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यादों में बाकी खेल-मेले और महफिल

12:07 PM Aug 24, 2021 IST

 गुरबचन जगत

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मैं अपने अंकल के कंधों पर बैठा हुआ था और हम लोग खेतों से होकर गांव के बाहर मैदान की ओर जा रहे थे। जैसे-जैसे हम नजदीक पहुंचते, बढ़ते कोलाहल से रोमांच महसूस होने लगा था। मैं उस वक्त बहुत छोटा था, कंधे पर बैठा मैं रास्ते भर गंतव्य को लेकर जिज्ञासु रहा, वे लगातार बताते रहे कि हम ‘छिंज’ देखने जा रहे हैं—यह शब्द मैंने पहले कभी नहीं सुना था, फिर उन्होंने मुझे समझाया कि यह कुश्तियों का दौर होता है, जिसमें इलाके के युवा भाग लेते हैं। वहां देखा कि अखाड़े के बीचों-बीच एक बड़ा-सा गोल दायरा था। मिट्टी को खोदकर नरम किया हुआ था ताकि चोट न लगे। कुछ मुकाबले पहले ही घोषित हो चुके थे और कुछ उस वक्त घोषित किए जाते थे, जब पहलवान गोल दायरे में दाखिल होकर खुली चुनौती देकर ललकारता था। कुश्ती शुरू होती, लंगोट कसे हुए पहलवानों की हौसला अफज़ाई दर्शक चीख-चीखकर करते। मुकाबला किसी एक के चित्त होने तक जारी रहता। रंग-बिरंगे कुर्ते और तहमद से सजे लोग अपने-अपने प्रिय प्रतियोगी का उत्साह बढ़ाते रहते। उस वक्त शर्त या जुआ जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी, लेकिन प्रशंसक चहेते प्रतियोगी को हौसला बढ़ाने को कुछ पैसा दिया करते थे। माहौल उल्लासमय, तनाव एवं मदिरा रहित हुआ करता था। लोगों की भीड़, शोर-शराबा, लंगोट कसे पहलवानों को देखकर मैं अभिभूत हो उठा था, जिसकी खुशनुमा स्मृति आज तक वैसी कायम है। 

तो इस किस्म के खेल और मनोरंजन उन दिनों हुआ करते थे। गर्मियां आने पर शाम की ठंडक में गांव के किशोर और युवा कबड्डी खेला करते थे। गांव के पास खाली पड़ी किसी जगह को खोदकर नर्म कर लिया जाता था। केवल ‘कच्छेहरा’ पहने लड़के, जिनका शरीर तेल से चुपड़ा रहता था, खुद को दो समूहों में बांटकर खेल शुरू कर देते। जीत पाने को मैच पूरी शिद्दत से खेले जाते थे, लेकिन बिना कोई शर्त बदे। कुछ दिनों के बाद क्षेत्रीय कबड्डी प्रतियोगिता के लिए इन्हीं लड़कों में छांटकर गांव की टीम तैयार होती थी, जो एक या दो दिन चलती थी। 

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घर लौटते वक्त रास्ते भर हल्की-फुल्की चुहल और तानाकशी के साथ खेल का पूरा पोस्ट-मार्टम होता रहता। गर्मियों में कबड्डी खेलना नित्यकर्म था और समय के साथ इसमें वॉलीबाल जुड़ गई। यह खेल सस्ता था क्योंकि केवल एक गेंद और जाल की जरूरत थी – जो अधिकाशतः छुट्टी पर गांव आया कोई फौजी दान में देता था। हमारे गांव की टीम बेहतरीन हुआ करती थी, खासकर गर्मियों में, जब कॉलेज में पढ़ने वाले युवा छुट्टी पर घर आए होते। हम में एक खिलाड़ी चन्नन सिंह का चयन तो भारतीय टीम में हो गया था, लेकिन वह जा नहीं पाया था। वॉलीबाल ही एकमात्र खेल था, जिसमें हम शर्त लगाया करते थे– हारने वाली टीम विजेता को दूध-सोडा (बर्फ वाले दूध में कंचे वाली बोतल का सोडा मिलाकर बनाया पेय) पिलाना पड़ता था। चूंकि उन दिनों मैं छुटि्टयों में गांव आया एक स्कूली छात्र हुआ करता था, इसलिए विशेष लिहाज करके मुझे एक गिलास वह मिल्कशेक– जो दरअसल घोल था न कि शेक– दे दिया करते थे। 

