नये जिलों के सृजन की तार्किकता का सवाल
कहने को ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’– एक बढ़िया और उपयुक्त नारा है। अन्य लोकप्रिय मुहावरा यह है कि भारत की शासकीय संरचना केवल तीन शक्तिशाली स्तंभों पर टिकी है : प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और जिलाधीश; जिसको लेकर आमतौर पर कहा जाता है कि पीएम-सीएम-डीएम नामक त्रिमूर्ति भारत का राजकाज चलाती है।
विभाजन के समय भारत में ज़िलों की संख्या सटीक रूप से ज्ञात नहीं है, लेकिन 1951 में स्वतंत्रता के बाद पहली जनगणना के समय कुल 402 जिले थे। ये जिले 27 राज्यों और 3 केंद्रशासित प्रदेशों (यूटी) में फैले हुए थे। नवीनतम आंकड़े के अनुसार, देश में 28 राज्य, 8 केंद्रशासित प्रदेश और 806 जिले हैं। इनमें 5 जिले हाल ही में लद्दाख में जोड़े गए हैं–जो कि सबसे नया केंद्रशासित प्रदेश है और जिसकी स्थापना 2019 में हुई है। अब इसके जिलों की संख्या 2 से बढ़कर 7 हो गई है।
देशभर के जिलों की संख्या साल 1951 में 402 थी व साल 1991 तक उसमें 74 नए जिले बनकर जुड़े। अगले दशक (1991-2001) में 117 नए जिले जोड़े गए, 2001 से 2011 के बीच इनकी संख्या 47 रही। पिछले 13 वर्षों में 166 नवीन जिलों का निर्माण हुआ है। साल 1951 में, आंध्र प्रदेश में 19 जिले थे और हैदराबाद सूबे में 17 जिले थे, आज आंध्र प्रदेश में 26 तो आंध्र प्रदेश से अलग होकर बने तेलंगाना में ही 33 जिले हैं। इसी तरह, असम में यह संख्या 13 से बढ़कर 35 हो गई, बिहार में 18 से 38, दिल्ली में 1 से 11, हिमाचल प्रदेश में 6 से 12, जम्मू-कश्मीर में 6 से 20, पंजाब में 12 से 23, ओडिशा में 13 से 30, राजस्थान में 21 से 50, उत्तर प्रदेश में 40 से 75 और पश्चिम बंगाल में संख्या 15 से 30 हो गई है।
राज्य पुनर्गठन अधिनियम-1956 लागू होने के बाद बनाए गए कुछ नए राज्यों का रिकॉर्ड चौंकाने वाला है। हरियाणा में 22 जिले हैं, जबकि 1966 में इसके निर्माण के समय 7 जिले थे। तेलंगाना की गिनती 10 से बढ़कर 33 हो गई है, उत्तराखंड में 9 से 13, झारखंड 18 से 24 और छत्तीसगढ़ में 16 से बढ़कर 33 जिले हो गए।
एक नए जिले का निर्माण, जो कि अनिवार्य रूप से एक प्रशासनिक इकाई होता है, लगता नहीं यह करते वक्त किसी भी तर्कसंगत सिद्धांत का पालन किया जाता है। जिला बनाने के लिए कोई परिभाषित भौगोलिक या जनसांख्यिकीय मानदंड नहीं हैं। भारत का सबसे बड़ा जिला कच्छ है, जिसका क्षेत्रफल 45,674 वर्ग किमी और जनसंख्या 20,92,371 है। सबसे छोटा जिला माहे है, जिसका क्षेत्रफल महज 8.69 वर्ग किमी. और जनसंख्या 41,816 है। आबादी के हिसाब से उत्तर 24 परगना सबसे बड़ा जिला है, जहां पर 1,00,09,781 लोग बसे हैं और कुल क्षेत्रफल 4,094 वर्ग किमी है, जबकि सबसे कम आबादी दिबांग घाटी की है जहां पर 8,004 निवासी हैं और 9,129 वर्ग किमी क्षेत्र है। अविभाजित लेह जिले की जनसंख्या 1,33,487 और क्षेत्रफल 45,110 वर्ग किमी था वहीं कारगिल की जनसंख्या 1,40,802 और क्षेत्रफल 14,086 वर्ग किमी था। अब कारगिल से काटकर द्रास और झांस्कार को जिला बनाया गया है और लेह को विभाजित कर चांगथांग, नुब्रा और शाम घाटी नामक जिले बनाए गए हैं।
यह सच है कि मूल लद्दाख जिला प्रशासन चलाने के लिहाज से अत्यंत विशाल था। कारगिल और लेह सांस्कृतिक रूप से अलहदा हैं। इस कारण 1979 में कारगिल को एक अलग जिले के रूप में रखा गया। छोटा किए जाने के बावजूद लेह जिला भौगोलिक दृष्टि से देश का दूसरा सबसे बड़ा जिला बना रहा। भारत में नए जिले का निर्माण आम तौर पर किसी वस्तुनिष्ठ मानदंड की बजाय राजनीतिक मांगों का परिणाम होते हैं। मसलन, लद्दाख के मामले में, कारगिल से अलग करके एक नया मुस्लिम बहुल जिला ‘सन्कू’ बनाने के लिए विरोध प्रदर्शन हुए, शायद इसलिए भी कि सर्दियों के दौरान यह इलाका अक्सर कारगिल से कटा रहता