असली शिवसेना
महाराष्ट्र में असली शिवसेना की दावेदारी के लिये लंबे चले विवाद के बाद विधानसभा स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद बागी विधायकों की अयोग्यता के मामले में फैसला शिंदे गुट के पक्ष में दे दिया है। विधानसभा अध्यक्ष ने साफ किया है कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना ही असली कहलवाने का हक रखती है। निस्संदेह, इससे शिंदे सरकार पर मंडरा रहा खतरा फिलहाल टल गया है। हालांकि, उद्धव गुट ने इस फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती देने का भी निर्णय किया है। दरअसल, महाराष्ट्र स्पीकर राहुल नार्वेकर ने दस जनवरी को राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील मामले में यह फैसला सुनाया था। हालांकि, शिंदे गुट इस मामले में खुद को पार्टी का असली वारिस बताकर जनता में भावनात्मक संदेश देने का प्रयास कर रहा है। वास्तव में स्पीकर के फैसले के बाद एक ओर जहां शिंदे मंत्रिमंडल के भविष्य को लेकर लगाये जा रहे कयासों पर विराम लगा है, वहीं 21 जून, 2022 में पार्टी विभाजन के बाद उत्पन्न हालात के बीच सोलह बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने तथा व्हिप का उल्लंघन पर कार्रवाई की मांग भी निष्प्रभावी हो गई है। निश्चित रूप से इस फैसले के बाद सरकार में शामिल शिंदे गुट व भाजपा ने राहत की सांस ली होगी। वहीं उद्धव ठाकरे गुट इस दौरान विधानसभा स्पीकर व मुख्यमंत्री की मुलाकात के मद्देनजर निर्णय की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है। ऐसे में निर्णय का विरोध करने और शीर्ष अदालत जाने की बात से लगता है कि इस विवाद का अभी पूरी तरह पटाक्षेप नहीं हो पाया है। ऐसे में माना जाना चाहिए कि जब आम चुनावों के साथ राज्य में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं तो निर्णायक फैसला जनता की अदालत से ही आएगा। वही तय करेगी कि असली शिवसेना शिंदे गुट की है या उद्धव ठाकरे की। यह भी कि राजनीतिक जोड़तोड़ ज्यादा प्रभावी होता है या जनता का दल के धड़े विशेष से भावनात्मक लगाव। कह सकते हैं कि जनादेश ही असली-नकली का फर्क मिटाएगा।
बहरहाल, महाराष्ट्र में शिवसेना के बागी विधायकों के मसले का भले ही तकनीकी रूप से समाधान होता नजर आता हो, लेकिन यह आने वाला वक्त बताएगा कि एक समय महाराष्ट्र की राजनीति व समाज में वर्चस्व रखने वाली शिवसेना का असली वारिस कौन होगा। ऐसे में भले ही उद्धव ठाकरे के हाथ से बाजी निकलती दिखाई दे रही हो, लेकिन यदि ठाकरे इस मुद्दे को भावनात्मक रंग देकर जनता की अदालत में पीड़ित के रूप में गुहार लगाते हैं तो तसवीर में बदलाव भी हो सकता है। विधानसभा स्पीकर ने चुनाव आयोग के फैसले को भी आधार बनाया है, जिसके चलते शिंदे गुट को मान्यता मिली है। जिसके मूल में शिवसेना का संविधान भी रहा है। दरअसल, 1999 में तैयार शिवसेना के संविधान में कहा गया था कि पार्टी प्रमुख का फैसला ही पार्टी का फैसला होगा। जिसके चलते शिंदे गुट को फायदा मिला और उद्धव गुट के हाथों से बाजी निकल गई। हालांकि, विभाजन के दंश से जूझ रही महाराष्ट्र की राजनीति में यही सवाल एनसीपी के विभाजन से भी उठा। जब एनसीपी के विधायकों का एक गुट पार्टी से अलग होकर सरकार में शामिल हो गया। शरद पवार के नेतृत्व वाले गुट ने पार्टी का खुद को असली दावेदार बताया। साथ ही सरकार में शामिल विधायकों को अयोग्य ठहराने की बात कही। आम चुनाव व विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटे महाराष्ट्र के राजनीतिक दलों में यह गहमागहमी आने वाले दिनों में और तेज होने की उम्मीद है। बहरहाल, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते पार्टी में विद्रोह व नये राजनीतिक समीकरण बनाना महाराष्ट्र की राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है। शिव सेना विभाजन विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियां राजनीतिक विद्रूपताओं का अक्स उकेर चुकी हैं। वक्त बताएगा कि शिवसेना के किस धड़े को राज्य की जनता का सकारात्मक प्रतिसाद मिलता है। यह भी कि महाराष्ट्र की राजनीति में बड़े खिलाड़ी की भूमिका निभाने वाली भाजपा शिवसेना के परंपरागत वोटों में किस हद तक सेंध लगाने में कामयाब होती है। दरअसल, सबसे पुराने गठबंधन में लंबे समय तक साथ रहे भाजपा व शिवसेना का एजेंडा व दक्षिणमार्गी जनाधार कमोबेश मिलता-जुलता रहा है।