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विद्रोही

11:38 AM Aug 14, 2022 IST

रवींद्र नाथ टैगोर

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उस दिन सोमवार था। सवा नौ बजे के करीब बी.एससी. पास मेरे मित्र संतोष कुमार एक युवा रोगी के साथ मेरे दवाखाने में आए। उसकी आयु अठारह-उन्नीस साल से अधिक नहीं थी। गेहुंआं रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, गठीला शरीर, कपड़े स्वदेशी, परंतु मैले। सिर के बाल लंबे और रूखे। उस युवक को देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

संतोष कुमार ने युवक का परिचय कराते हुए कहा, ‘आप जिला नदिया के निवासी हैं। नाम ललितकृष्ण बोस है, लेकिन ललित के नाम से प्रसिद्ध हैं। एम.ए. में पढ़ते थे, लेकिन किसी कारणवश कॉलेज छोड़ दिया।’

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मैंने मुस्कराते हुए पूछा, ‘आजकल आप क्या करते हैं?’

उत्तर संतोष ने ही दिया, ‘दो महीने पहले ये प्रेस में प्रूफरीडर थे, पर इस काम में जी न लगने के कारण नौकरी छोड़ दी। परसों से इन्हें बुखार है, कोई अच्छी-सी दवा दे दीज़िए।’

आज से पहले भी मैंने इस युवक को कहीं देखा था, पर कहां और कब? याद नहीं। जांच-परख के बाद मैंने ललित से कहा, ‘लगता है आप आवश्यकता से अधिक परिश्रम करते हैं। खैर, कोई बात नहीं दो दिन में स्वस्थ हो उठेंगे।’

ललित अत्यन्त मधुर-भाषी था। मैं उसकी बातों से मुग्ध हुआ। कहा, ‘हर तीन घंटे के अंतराल पर दवा लेते रहें। दूध और साबूदाने के सिवाय कोई और चीज न खाएं और कल फिर एक बार आकर मुझे दिखा जाएं।’

ललित हंस पड़ा। जाते समय उसने शाम ही को आने का वचन दिया।

ललित प्रतिदिन सुबह-शाम मेरे पास आने लगा। मैं उसके व्यवहार से बहुत प्रसन्न था। घंटों इधर-उधर की बातें होती थी। ललित वास्तव में ललित था। वह मनुष्य नहीं देवता था।

फिर ललित मेरे घर पर ही रहने लगा। मेरा पुत्र उमाशंकर आठवीं कक्षा में पढ़ता है। ललित ने कहा, ‘मैं इसे बांग्ला सिखाऊंगा। बड़ी मधुर भाषा है।’ मैं स्वयं भी यही चाहता था। उमाशंकर ने बांग्ला पढ़ना शुरू कर दिया। ललित अब उमाशंकर का अध्यापक है।

कोलकाता जैसे बड़े नगर में यों तो हर त्योहार पर बड़ी रौनक रहती है लेकिन दुर्गा-पूजा के अवसर पर खासी धूम मची रहती है। दशहरे के दिन लगभग सभी रास्तों पर जन-समुदाय उमड़ पड़ता है। बड़े-बुजुर्गों में भी उस दिन एक विशेष हर्ष की भावना होती है, बालकों और युवकों का तो कहना ही क्या? हर व्यक्ति अपनी धुन में मस्त दिखाई देता है। जिस समय दुर्गा की सवारी सामने से आती है तो ‘दुर्गा माई की जय-काली माई की जय’ के तुमुल जय-घोष से आकाश गूंज उठता है।

इस अवसर पर उस दिन हम सब उत्सव देखने गए थे। ललित भी साथ था। पहले की अपेक्षा वह आज अधिक उत्साहित था। हर जगह वह देवी की मूर्ति को नमन करता। कभी उसके नेत्र लाल हो जाते और कभी उनमें आंसू उमड़ आते। मैंने देखा, कभी वह हर्षातिरेक से नाचने-कूदने लगता और कभी बिल्कुल मौन हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखता। मैंने बहुत कोशिश की परंतु उसके इन क्रियाकलापों को न समझ सका। उससे जान लेने का साहस भी नहीं हुआ।