है। कारगिल से अलग करके एक नया जिला बनाने की इस किस्म की मांग झांस्कार के लोगों द्वारा भी की गई थी। यही बात लेह के सभी हिस्सों जैसे द्रास, चांगथांग, खालत्सी और तुरतुक के बारे में भी कही जा सकती है। हालांकि, क्या एक जिले का दर्जा देने की मांग के पीछे महज एक नई प्रशासनिक इकाई बनाने वाला औचित्य काफी है, जबकि इससे राजकोष पर काफी वित्तीय बोझ पड़ता है। एक नया जिला बनते ही अतिरिक्त कर्मी, नए कार्यालय और आवासीय भवनों का निर्माण जरूरी हो जाता है। नया जिला आम तौर पर उपखंड मुख्यालय को अपग्रेड कर बनाया जाता है, साथ ही पुलिस अधीक्षक और अन्य जिला-स्तरीय कार्यालय जैसे सहायक तंत्र की स्थापना करनी पड़ती है। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं क्योंकि संलग्न कार्यालय बनने में लंबा वक्त लगता है। कभी-कभी, बजटीय बाधाओं के कारण सभी विभागीय कार्यालयों के अपग्रेडेशन की न तो जरूरत होती है और न ही यह संभव है।
मुख्य बिंदु यह है कि नया जिला बनने से जिलाधिकारी को अधिकारों का कोई बहुत बड़ा हस्तांतरण नहीं होता। इसलिए, यह समझना कठिन है कि यदि एक अधिकारी एक बड़े क्षेत्र को वर्तमान शक्तियों के साथ प्रभावी ढंग से प्रशासित नहीं कर पाया तो वह पूर्ववत शक्तियों के साथ एक छोटे क्षेत्र का कामकाज अधिक प्रभावशाली ढंग से कैसे कर पाएगा। यह शायद उस समय उचित था जब भौगोलिक दूरी से काम में देरी हुआ करती थी, लेकिन एक बृहद कार्यात्मक संचार नेटवर्क के अतिरिक्त प्रौद्योगिकी-संचालित शासन तंत्र के युग में, निर्णय का अधिकार सौंपना अधिक उपयुक्त हो सकता है, जैसा कि दूर-दराज के बर्फीले जिलों में किया जाता है, जब वे दुर्गम बन जाते हैं, और निर्णय लेने वाली ऐसी प्रणाली विकसित करना जो स्थानीय स्तर पर उच्च अधिकारियों की भौतिक उपस्थिति पर निर्भर न हो।
मुझे नहीं पता कि नई प्रशासनिक इकाइयों के निर्माण के लिए वस्तुनिष्ठ मापदंड निर्धारित करना संभव है या नहीं। मुझे यह भी पक्का नहीं है कि क्या हम व्यवहार्य जिले की अवधारणा विकसित कर सकते हैं। पिछले कुछ दशकों में बनाए गए जिलों का लागत-लाभ विश्लेषण करने की आवश्यकता है। एक नया जिला अधिक निर्माण और शहरीकरण को बढ़ावा देता है, लेकिन इससे क्या शासन और पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार हुआ है? उदाहरण के लिए,यह एक विवादास्पद मुद्दा है कि लद्दाख, जिसका प्रशासन पहले एक जिलाधीश द्वारा चलाया जाता था और वहां एक सशक्त स्वायत्त निर्वाचित परिषद थी, उसका कामकाज एक लेफ्टिनेंट गवर्नर, एक मुख्य सचिव, आधा दर्जन सचिवों और अन्य विभागों के समकक्ष उच्च अधिकारियों वाले निज़ाम में क्या अब अधिक बेहतर ढंग से चल रहा है? और क्या यह सब पारिस्थितिकीय रूप से नाजुक इस क्षेत्र के विकास की गुणवत्ता में सुधार लाया है।
जब मेरी बेटी कुछ साल पहले लेह की जिलाधीश थी, तो अक्सर मजाक में कहा करती थी कि जिस जिले की वह मुखिया है, वह पूरे हरियाणा राज्य से भी बड़ा है। लेह शहर से किसी भी दिशा में पांच घंटे का सफर करने के बावजूद आप उसी जिले में बने रहेंगे, जबकि हरियाणा के केंद्र से मात्र तीन घंटे की यात्रा आपको राज्य की सीमाओं से बाहर ले जाएगी! नई प्रशासनिक इकाइयां बनाने की सनक मुझे उस समय की याद दिलाती है जब हम 1981 में हरियाणा में प्रशिक्षु थे। हममें से एक हिसार जिले में तैनात था, जिसके अंतर्गत एक गांव आदमपुर था, उसे एक ब्लॉक मुख्यालय के तौर पर अपग्रेड किया गया था क्योंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री उस जगह से थे। हिसार के जिलाधीश जोकि मेरे बैचमेट थे, मजाक में कहा करते थे कि एक दिन वे आदमपुर डिवीजन के डिवीजनल कमिश्नर के रूप में सेवानिवृत्त होंगे। हालांकि वह भविष्यवाणी सच नहीं हुई, लेकिन कौन जानता है कि ‘अधिकतम सरकार’ का लालच कितनी दूर तक जाएगा।
लेखक पूर्व चुनाव आयुक्त हैं।