कुश्ती ग्रामीण खेलों का खासम-खास अंग थी, इसलिए तमाम सभाओं में पहलवानों की गाथाएं किंवदंतियों की तरह चलती थीं, खासकर गामा पहलवान की कहानियां, जो महाराजा पटियाला का शाही पहलवान था (महाराजा क्रिकेट को भी बढ़ावा देते थे और खुद भी एक अच्छे खिलाड़ी थे)। कुश्तियां एक और आयोजन का भी अभिन्न अंग थीं और वह था मेला। यह मेले समय-समय पर अलग-अलग गांवों में हुआ करते थे– एक तरह का क्रमवार आयोजन, जिसकी तारीख हर किसी को याद रहती थी। मेलों में विभिन्न मिष्ठान, बच्चों के लिए झूले आदि औरतों के लिए चूड़ियां और अन्य छुट-पुट सजावटी सामान, हस्त निर्मित पच्चीकारी से सजे सुंदर ‘खूंडे’ (सिरे से मुड़े हुए लठ) इत्यादि बेचने वाले दुकानदार जुटते थे। यहां भी कबड्डी और कुश्ती प्रतियोगिता चलती थीं, लेकिन उच्चस्तरीय और अधिक अवधि वाली, क्योंकि मेले में जुटने वाले ज्यादा संख्या में हुआ करते थे। इस दौरान मर्द, औरतें और बच्चे बर्फी, जलेबी इत्यादि का आनंद लिया करते थे और घरों के लिए अलग से बंधवा लेते थे। चूंकि मेले की तारीख पहले से तय हुआ करती थी, इसलिए बहुत से रिश्तेदार और दोस्त-सखा कुछ दिन तक अपने मेजबान के यहां ठहर कर इनका मजा लिया करते थे। पूरे इलाके में उत्सव-सा दृश्य हुआ करता था और अपराध जैसी कोई समस्या नहीं हुआ करती थी, हालांकि मेला अफसर और कुछ पुलिस वाले उपस्थित रहते थे।

इन मेलों में ‘नकलिए’ (भांड) यानी हास्य कलाकार भी आया करते थे, जिनके कार्यक्रम को ‘नकल’ कहा जाता था– यह प्रजाति अब भारतीय पंजाब में लगभग विलुप्त हो गई है, शायद पाकिस्तानी हिस्से में अभी भी है। फिर कुछ जाने-माने कलाकारों की घुमंतू टोलियां हुआ करती थीं, जिनका पेशा सूबे भर में जगह-जगह लगने वाले मेलों में अपनी प्रस्तुति देना था। अपने चुटीले अंदाज में चलताऊ हास्य का पुट भरने वाले ये कलाकार इलाके की किसी मश्ाहूर हस्ती या निम्न स्तर के किसी सरकारी अधिकारी को निशाना बनाकर व्यंग्य किया करते थे। लेकिन इसको सामान्य विनोद की तरह लिया जाता था, उस वक्त आज की तरह चिढ़कर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज नहीं किया जाता था। उनकी प्रस्तुति का परिदृश्य ज्यादातर दो व्यक्ति के बीच चले संवाद जैसा हुआ करता था, चूंकि माइक्रोफोन नहीं थे, लिहाजा कलाकार बहुत ऊंची आवाज में धारदार मजाकिया तीर छोड़ा करते थे। काफी छोटा होने की वजह से मैं यह नौटंकी ज्यादा नहीं देख पाया, बाद में भी नहीं। हां, यू-ट्यूब पर कुछेक देखे हैं, यह निरंतर ठहाकों के लिए मजबूर करने वाले होते हैं। उम्मीद है संस्कृति विभाग वाले कुछेक पाकिस्तानी प्रस्तुतकर्ताओं को आदान-प्रदान कार्यक्रम के तहत ला पाएं ताकि हमें अपनी साझी सांस्कृतिक जड़ों वाली विरासत की झलकी फिर से देखने को मिले। 

एक अन्य उत्सव की याद आती है, जो होशियारपुर जिले में काफी प्रचलित था, वह है आम का रसास्वादन। होशियारपुर में आम की देसी प्रजाति के हजारों-हजार पेड़ हैं, यह विशिष्ट नस्ल पंजाब की मंडियों तक आज भी नहीं पहंुचती, न ही अधिकांश लोगों ने इनके बारे में सुना होगा। किसान कुछ पेड़ों को निजी उपभोग के लिए रखकर बाकी ठेकेदार को सौंप देते थे। यह ठेकेदार फसल पकने के पहले अमुराई में फसल चक्र के अंत तक झोंपड़े बनाकर रहते हैं। यही लोग आम को आसपास के बाजारों तक बेचने ले जाते थे। क्योंकि आमों का यह मौसम जाना-माना है, इसलिए रिश्तेदारों के जत्थे और मित्रमंडली इनका आनंद लेने को कम से कम एक सप्ताह के लिए आकर मेजबान के यहां ठहरा करते थे। चूंकि आम चूसने पर रस रिसता है, लिहाजा लोगबाग उसी मुताबिक कपड़े पहनते थे। पानी की बाल्टी में डूबे आम लाए जाते थे और कार्यवाही शुरू हो जाया करती थी! इस रसास्वादन के दौरान आम की गुणवत्ता को लेकर ताजा कमेंट्री चलती रहती– यह वाला ज्यादा रसीला है या मीठा है या फिर खट्टा– लेकिन इस बयानबाजी के बावजूद चूसने का सिलसिला लगातार जारी रहता था। जी अघा जाता था तो कच्ची लस्सी (पानी में मिला दूध) लाया जाता था और फिर लीटरों के हिसाब से इसे भी गटक जाते थे। कहा जाता है इससे आमरस को हजम करने में मदद मिलती है। इसके बाद दोपहर के भोजन का तो कोई सवाल ही नहीं होता। रिश्तेदारों का एक जत्था रवाना हो जाता तो दूसरा आ जाता और यह क्रम जारी रहता यानी आम के बहाने मेलमिलाप होता। यह रस्म भी समय के साथ धीरे-धीरे खत्म होती गई, केवल यादें शेष हैं। 