हमारे पीछे एक गरीब बूढ़ी औरत आठ-नौ साल के बच्चे के साथ खंभे की ओट में खड़ी थी। सम्भवतः अथाह जन-समूह के कारण वह किसी भी ओर जाने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। वह भिखारिन थी। गरीबी के कारण पेट पीठ से जा चिपका था। उसने अपना दायां हाथ भीख के लिए पसार रखा था। बच्चा अनुनय-विनय करते हुए कह रहा था, ‘बाबा, भूखे की सुध लेना, परमेश्वर तुम्हारा भला करेगा।’

पर इस संसार में गरीबों की कौन सुनता है? गरीब बुढ़िया की ओर किसी ने आंख उठाकर भी न देखा। हर कोई अपनी प्रसन्नता में डूबा हुआ था। बच्चे ने बुढ़िया से कहा, ‘घंटों बीत गए पर अब तक सिर्फ दो पैसे मिले हैं। सोच रहा था आज दुर्गा-पूजा है, कुछ अधिक ही मिलेगा, पर चिल्लाते-चिल्लाते गला बैठ गया, कोई सुनता ही नहीं। जी में आता है यहीं अपनी जान दे दूं।’ यह कहकर बच्चा रोने लगा।

बुढ़िया की आंखों में आंसू तैरने लगे। वह बोली, ‘बेटा! अपना भाग्य ही खोटा है। कल सत्तू खाने के लिए छह पैसे मिल भी गए थे, आज उसकी भी आस दिखाई नहीं देती। भूखे पेट ही रहना होगा। हाय! यह हमारे पापों का फल है।’

बुढ़िया ने एक ठंडी उसांस ली और अपने फटे मैले आंचल से अपनी और बच्चे की आंखें पोंछीं। बच्चा फिर उसी विनती भरे स्वर में कहने लगा, ‘बाबा, भूखे की सुध लेना, परमेश्वर तुम्हारा भला करेगा।’ पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता? इतना अधिक जन-समूह था पर इस विनती पर कोई कान नहीं दे रहा था।

ललित की नज़र उस समय बुढ़िया की ओर ही थी। उसकी करुण दशा देखकर उसका मन भर आया। उसने अपनी जेब टटोली। उसमें फूटी कौड़ी भी नहीं थी। बहुत व्याकुल हुआ। उसने अपनी दूसरी जेब में हाथ डाला और इस बार कुछ आवश्यक कागजों के बीच एक अठन्नी निकल आई। ललित की निराशा प्रसन्नता में बदल गई, चेहरा खिल उठा। वह अठन्नी उसने बुढ़िया के हाथ पर रख दी।

यह देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। ललित, जिसे कभी-कभी भूखे तक रहना पड़ता, जिसे मैंने कभी एक पैसे का पान तक चबाते नहीं देखा था और जो मेरी निगाह में बहुत कंजूस था, उसका यह दान देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। ललित के सहयोग से उमाशंकर में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो आए। कहां तो वह बिना मोटर के घर से बाहर नहीं निकलता था पर अब आलम यह था कि ललित के साथ टहलने के लिए हर रोज कोसों निकल जाता। सिनेमा देखने का चस्का भी जाता रहा। व्यक्तिगत विलास-सामग्री और प्रदर्शन की आदत को भी तिलांजलि दे दी। अंग्रेजी शिक्षा से अब उसे घृणा हो गई थी।

रविवार के दिन मेरे यहां कुछ मित्रों की पार्टी थी। खूब आनन्द रहा। मैं अपने मित्रों के सत्कार में लगा हुआ था। उधर उपेन्द्र कुमार, गोपाल, उमाशंकर और ललित में चुपके-चुपके बातें हो रही थीं। ये लोग क्या बातें कर रहे थे यह बताना कठिन है, क्योंकि एक तो मैं पार्टी में उलझा हुआ था, उसकी ओर अधिक ध्यान न था, दूसरा वे मुझसे दूर थे और धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। बीच-बीच में जब वे खिल-खिलाकर हंसते तो मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाता।

