तभी से छूट गया। मुझे शिक्षा-अर्जन के लिए विदेश भी जाना पड़ा। पीताम्बर कूचबिहार में ही रहकर अपनी शिक्षा पूरी कर कर्मजीवन में प्रवेश कर गया। वह अधिक पढ़ नहीं पाया था। मैट्रिक की सीढ़ी भी नहीं लांघ सका। सो, नौकरी भी कोई खास नहीं मिली। एक आफिस में कुछ दिनों तक क्लर्की करता रहा परंतु उस तनख्वाह से उसका गुजारा नहीं होता। अंततः नौकरी छोड़ उसने अपना निजी व्यवसाय जमाया। बिना मूलधन और विद्या के जो व्यवसाय स्वच्छंदगति से चलता है वही यानी कि पुरोहितचारी। ब्राह्मण-पुत्र था, निष्ठा भी थी। मीठी-मीठी बातें कर गृहणियों का मनोरंजन करने की क्षमता भी थी उसमें। इस तरह बारह माह-तेरह त्योहारों वाले इस देश में वह अच्छी-खासी कमाई करने लगा। विवाह भी कर चुका था, परंतु ईश्वर की दया से अधिक बच्चे नहीं हुए। एकमात्र संतान थी, एक कन्या। नाम था उसका आदरिणी।
मैं सिविल सेवा में उत्तीर्ण होकर विभिन्न जिलों में घूमता फिर रहा था। जब कूचबिहार पहुंचा तो पीताम्बर से भी मुलाकात हो गई। शुरू में मैं उसे पहचान नहीं पाया। वह कूचबिहार में ही है, यह बात भी मुझे याद नहीं रही थी। मेरे साथ मेरी विधवा बहन रहती थी। वह अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की थी। जहां भी जाता, उसकी पूजा-व्रत, त्योहार आदि के लिए मुझे ही पुरोहित ढूंढ़ना पड़ता। कूचबिहार में पुरोहित ढूंढ़ते समय ही मुझे पीताम्बर भी मिल गया। मेरे ही दफ्तर का एक क्लर्क उसे मेरे घर ले आया था। सचमुच मैं उसे पहचान नहीं पाया था। जो सुकुमार गौरवर्ण बालक मेरा सहपाठी हुआ करता था, उसका नाममात्र का भी चिह्न नहीं था इस जनेऊधारी पुरोहित में। लंबा, दुर्बल, अधपकी मूंछ-दाढ़ी, देह पर अधमैली नामावली, अनामिका में अष्टधातु की अंगूठी, शरीर का ऊपरी आधा हिस्सा आगे की ओर झुका-झुका, चेहरे पर सशंकित मुस्कुराहट, आंखों में उत्सुक दृष्टि, मुंह के दोनों कोनों में सफेद घावों के दाग। इस व्यक्ति से मेरे बालसखा की मूरत बिल्कुल मेल नहीं खा रही थी। बाल्यकाल में हम एक-दूसरे को ‘तू’ कहकर संबांधित करते थे। पीत पुरोहित ने अपना हाथ मलते हुए कहा, ‘मुझे पहचान पा रहे हैं सर?’ मैं अवाक‍् होकर उसे देखता रहा। इस व्यक्ति को पहले कभी कहीं देखा हो, ऐसा लगा नहीं। कहा, ‘नहीं, मैंने पहचाना नहीं। कभी पहले हम मिल चुके हैं क्या?’