ग्रामीण खेलों के विषय को मैं जिस खुशनुमा उल्लेख के साथ खत्म करना चाहूंगा। वह है किला रायपुर, जहां आज भी बैलों की दौड़ प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। इनमें प्रयुक्त होने वाली गाड़ियां मालवाहक जैसी भारी न होकर बहुत हल्की होती हैं और सिर्फ चालक के बैठने भर की सीट होती है। बैलों की जो जोड़ी इनमें जुतती है, उससे कोई और काम नहीं लिया जाता और उनकी परवरिश और देखभाल बहुत महंगी पड़ती है। उन्हें चारे के साथ घी, मक्खन, बादाम और क्या कुछ नहीं दिया जाता! समय-समय पर उन्हें अभ्यास के लिए दौड़ाया जाता है, धीरे-धीरे चालक और बैलों के बीच तालमेल वाली टीम बन जाती है। बैल चालक की हर छुवन और हड़काहट का अर्थ समझते हैं। जो गति वे प्राप्त करते हैं वह हैरान करने वाली होती है–मेरे गांव के बुजुर्ग ने एक बार शरारतन मुझे इस पर चालक के साथ बैठा लिया, खुद वे बैल हांकने के लिए मुझसे आगे थे और पीछे मुझे छोटी सीट पर बैठा दिया जहां संतुलन के लिए पकड़ने को कुछ नहीं था, बैलों द्वारा गति पकड़ने के साथ दिमाग में जो उन्माद-सा भरने वाला नशा, जैसा ठेठ रोमांच जो उस दिन महसूस किया, उसका अहसास आज तक मेरे ज़हन में ताजा है और रहेगा, जो शायद रेसिंग कारों की दौड़ में भी न मिले। हालांकि, जिस तरह कामेरा हाल रहा होगा और मैं गला फाड़कर चिल्लाया, उसको लेकर लंबे समय तक मेरा मजाक बनता रहा, खासकर जब-जब छुट्टियों में गांव आता था।

अभी भी बहुत-सी कहानियां कहने को बाकी हैं, बहुत-सी पुरानी यादें छेड़ने को हैं – अच्छी, बुरी दोनों– यह वह दुनिया है जो अब नहीं रही। फिर भी कुछ किस्से रह-रहकर याद आते हैं, मेरे लिए सबसे बढ़िया समय खेल के बाद वाला हुआ करता था जब सब गोल दायरे में बैठकर गपशप किया करते थे। झुंड में ज्यादातर सबसे छोटा मैं ही हुआ करता था, तो बड़े जो कुछ बताते थे उसे सुनकर मुंह खुले का खुला रह जाता था। सर्दियां आने के साथ खेल का समय शाम की बजाय दोपहर हो जाता था, जिसका अंत आग जलाकर तापने से होता था, जिसमें बड़े-बूढ़े-बच्चे सब शामिल हो जाते थे। चूंकि सोने का वक्त जल्दी हुआ करता था, लिहाजा सब अपने-अपने घरों की ओर निकल लेते थे। गर्मियां लेकिन ज्यादा मजेदार थीं, रात को बाहर आसमान के तले सोते थे और मेरी कोशिश अपने प्रिय चचेरे-ममेरे भाई के पास सोने की होती थी, बड़ों की भरपूर डांट मिलने तक देर रात तक हमारी कानाफूसी चलती थी। यह वह दुनिया है, जो गुजर चुकी है। अब न तो गांव जाना होता है, न ही कबड्डी या वॉलीबाल के वह मैच हैं, न ही आम चूसने वाली महफिलें सजती हैं न ही वे मेले रहे–बाकी हैं, तो केवल यादें। 

लेखक मणिपुर के राज्यपाल,  संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष और  जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं। 

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