गोपाल बाबू को मैं एक अर्से से जानता हूं। रिश्ते में वे संतोष कुमार के बहनोई लगते हैं। रोमांटिक मिजाज के हैं। आज देखा तो कलाई पर घड़ी नहीं थी, रेशम की कमीज में से सोने के बटन गायब थे। होंठों की लाली गायब, बाल भी फैशन के अनुरूप नहीं थे। मैंने संतोष से धीरे से कहा, ‘आज तो भाई साहब का कुछ और ही रंग है। वह पहली-सी चटक-मटक दिखाई नहीं देती, क्या बात है? कुछ समझ में नहीं आ रहा।’

संतोष ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘आजकल इन पर स्वदेशी का भूत सवार है। कई महीनों से इसी रंग में रंगे हुए हैं। क्या आपने आज ही इन्हें इस वेश में देखा है?’

‘हां! और इसीलिए मुझे आश्चर्य भी हुआ।’ मैंने उत्तर दिया।

संतोष कुमार ने तनिक उपेक्षा-भाव से कहा, ‘हमें क्या मतलब? जिसके जी में जो आए करे। बार-बार समझाने पर भी अगर कोई न सुने तो क्या किया जाए। अधिक कहने-सुनने से अपनी ही प्रतिष्ठा पर आंच आती है। जैसी करनी वैसी भरनी। जब जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा।’

मुझे हंसी आ गई। संतोष भी हंस पड़ा।

उस रात को मैं सपने में खोया हुआ था कि किसी ने मुझे झिंझोड़ा। मैं चौंक गया। आंखें खोलकर देखा तो मेरा नौकर रामलाल हाथ में लालटेन लिए खड़ा है। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं, शरीर थर-थर कांप रहा था। मैंने घबराकर पूछा, ‘क्यों रामलाल क्या बात है, तुम इतना कांप क्यों रहे हो?’

रामलाल ने कहा, ‘बाबू, पुलिस ने सारा मकान घेर रखा है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है।’

मैं कोई चोर या बदमाश नहीं था, पर पुलिस का नाम सुनकर घबरा गया। एक-दो अपराध जो किए थे, वे आंखों के समक्ष घूम उठे। पूरा विश्वास हो गया कि पुलिस मुझे ही गिरफ्तार करने आई है।

पुलिस की हलचल सुनकर मेरी चेतना जाती रही। साहस करके नीचे आया। रामलाल बोला, ‘आप कहें तो दो-चार हाथ दिखाकर पुलिस वालों को धूल चटा दूं?’

मैंने उसे सावधान किया, ‘भूलकर भी ऐसा न करना, पुलिस से बिगाड़ना अच्छा नहीं होता।’

दरवाजा खोल दिया गया। दो-तीन सार्जेंटों के साथ एक सफेद वस्त्रधारी बंगाली और आठ-दस सिपाही कमरे के अन्दर घुस आए।

बंगाली बाबू ने जेब से एक बादामी कागज निकालकर मुझे दिखाते हुए कहा, ‘यह गिरफ्तारी का वारंट है। आपके यहां विद्रोहियों की गुप्त मंत्रणा होती है। विद्रोही तुरन्त गिरफ्तार किए जाएंगे।’

मुझ पर बिजली-सी टूट पड़ी। मैंने समझा कि सम्भवतः मैं ही विद्रोही हूं और मेरी गिरफ्तारी का यह वारंट है। मुझे ही पुलिस गिरफ्तार करने आई है। अब बचना मुश्किल है। अगर फांसी से बच भी गया भी तो काले पानी की सजा अवश्य मिलेगी।

मैंने भय से कांपते हुए कहा, ‘विद्रोही और वह भी मेरे मकान में? आप क्या कह रहे हैं। मैं सरकार का पक्षधर हूं। इसी वर्ष मुझे राय साहब की उपाधि मिली है। आपको शायद भ्रम हुआ है।’

एक सार्जेंट ने त्योरियां चढ़ाते हुए कहा, ‘हम काला आदमी नहीं है। गोरा आदमी कभी झूठ नहीं बोलता।’

बंगाली बाबू ने तनिक रोषपूर्वक कहा, ‘यह पुलिस का भ्रम नहीं हो सकता। भ्रम अक्सर डाक्टरों को हुआ करता है।’

‘विद्रोही का नाम क्या है?’ मैंने जानना चाहा।

‘शरद कुमार।’ उत्तर मिला।

‘बंगाली है?’