‘सोनापुर गांव में मैं आपके साथ रामठाकुर की पाठशाला में पढ़ा करता था। मेरा नाम पीताम्बर है।’
‘अरे..।’ सचमुच विस्मय से मैं अभिभूत हो उठा था।
धीरे-धीरे आदरिणी हमारे घर की सदस्य-सी बन गई। मैं यौवन में ही पत्नीविहिन हो गया था। घर में मेरी इस विधवा बहन के सिवाय अन्य कोई महिला नहीं थी। दो-चार दिनों में आते-जाते आदरिणी मेरी बहन सरला की अत्यंत प्रिय हो गई। सचमुच स्नेह करने लायक थी वह। ऐसा नम्र, मधुर स्वभाव साधारणतया देखने को नहीं मिलता। प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास थी। अर्थाभाव के कारण पीताम्बर उसे कालेज में पढ़ा नहीं सका था। मैंने कहा भी कि उसकी शिक्षा का भार मैं लेता हूं। उसे कॉलेज में दाखिला दिलवा दो, परंतु पीताम्बर राजी नहीं हुआ। मुझे लगा कि मेरे इस प्रस्ताव पर उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची है। गरीबों का आत्मसम्मान बड़ा तीक्ष्ण होता है। वह म्लान हंसी के साथा बोला, ‘अधिक पढ़ाकर क्या फायदा है भाई। अंत में विवाह तो करना ही पड़ेगा। उसी कोशिश में हूं। वह बचपन से शिवपूजा करती आ रही है। उसे निश्चय ही एक अच्छा पति मिलेगा। एक अच्छे घर का लड़का मिला भी है।’
अच्छे-भले घर के लड़के के पिता और बुआ आदरिणी को देखने आए। उनके आने-जाने का खर्च पीताम्बर को ही वहन करना पड़ा। हालांकि वे दोनों ही सामान्य परिवार के थे, परंतु उनके हावभाव और बातों से ऐसा लगा मानो कोई अमीर-उमराव हों। अपनी क्षमता से अधिक खर्च कर पीताम्बर ने उनके भोजन की व्यवस्था की। आदरिणी की आपादमस्तक भलीभांति निरीक्षण के बाद उन्होंने कहा, ‘लड़की काली है। हम उज्ज्वल गौरवर्ण की तलाश में हैं। यह पात्री नहीं चलेगी।’
आदरिणी का रंग उज्ज्वल, गौरवर्ण नहीं, वह श्यामांगिनी है, परंतु उस जैसी सुशील लड़की ढूंढ़ने पर भी नहीं मिल सकती। पीताम्बर हताश हुआ और फिर से एक पात्र की तलाश में जुट गया। दूसरी बार जो पात्र मिला, उसे सुपात्र कहना उचित नहीं होगा। आई.ए. पास कर घर में बैठा है। आदरिणी को पसंद तो किया, परंतु जितना दहेज मांगा, वह पीताम्बर के वश का नहीं था। पीताम्बर ने बड़े कष्टों से लड़की के विवाह के लिए एक बीमा कंपनी में पांच हजार जमा कर रखे थे। इन्होंने पांच हजार नगद ही मांगा। इसके अलावा गहने-लते, वर की पोशाक और बीसेक बरातियों के लिए आने-जाने का किराया। सो, यह रिश्ता भी न हो पाया। इसके बाद के रिश्ते भी जुड़ नहीं पाए। अधिकांश लोगों को लड़की पसंद नहीं आई। दहेज का भार सहना पीताम्बर के लिए संभव नहीं था। कई जगह कुंडली नहीं मिली।
इनमें मेरा एक मित्र सुधीर का पुत्र भी था। वह मेरा सहपाठी रह चुका था। हम एक साथ प्रेसीडेंसी कालेज में पढ़े थे। उसका बेटा दीपंकर सचमुच भला लड़का था। मुझे सूचना मिली थी कि उसने अच्छे अंकों से एम.ए. की परीक्षा पास की है। मैंने आदरिणी के संबंध में सुधीर को पत्र लिखा। आशा थी कि सुधीर मेरा अनुरोध अस्वीकार नहीं करेगा। सुधीर ने सीधे पर ऐसा किया भी नही। उसने लड़की देखने की इच्छा भी प्रकट नहीं की। लिखा कि जब तुम लड़की को पसंद कर ही चुके हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं, परंतु दीपंकर हमारा इकलौता पुत्र है। मेरी पत्नी की विशेष इच्छा है कि पात्र-पात्री की कुंडली का मिलान जहां हो, वहीं विवाह होगा। आदरिणी की कुंडली भेजी गई। सात दिनों बाद लौट आई। कुंडली मिल नहीं पायी।
बंगालियों की आंखों की लज्जा अत्यंत प्रबल होती है। जहां सीधे तौर पर मना नहीं किया जा सकता, वहा टेढ़े रास्तों से चक्षुलज्जा की मर्यादा का पालन करने की बुद्धिमता उनमें है। खैर, मैं जब तक वहां रहा, तब तक आदरिणी के विवाह की कोई व्यवस्था नहीं हो पायी। हो भी पाएगी, यह आशा भी नहीं थी क्योंकि जिस योगायोग से हमारे समाज में लड़कियों की शादी होती है, वह योगायोग पूरा करने का सामर्थ्य पीताम्बर में नहीं था।
