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लैंगिक समानता व मानवाधिकारों का प्रश्न

12:01 PM Jul 06, 2022 IST

सोनम लववंशी

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अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाओं के लिए गर्भपात कानून में बदलाव करने का निर्णय लिया है। इसके तहत पांच दशक पुराने गर्भपात कानून पर रोक लगा दी गई। अब अमेरिका में 50 साल पुराना संवैधानिक संरक्षण समाप्त हो गया। साथ ही अमेरिका के सभी राज्य गर्भपात को लेकर अपने नियम खुद बना सकेंगे। इस फैसले के बाद सम्भवतः अमेरिका के कुछ राज्यों में गर्भपात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लग जाएगा। देखा जाए तो यह फैसला कहीं न कहीं महिलाओं के लैंगिक समानता और मानवाधिकार के ख़िलाफ़ है।

अमेरिका में 1973 के रो बनाम वेड मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात को संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया था। अमेरिका गर्भपात का अधिकार वापस लेने वाला पहला देश बन गया है। पिछले 25 साल में अमेरिका ने गर्भपात को लेकर कानूनों में कई बदलाव किए। लेकिन, तीन देश ही ऐसे हैं जहां गर्भपात को कठिन बनाने के लिए कड़े नियम कानून बनाए गए हैं। दुनिया में आज भी 67 देश ऐसे हैं जहां गर्भपात कराना बहुत ही आसान है। इन देशों में बिना वजह बताए सरलता से गर्भपात कराया जा सकता है। दुनिया के अधिकतर देशों में शुरुआती तीन महीनों में गर्भपात कराना गैर-कानूनी नहीं माना गया। जबकि, 26 देश तो ऐसे हैं, जहां गर्भपात कराना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। फिर चाहे मां या बच्चे की जान पर ही बात क्यों न आ जाए।

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बात भारत की करें तो हमारे देश में गर्भपात को लेकर कोई सख्त नियम नहीं है। भारत में सुरक्षित गर्भपात कराना कानूनी अधिकार है। हमारे देश में गर्भपात के लिए ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971’ में बना था। इसके बाद 2021 में इस एक्ट में कुछ सुधार किए गए। इसके साथ ही कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को मेडिकल गर्भपात का प्रावधान 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह कर दिया गया है। संशोधित कानून के तहत दुष्कर्म पीड़िता या नाबालिग लड़की 24 हफ्ते तक गर्भपात करा सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, हर साल 2.5 करोड़ असुरक्षित गर्भपात होते हैं, जिसमें करीब 37 हजार महिलाओं की मौत तक हो जाती है। वैसे गर्भपात पर प्रतिबंध लगा देने मात्र से गर्भपात के आकंड़े कम नहीं होंगे, बल्कि गैरकानूनी तरीके से गर्भपात कराने के आंकड़े जरूर बढ़ जाएंगे।

एक अनुमान के मुताबिक कोरोना महामारी के पहले साल ही 14 लाख महिलाएं अनचाहे गर्भ का शिकार हो गई थीं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक रिपोर्ट में भी इस बात का खुलासा हुआ कि दुनिया में हर साल 12.1 करोड़ से ज्यादा महिलाओं को अनचाहे गर्भधारण का सामना करना पड़ता है। यहां अनचाहे गर्भधारण से आशय है, महिलाओं को उनकी मर्जी के बिना गर्भवती कर दिया जाना। कई बार जबरदस्ती, कई बार वे मज़बूरी में शिकार बन जाती हैं तो कई बार युद्धकाल की भेंट चढ़ना पड़ता है। ऐसे में देखा जाए तो गर्भपात पर प्रतिबंध लगना जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।

बात अगर भारत के बारे में की जाए, तो आज भी हमारे समाज में महिलाओं के पास अपनी इच्छा से गर्भवती होने या न होने का कोई विकल्प नहीं है। वे इतने सामाजिक और आर्थिक बंधनों में जकड़ी हैं कि इस दिशा में वे सोच ही नहीं पातीं। इस बात के पक्ष में कभी कोई महिला आंदोलन भी खड़ा नहीं हुआ।

ऐसे में सवाल उठता है कि अनचाहे गर्भ के लिए क्या महिलाएं ही जिम्मेदार हैं! क्या पुरुषों की कोई जवाबदेही नहीं बनती। वैसे हमारे पुरुष प्रधान समाज में अनचाहे गर्भ के लिए महिलाओं को ही क्यों जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। अगर कोई लड़की गर्भवती हो जाए, तो समाज उसे हीनभावना से देखता है। जबकि, कोई उस लड़के को गलत नहीं समझता, जो इस कृत्य में सबसे बड़ा भागीदार होता है। ऐसे में यह दोयम दर्जे की मानसिकता कब तक पल्लवित होती रहेगी! अनचाहे गर्भधारण की वज़ह से अनगिनत समस्याओं का सामना महिलाएं तो करती ही हैं। अगर उन्हें ही इसके लिए कसूरवार हर बार ठहराया जाता रहा तो यह कतई उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसी परिस्थितियों में गर्भपात करने का अधिकार महिलाओं से नहीं छीना जाना चाहिए। ये सच है कि गर्भपात कराने का सीधा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में अनचाहे गर्भ को रोकने के लिए महिलाओं को जागरूक करना जरूरी है।

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों की मानें तो दुनिया में 64 देशों में 23 प्रतिशत महिलाएं यौन संबंध बनाने के लिए अपने साथी को इंकार तक नहीं कर पातीं! इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि 21वीं सदी में महिलाओं की स्थिति क्या है! वर्तमान दौर में हमारे समाज में महिलाओं को यौन हिंसा, लैंगिक असमानता व गरीबी की वजह से भी अनचाहे गर्भ का सामना करना पड़ता है। बात अनचाहे गर्भधारण की करें तो इसकी सबसे बड़ी वजह जानकारी का अभाव होना है। 21वीं सदी में भी महिलाओं को यौन सम्बधों की सही जानकारी नहीं होना, आधुनिक समाज के लिए दुखदाई है। भले ही कहने को दुनिया में यौन शिक्षा का प्रचलन बढ़ रहा है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके लिए हमें अभी लम्बा सफर तय करना होगा।

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प्रश्नमानवाधिकारोंलैंगिकसमानता