विभाजन की टीस के बाकी हैं जो सवाल
अरुण नैथानी
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. चंद्र त्रिखा का जितना दखल पत्रकारिता में रहा है उतना ही साहित्य की विभिन्न विधाओं में। लेकिन विभाजन के दंश पर उनकी टिप्पणियां आधिकारिक हैं। विभाजन से जुड़े प्रसंगों और पाकिस्तानी प्रसंगों पर उन्होंने साधिकार कलम चलाई है। उन्होंने न केवल विभाजन की त्रासदी को उकेरते हुए कई पुस्तकें लिखी बल्कि समाचार पत्रों में भी वे इन विषयों के विभिन्न पहलुओं को जब-तब उकेरते रहे हैं। हाल में आई उनकी पुस्तक ‘विभाजन 1947 (75 वर्ष पहले)’ पाठकों तक पहुंची है।
लेखक साढ़े सात दशक पहले भारत विभाजन के भयावह सच उकेरते हैं। इसके लिये जिम्मेदार राजनीति, विभाजन की लकीर खींचने वाला संवेदनहीन व भारत-पाक के परिवेश से अनभिज्ञ रैडक्लिफ तथा रक्तपिपासु सांप्रदायिकता के सच से रूबरू कराने का प्रयास डॉ. त्रिखा करते हैं। लेखक ने पुस्तक को कितने रिफ्यूजी, विभिन्न शरणार्थी शिविर, तबाही के दोतरफ़ा मंजर, दशहत की गवाहियां, पाकिस्तान के मुसाफिर, पाकपटन, मीरपुर की चीखें, हजारों गुलाम अली,सेना का बंटवारा, कुछ पुराने चेहरे, बंटवारे की स्क्रिप्ट, विस्थापन की टीस, लाहौर बनाम अमृतसर, पश्चिमी पंजाब का विस्थापन एवं पुनर्वास आदि शीर्षकों के जरिये एक भयावह सच और उसके प्रभावों का विस्तृत विवेचन किया है। विभाजन की विसंगतियों का नग्न सच बताती कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ भी रचना का हिस्सा है। तो विभाजन की गलती का अहसास करते एक पाकिस्तानी के दर्द को बयां करता ‘वितृष्णा का दस्तावेज’ भी।
दरअसल, लेखक विभाजन का त्रास झेलने वाली पीढ़ी के दर्द को करीब से महसूस करते हैं। पारिवारिक लोगों व मित्रों के भोगे यथार्थ ने उनके सृजन को प्रामाणिक बनाया है। यही टीस उन्हें बार-बार इस विषय पर लिखने को बाध्य करती है। लेकिन साथ ही वे सवाल भी खड़ा करते हैं कि हम कब तक मजहबी-बंटवारे के बेताल को कांधे पर ढोते रहेंगे? क्या अतीत के स्याह अध्याय का पिंडदान नहीं हो सकता? सवाल उठाते हैं कि क्यों 75 साल के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप में पुरानी कड़वाहट को भुला पाना संभव नहीं हो पाया? साथ ही वे स्वतंत्र भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को पलीता लगाने वाले तंग दिल लोगों को भी चेताते हैं। वे चिंता व्यक्त करते हैं कि भूगोल बदलने के बावजूद कसक बाकी है।
लेखक मानते हैं कि भूगोल को फिर बहाल करने वाला कोई रिवर्स गियर नहीं होता। समझदारी इसी में है कि अतीत के स्याह पन्नों को भुलाकर सरोकारों की नई इबारत दर्ज की जाए। ताकि साझी संस्कृति की फुलकारी उधड़ती नजर न आए।
पुस्तक : विभाजन 1947 (75 वर्ष पहले) लेखक : डॉ. चंद्र त्रिखा प्रकाशक : अभिषेक पब्लिकेशन्ज, चंडीगढ़ पृष्ठ : 695 मूल्य : रु. 490.