कुछ ही दिनों में मेरा तबादला हो गया। बगुड़ा पहुंचने जाने पर एक दिन मुझे अपने एक अन्य मित्र द्विजन का पत्र मिला। वह सुधीर का भी मित्र था। उसने लिखा था, सुधीर अपने बेटे के लिए लड़की ढूंढ़ता फिर रहा है। स्पष्ट तो नहीं कहता, परंतु असल में लगता है कि उसे पैसे चाहिए। एक जगह तो उसने खुल्लमखुल्ला दस हजार की मांग रख दी। लड़की के पिता ने जब कहा कि इतना पैसा नहीं दे सकते। बहुत हुआ तो छह हजार दे देंगे तो सुधीर ने क्या कहा, जानते हो? लिखा, आपका प्रस्ताव मैं मान लेता परंतु कुंडली मिल नहीं पायी है।
इस पत्र के मिलने के तकरीबन छह माह बाद मुझे खबर मिली कि सुधीर का पुत्र दीपंकर आई.ए.एस. पास कर गया है। इसके कुछ दिनों बाद वह मेरे पास ए.डी.एम. बनकर प्रशिक्षण के लिए आया। उसे देखकर प्रसन्नता हुई।
आते ही अपनी पत्नी के साथ मुझसे मिलने आया। काली, दुबली-सी एक लड़की। सुना, जाति से सुनार है पर शिक्षित है। दीपंकर के साथ ही पढ़ती थी। लव मैरिज। लड़की से परिचय कर अच्छा लगा। बातों ही बातों में मैंने जाना कि इस विवाह में कुंडली नहीं मिलायी गई। दहेज मांगने का दुस्साहस भी सुधीर नहीं कर पाया और सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि सुधीर ने दीपंकर से आपसी संबंध भी नहीं तोड़ा। इसी बहू को स्वीकार कर लिया है।
तबादले के बाद मुझे पीताम्बर का सिर्फ एक ही पत्र मिला। आदरिणी ने भी एक पत्र लिखा था। फिर उनकी कोई खबर नहीं मिली। मैंने एक-दो बार लिखा भी, परंतु कोई जवाब नहीं आया। मुझे कई तरह के कार्यों में व्यस्त रहना पड़ता है, मैं भी उनकी खोजखबर नहीं ले सका। उसके बाद साधारणतया जो होता है, क्रमशः मैं उन्हें भूल ही गया। फिर भी पूरी तरह भुलाया नहीं जा सका।
मैं रिटायर होकर कोलकाता में रहने लगा था। समय बिताने के लिए एक जगह काम भी करने लगा था। पंजाब के एक मशहूर चमड़ा-व्यवसायी जाफर खां ने अपने व्यवसाय में मुझे प्रबंधक नियुक्त कर था। एक दिन दफ्तर में बैठा था कि चपरासी ने आकर सूचित किया कि एक औरत मुझसे मिलना चाहती है।
मैंने उसे अपने कक्ष में बुलाया। आपादमस्तक एक बुर्काधारी औरत आई। जब उसने बुर्का हटाया तो मैं अवाक‍् होकर रह गया।
‘मुझे पहचान पा रहे हैं चाचा जी? मैं आदरिणी।’
‘आदरिणी... तुम इस वेश में?’
मैंने एक मुसलमान से शादी की है। आपके समाज में तो मेरे लायक जगह थी ही नहीं। इन लोगों ने मुझे आदरपूर्वक स्वीकारा, सुख से रखा। मेरे पति आपके ही दफ्तर में सहायक प्रबंधक हैं।’
‘कादर साहब, तुम्हारे पति हैं?’
‘हां।’
मैं निर्वाक होकर रह गया। एक सुंदर-सा लड़का दरवाजे से झांक रहा था।
‘यह मेरा बेटा है अब्बास। इधर आओ बेटे। नाना जी हैं, आदाब करो।’
अब्बास ने मेरे पास आकर आदाब किया। मैंने उसके गाल सहलाए। आदरिणी ने कैसे एक मुसलमान से शादी कर ली, पीताम्बर का क्या हाल है, ये सब बातें पूछने का साहस मैं जुटा नहीं पाया।
बहुत दिनों बाद एक बार सोनापुर गया। जाकर देखा, तरला नदी अब गांव के पास से नहीं बहती। जल में गंदगी फेंक-फेंककर गांववालों ने उसका अस्तित्व लगभग मिटा डाला था, परंतु नदी मरी नहीं थी। वह अपनी गति परिवर्तन कर पास के गांव से होकर गुरजने लगी थी। जो नदी सोनापुर की शोभा थी, उसे शस्य श्यामला किए रखती थी, वह अब रहीमगंज के पास से बहती है। अब वह वहां की शोभा बढ़ा रही है।

मूल बांग्ला से अनुवाद रतन चंद ‘रत्नेश’

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