उखड़े भारतवंशियों के पुनर्वास का प्रश्न
आज की तारीख़ में अफगानिस्तान के हालात बद से बदतर हो चुके हैं। मज़ार ए-शरीफ शहर को तालिबान संपूर्ण कब्ज़े में ले, उससे पहले मंगलवार को भारतवंशियों को विमान के ज़रिये दिल्ली ले आने का इंतज़ाम कर लिया गया था। मज़ार ए-शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास अस्थाई रूप से बंद कर दिया गया है। विशेष विमान के ज़रिये शेष शहरों में रह रहे भारतीयों को सुरक्षित लाने के प्रयास किये जा रहे हैं। अफग़ान सरकार के कब्ज़े में बमुश्किल 20 फीसद इलाके रह गये हैं। इन्हें बचाकर रखना अब असंभव-सा लगने लगा है। हर रोज़ क़ब्ज़े की नई कहानी। ‘पांच दिनों में नौ प्रांतीय राजधानी पर तालिबान का कब्ज़ा’, यह बुधवार को अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की हेडलाइन है। दोहा में अमेरिका के विशेष दूत जलमय ख़लिज़ाद तालिबान नेताओं से सीज़फायर की लगातार अपील कर रहे हैं। मगर, 80 फीसद हिस्से पर कब्ज़ा कर चुके तालिबान अब उनकी क्यों सुनें? वो क़ाबुल में आखिरी क़ील ठोकेंगे, और देश में तालिबान शासन की घोषणा हो जाएगी।
वर्ष 1990 मंे संविधान संशोधन के ज़रिये इस देश को ‘रिपब्लिक ऑफ अफग़ानिस्तान’ नामित किया गया था। 1989 में सोवियत फोर्स के जाने और 1992 आते-आते मुज़ाहिद्दीन के हाथों में सत्ता आने के बाद इसका नामकरण हुआ ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ अफग़ानिस्तान’। 1996 से दिसंबर 2001 तक तालिबान सत्ता में रहे, संविधान को यथावत रहने दिया। जो उनके सुप्रीम लीडर के मुंह से निकलता, वही संविधान होता। अमेरिका के समर्थन से जो मिलीजुली सरकार दिसंबर, 2001 के बाद बनी, उन्होंने जनवरी, 2004 में नये संविधान को लागू किया। तालिबान यदि दोबारा सत्ता में आये, तो संविधान का क्या करेंगे? इस सवाल को भविष्य के हवाले करते हैं।
भारत वैसे भी शरणार्थियों का समंदर है, अफग़ानिस्तान से जो आ रहे हैं, वे तो अपने हैं। 1980 से पहले इसी अफग़ानिस्तान में सिखों व हिंदुओं की संख्या दो लाख 20 हज़ार थी। अकेले काबुल में 20 हजार सिख रह रहे थे। क़ाबुल, जलालाबाद, ग़ज़नी, कंधहार, हेरात जैसे नगरों में सिख कई पीढ़ियों से रह रहे थे। इनका उजड़ना 1980 के सोवियत-अफग़ान युद्ध से आरंभ हुआ। 1990 में अफगान सिविल वार के शुरू होने और 1992 में नज़बुल्ला शासन की समाप्ति तक आतताइयों ने देशभर में दर्जनों गुरुद्वारे तोड़ डाले, तब अफग़ानिस्तान में 50 हज़ार सिख रह गये थे। मगर, उनका पलायन तेज़ी से शुरू हो गया। सिर्फ़ काबुल में आठ में से, सात गुरुद्वारों को फसादियों ने नष्ट कर दिया, अब एकमात्र ‘गुरुद्वारा करते परवान’ बचा हुआ है।
1990 में वर्ल्ड बैंक व दूसरी एजेंसियों के माध्यम से सर्वे हुआ था, उसमें भारतवंशियों की संख्या 45 हज़ार बताई गई। 2015 में अफ़ग़ानिस्तान में कुल जमा 3106 प्रवासी भारतीय अफग़ानिस्तान में रह गये थे। इनमें एनआरआई (नॉन रेजीडेंट इंडियन) 3087 और पीआईओ (पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन) की संख्या 19 है। ये आंकड़े भारतीय विदेश मंत्रालय ने संभवतः 2016 से पहले पीडीएफ फाइल के ज़रिये जारी किये होंगे, क्योंकि इसमें साल और तारीख़ नहीं है। अक्तूबर, 2017 की एक और पीडीएफ फाइल दिखी, जिसमें केवल महीना और साल लिखा है। उसमें जानकारी दी गई है कि केवल 2500 भारतीय इस देश में हैं, जिनमें से 850 दूतावास में रजिस्टर्ड हैं। दूतावास के संज्ञान में जो 2500 भारतवंशी अफग़ानिस्तान में हैं उनमें बैंक, कन्सट्रक्शन कंपनी, सिक्योरिटी कंपनी, विश्वविद्यालयों, एनजीओ, भारत सरकार की परियोजनाओं, टेलीकॉम, आईटी सेक्टर में कार्यरत लोग हैं।
28 जुलाई, 2020 को इंडियन एक्सप्रेस ने क़ाबुल स्थित ‘गुरुद्वारा करते परवान’ के अधिकारी छाबोल सिंह के हवाले से बयान छापा कि अफग़ानिस्तान में मात्र 90 से 100 परिवारों के 650 सिख और 50 के आसपास हिंदू रह गये हैं। इनमें ज़्यादातर खत्री सिख हैं, जो सूखे मेवे, कालीन, मसालों के कारोबार में कई पुश्तों से लगे हुए हैं। हिंदू भी कारोबारी रहे हैं, अथवा नौकरी कर दिन गुज़ार रहे थे। जो लोग अफ़गानिस्तान छोड़कर भारत लौट आये, क्या वो खुशहाल हैं?
हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में कोई 18 हज़ार अफग़ान सिख रह रहे हैं। इन इलाक़ों में वहां से उजड़े पांच हज़ार के क़रीब हिंदू भी भारत में हैं। इनके पुरसेहाल को जानने-समझने के वास्ते गूगल-फेसबुक के पेज नहीं, ज़मीन पर उतरना होगा। आप केवल दिल्ली लाजपतनगर में बनी ‘अफग़ान कालोनी’, भोगल, मालवीय नगर, आश्रम, ज़ाकिरनगर, तिलकनगर का मुआयना कर आइये। पंजाब, हरियाणा, जम्मू-पठानकोट जैसी जगहों, क़स्बों या बड़े शहरों में उन्हें बाद में ढूंढि़येगा।
मुश्किल यह है कि कोरोना के इस दौर में अफग़ानिस्तान के भारतवंशी शरणार्थी यूरोप-अमेरिका भी नहीं जा सकते। फिलहाल, उनके लिए भारत सरकार द्वारा उपलब्ध विमान के ज़रिये देश लौट आना एकमात्र विकल्प रह जाता है। यह मंथन करने की ज़रूरत है कि 1980 के पहले अफग़ानिस्तान में जो दो लाख के लगभग भारतवंशी रहते थे, उनमें से अधिकांश परिवारों ने इस देश में वापस लौटने को प्राथमिकता क्यों नहीं दी? क्या शुरू से भारत में शरणार्थी नीति नौकरशाही, और सरकारी उपेक्षा की शिकार रही? जर्मनी और ब्रिटेन में ऐसे कई अफग़ान परिवार मुझे मिले, जो झाड़ू-पोछा लगाने, दिहाड़ी मज़दूरी, रेस्टोरेंट में काम करने के बावज़ूद ख़ुश दिखे, मगर भारत लौटना उन्हें पसंद नहीं था। हम चाहे लाख राष्ट्रभक्ति-वतनपरस्ती की सौगंध उन्हें देते रहें। उनका कहना है कि भारत में शरणार्थियों की जो बदतर हालत है, वैसा जीने से अच्छा पश्चिमी देशों में पोछा लगाना। उत्तर अमेरिका से लेकर यूरोपीय देशों में प्रवासी अफग़ानों के जितने भी फोरम बने हैं, वहां यह चर्चा छेड़ें, यक़ीन मानिये शत प्रतिशत लोग यही बात कहेंगे।
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय (यूएनएचसीआर) में 2019 के आखिर तक भारत में 40 हज़ार शरणार्थी रजिस्टर्ड थे, उनमें 11 हज़ार अफग़ान शरणार्थी थे। दिक्कत सीएए के उन अनुच्छेदों को लेकर है, जिसमें भारत सरकार अफग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश से विस्थापित केवल हिंदू, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध व ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने का भरोसा देती है।
अफग़ान शरणार्थियों की संख्या को लेकर अपने देश में जो कन्फ्यूज़न है, वह देखकर हैरानी होती है। दिसंबर, 2019 में शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने दावा किया था कि पिछले 40 वर्षों में 75 हज़ार सिख अफग़ानिस्तान से विस्थापित होकर आये। वर्ष 2001 की जनगणना में अफग़ानिस्तान से आये शरणार्थियों की संख्या 9194 बताई जाती है, 2011 में यह घटकर 6476 पर आ जाती है। इसमें सिख और दूसरे समुदाय के लोग भी शामिल होते हैं। 13 फरवरी, 2019 को तत्कालीन गृह राज्यमंत्री किरण रिजुजू ने राज्यसभा को सूचित किया था कि 2016 से 2018 के बीच 391 अफग़ान शरणार्थियों को नागरिकता दी गई थी। ये तो ऊंट के मुंह में जीरा समान हुआ!
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक हैं।