हॉकी का नवजागरण, महिला शक्ति का उदय
जगमति सांगवान
हाल ही में सम्पन्न टोक्यो ओलंपिक में नीरज चोपड़ा ने गोल्ड मेडल जीत कर हमारे खिलाड़ियों के जीत के आगाज को चार चांद लगा दिए। इस मौके पर सरकारों व कुछ अन्य संस्थाओं ने भी आगे आते हुए धन व प्यार के खजाने उन पर वारे-न्यारे किए हैं। जिन खिलाड़ियों ने ओलंपिक में खेलने के लिए क्वालीफाई भर ही किया, उन्हें जितने भी इनाम दिए जाएं, वो कम हैं क्योंकि इनका ये प्रदर्शन इनकी जीवन की परिस्थितियों से बहुत आगे का प्रदर्शन है। जिस सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि से ये खिलाड़ी आते हैं, वो इस स्तर के शारीरिक विकास को वहन करने के लिए सहज रूप में कतई सक्षम नहीं हैं। ज्यादातर परिवारों ने अपने पूरे परिवार का बजट निचोड़ कर इन पर खर्च किया है। बकौल मेडलिस्ट खिलाड़ी उनके माता-पिता को उनके खेल करिअर को आगे बढ़ाने के लिए अतिरिक्त काम करना पड़ा है। उन्हें परिवार के दूसरे बच्चों की पढ़ाई तक भी छुड़वानी पड़ी है।
सरकार का खेलों पर बजट तो ऊंट के मुंह में जीरे के समान होता जा रहा है। हमारे देश का हाल ही में पेश खेल बजट 2019-20, कुल जमा 2216 करोड़ था। जिसका 40 फीसदी अफसरशाही पर खर्च होता है और बाकी खेलो इंडिया, यूनिवर्सिटी, कॉलेज, खेल मैदान व अन्य सुविधाओं पर जबकि बीसीसीआई के एक आयोजन का खर्च इससे ज्यादा हो जाता है। दूसरी तरफ हॉकी टीम पर आेडिशा सरकार का खर्च ‘सरकारी खर्चे व अच्छे खेल प्रदर्शन में सीधा सम्बन्ध’ दिखा रहा है। यह चुनौती जब हमने एशिया में कांस्य जीता था तब भी ऐसी थी, जो आज कई मायनो में और ज्यादा विकट हुई है। मसलन उस समय हरियाणा में एक खेलकूद महाविद्यालय था जो आज बंद पड़ा है। सभी खिलाड़ी प्राइवेट एकेडमियों के भारी-भरकम खर्चे उठाने पर मजबूर हैं जो हरेक के बस की बात नहीं। अतः बहुत-सी प्रतिभाएं दिल मसोस कर रह जाती हैं।
मैं हरियाणा के छोटे किसान परिवार की पृष्ठभूमि से आते हुए एक साल खेलकूद महाविद्यालय की छात्रा रहकर भारतीय महिला वालीबॉल टीम के ट्रेनिंग कैम्प के लिए चुनी गई थी। कैम्प में बहुत अच्छी डाइट के अलावा 4-5 मल्टी विटामिन गोलियां हर रोज खिलाई जाती थी ताकि हमारा शरीर उस स्तर की ट्रेनिंग को वहन कर सके। उसके बावजूद मिस्टर कुर्त राडे, हमारे जर्मन कोच, हमारे प्रदर्शन को देखकर बोलते थे—अच्छा और अच्छा करो, इतना भर तो मेरी दादी भी कर सकती है। उनकी इस लाइन को याद करके हम अब भी आपस में हंसते हैं। पहले हमें उनकी इस टिप्पणी पर गुस्सा आता था, अब हंसी आती है, क्योंकि अब हमें इसके निहितार्थ पता लग चुके हैं।
यह हकीकत है कि वो आबादियां जो खेल को अपनी ऊंचाई हासिल करने को जरिये की तरह अपनाती (अपवर्ड मोबिलिटी) हैं, उनके पोषण का स्तर लगभग कुपोषण जैसा है। हमारी हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल ने स्वयं बताया भी है कि उनकी शारीरिक हालत को देखकर शुरू में उनके कोच ने उन्हें खिलाने से मना कर दिया था।
हमारे कुल मेडल का मुकाबला असल में चीन के साथ करके देखा जाना चाहिए क्योंकि चीन और भारत में कई समानताएं हैं। खासतौर पर आबादी के लिहाज से। कहां उनके 88 मेडल और हमारे सात। विशेषज्ञों की नजर में हमारी रणनीतियों में दो ही फर्क हैं। उन्होंने अपनी व्यापक आबादी की मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना अपनी प्राथमिकता बनाया व मास-स्पोर्ट्स कल्चर के सिद्धांत को अपनाते हुए खेल सुविधाओं का जाल बिछाया। इसी मूल मंत्र पर चलते हुए हम अपनी बड़ी आबादी को एक खेल-पावर बनने के लिए अपनी ताकत बना सकते हैं। इसके साथ-साथ हमें विभिन्न राज्यों के सांस्कृतिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए कुछ खास खेलों को वहां प्रोत्साहन देना होगा। दूसरी तरफ हम देख रहे हैं कि हमारे देश की महिलाएं अपने खेल प्रदर्शन को उत्तरोत्तर ऊंचा उठाती जा रही हैं। पिछली बार रियो ओलंपिक में तो केवल महिलाओं ने ही पदक जीते थे। परन्तु खेलों को और आगे बढ़ाने वाली देश की अपैक्स आठ सदस्यीय टास्क-फोर्स में फिर भी किसी महिला खिलाड़ी को स्थान नहीं दिया गया। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि टोक्यो ओलंपिक से हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी का नवजागरण व महिला शक्ति के खेल शक्ति बनने का आगाज हुआ है।