‘हां।’

‘कहां का रहने वाला है?’

‘श्रीरामपुर का।’

मेरे सिर से जैसे आफत टल गई। नाम सुनते ही होंठों पर हंसी खेलने लगी। कहा, ‘महाशय, इस नाम का कोई व्यक्ति मेरे घर में नहीं है।’

‘कोई और बंगाली आपके मकान में है?’

‘हां, एक सीधा-सादा नौजवान है जो मेरे बेटे को बांग्ला पढ़ाता है।’

उस सफेद वस्त्रधारी बंगाली ने कहा, ‘हां, उसी को ढूंढ़ रहे हैं। उसका असली नाम शरद कुमार है। पुलिस महीनों से उसके पीछे परेशान है, हाथ ही नहीं आता।’

मैंने आश्चर्य से कहा, ‘वह तो जिला नदिया का रहने वाला है और आप कहते हैं कि अपराधी श्रीरामपुर से है।’

‘सब उसकी चालें हैं, वह श्रीरामपुर का ही रहने वाला है। उसके पिता का नाम हृदयनाथ है जो एक प्रसिद्ध जमींदार हैं।’

मैंने फिर पूछा, ‘उसका अपराध क्या है?’

इंस्पेक्टर ने उत्तर दिया, ‘विद्रोह… एक गुप्त संस्था से उसका सम्बन्ध है। बम बनाना, चोरी, डकैती, कत्ल, लूटमार यही उनकी देश-सेवा है।’

यह सुनकर मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा, ‘आप महानुभाव एक सत्रह-अठारह वर्ष के बंगाली युवक को विद्रोही बना रहे हैं, यह भला कोई मान सकता है। एक साधारण युवक की गिरफ्तारी के लिए इतने लोग?’

चार सिपाही दरवाजे पर खड़े किए गए। घर की तलाशी शुरू हुई। दालान, कोठरी, बैठक, रसोईघर, यहां तक कि शौचालय में भी ढूंढ़ा गया पर ललित का कहीं अता-पता न था। हां, उसके कमरे से एक कागज का टुकड़ा मिला जिसे पढ़कर सब आश्चर्य से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उसमें लिखा था, ‘इंस्पेक्टर साहब, नमस्ते। मैं फिर भाग रहा हूं। आपके पुलिस वाले समझ गए होंगे कि मैं कितना खूंखार हूं, जरा बचके रहिएगा। …भारत माता का तुच्छ सेवक– शरद।’

बंगाली बाबू ने अपना माथा ठोक लिया, ‘बना बनाया खेल बिगड़ गया। कमबख्त ने फिर से चकमा दे दिया। महीनों की मेहनत पर पानी फिर गया।’

पुलिस निराश होकर लौट गई। हम भी उमाशंकर के साथ ललित के लिए आंसू बहाने लगे। ललित से हमें बेहद लगाव था। उसका यह काम देखकर मुझे आश्चर्य हुआ।

ललित के बाद स्वयंसेवक का जीता-जागता उदाहरण मुझे उमाशंकर ही में दिखाई दिया। एक दिन बैठे-बैठे ललित का ध्यान हो आया। आंखें भर आईं। उसकी स्मृति हो आई। इसी बीच उमाशंकर कमरे में आया। उसके हाथ में एक अंग्रेजी का अखबार था। चेहरा लाल हो रहा था, आंखें डबडबा रही थीं। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा, ‘ललित को आजीवन देश-निकाले का दंड दिया गया है। पिताजी, वह कातिल नहीं था, वह देश का सच्चा सेवक, स्वतंत्रता का पुजारी, सहृदय और सबसे प्रेम करने वाला मनुष्य था। उमाशंकर की बातें सुनकर मेरा हृदय दहल गया। आजादी के इन परवानों की वजह से ही आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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