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गारंटी में शामिल हो खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता भी

07:39 AM May 15, 2024 IST
गारंटी में शामिल हो खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता भी
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देविंदर शर्मा
स्ले इंडिया के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक सुरेश नारायणन द्वारा बेबी फूड फॉर्मूलेशन में चीनी की अधिक मात्रा के आरोपों को ‘नस्लीय तौर पर रूढ़िबद्ध धारणा’ और असत्य के रूप में नकारने को संदेहास्पद के तौर पर ही लिया जाना चाहिए। मीडिया में उनके हवाले से कहा गया कि पोषण पर्याप्तता अध्ययन करने के लिए कोई स्थानीय दृष्टिकोण नहीं है। विश्व स्तर पर उम्र के हिसाब से व्यंजन तैयार किए गए हैं जहां बढ़ते बच्चों को ऊर्जा सघन उत्पादों की आवश्यकता होती है। इसलिए यूरोपीय बच्चे और भारत या दुनिया के किसी अन्य हिस्से में एक बच्चे के बीच भेद नहीं किया जाता है।
नारायणन स्विटजरलैंड स्थित एनजीओ थर्ड आई और इंटरनेशनल बेबी फूड एक्शन नेटवर्क (आईबीएफएएन) की रिपोर्ट में कंपनी पर दोहरे मानदंड अपनाने संबंधी आरोपों के बारे में प्रकाशित समाचारों पर प्रतिक्रिया दे रहे थे। जिसके मुताबिक यूरोप में बेचे जाने वाले उत्पादों की तुलना में भारत व विकासशील देशों में बेचे जाने वाले शिशु-आहार अनाजों (सेरेलैक) में चीनी की उच्च मात्रा विद्यमान है।
‘भारत में हमें आवश्यकता है, यही कारण है कि हमने इसे शामिल किया है, लेकिन उन स्तरों पर जो स्थानीय नियामक द्वारा निर्दिष्ट की तुलना में भी बहुत कम हैं और मुझे लगता है कि किसी को भरोसा रखना होगा कि स्थानीय नियामक जानता है कि क्या है जो हम वहां डाल रहे हैं। इसलिए ऐसा नहीं है कि मानकों में यह कोई नाटकीय बदलाव किया गया है।’ वे कहते हैं कि ‘मातृ आहार की कुछ आदतों, कच्चे माल की स्थानीय उपलब्धता व स्थानीय नियामक की जरूरतों जैसी अलग-अलग धारणाओं’ के आधार पर फॉर्मूलेशन को स्थानीय रूप से उत्पाद में ढाला जाता है।’
इस बयान के जरिये जो कुछ भी कहा गया है यदि वह सच है, तो कोई कारण नहीं दिखता कि उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय को नियामक एजेंसी - भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) को नेस्ले के खिलाफ ‘उचित कार्रवाई’ का निर्देश देना चाहिए था। निर्देश के बाद, एफएसएसएआई ने नेस्ले बेबी फूड उत्पादों की संरचना से संबंधित विवाद की जांच पहले ही शुरू कर दी है। और मैं यहां यह भी जोड़ना चाहूंगा, आरोपों की जांच के लिए सख्त निर्देश के बावजूद यकीन नहीं है कि वादे के मुताबिक जांच अपने तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचेगी।
यदि एफएसएसएआई ने पहले तो अपने कड़े मानक तय करने में सख्ती से काम लिया होता, फिर इसके साथ ही कड़ाई से इनको लागू किया होता, तो कोई भी विशाल खाद्य कंपनी भारतीय बाजार को इतने हल्के रूप में न लेती। मैं यहां उस बयान को दोहरा रहा हूं- आरोपों के खंडन संबंधी नेस्ले का वह बयान स्वयं ही स्पष्ट तौर पर दोषों को उजागर करता है जब वह कहता है, ‘भारत में हमें आवश्यकता है, यही कारण है कि हमने इसे मिलाया है, लेकिन उन स्तरों पर जो यहां तक ​​कि स्थानीय नियामक द्वारा निर्दिष्ट स्तर से भी बहुत कम हैं।’ यदि आप इस कथन को देखें, तो यह सवाल तुरंत उठता है कि भारत में ऐसी आवश्यकता कहां है जिसने कंपनी को शिशु आहार में चीनी की ज्यादा मात्रा डालने के लिए प्रेरित किया? बेबी फूड कंपनियों को भारत में बेचे जाने वाले अपने उत्पादों में अधिक चीनी मिलाने के लिए आखिर कहा किसने है? मैंने भारत में पोषण संबंधी संस्थाओं का कोई अध्ययन या रिपोर्ट ऐसी नहीं देखी जो शिशु आहार में ऊर्जा प्रदाता के तौर पर ज्यादा मात्रा में चीनी मिलाने की जरूरत बताता हो।
वहीं, नेस्ले का कहना है कि उसने प्रति 100 ग्राम फ़ीड में केवल 7.1 ग्राम चीनी डाली है, और वह भी एफएसएसएआई द्वारा निर्धारित 13.6 ग्राम की स्वीकार्य सीमा के मुकाबले बहुत कम, यह बयान मामले का एक और गंभीर पहलू उजागर करता है। इससे पता चलता है कि एफएसएसएआई के मानक कितने ढीले हैं, जिससे एक हाथी को भी गुजरने की इजाजत मिल जाती है। एफएसएसएआई को वह डेटा जारी करने के लिए कहा जाना चाहिए जिसके आधार पर उसने शिशु आहार में चीनी की स्वीकार्य सीमा निर्धारित की है। एफएसएसएआई को इससे बच निकलने नहीं दिया जा सकता है। एफएसएसएआई ने मानक तय करने के लिए 26 वैज्ञानिक समितियां गठित की हैं और फिर भी यदि मानदंडों में इतनी ढील दी गई है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि 'हितों का टकराव' अक्सर चर्चा की तुलना में कहीं अधिक बड़ा है।
जैसा कि वरिष्ठ विज्ञान टिप्पणीकार दिनेश सी शर्मा कहते हैं : ‘वर्षों से, उपभोक्ता समूह और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ उच्च नमक, चीनी और वसा वाले खाद्य उत्पादों के लिए एक अलग हेल्थ लेबल की मांग कर रहे हैं, लेकिन खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण और उद्योग ने लगातार इसका विरोध किया है। दूसरी ओर, नियामक अकसर उद्योग की मांगों को पूरा करने और यहां तक ​​कि उनके उत्पादों का समर्थन करने में भी तत्पर रहता है, जो कि उसके लिए अनिवार्य नहीं है।' इससे पता चल जाता है कि कार्पोरेशंस सार्वजनिक नीति को कैसे प्रभावित करते हैं।
हालांकि हरेक व्यक्ति को चीनी के सेवन के प्रति सचेत रहना महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका अधिकांश हिस्सा प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में छिपा रहता है। यहां तक ​​कि एक सजग उपभोक्ता के लिए भी अतिरिक्त चीनी की पहचान करना मुश्किल होगा। चूंकि कई अध्ययनों से पता चला है कि चीनी के लिए कम से कम 56 अलग-अलग नाम हैं जो आम तौर पर उपभोक्ताओं को धोखा देने के लिए उपयोग किए जाते हैं, लेकिन कम से कम एफएसएसएआई को इन्हें पढ़ने में सक्षम होना चाहिए और इससे होने वाले नुकसान को जानते हुए इसके उपयोग को काफी हद तक प्रतिबंधित करना चाहिए। यहां मैं केवल मधुमेह के बारे में बात नहीं कर रहा हूं जिसके होने के जोखिम कारकों में बहुत अधिक चीनी का सेवन जुड़ा है, बल्कि जैसा कि जर्नल ऑफ डर्मेटोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि आनुवंशिक कारकों के अलावा, यहां तक ​​​​कि चीनी आधारित मीठे पेय भी पुरुषों में बालों के झड़ने की वजह बन सकते हैं। यह सब किस दिशा में लेकर जायेगा खासकर तब जब पिछले कुछ सालों से जंक फूड की खपत में भारी उछाल देखा जा रहा है? यदि एफएसएसएआई एक सख्त नियामक के रूप में उभर सकता है, तो औसत उपभोक्ता सुपरमार्केट से जो कुछ भी खरीद रहा है उसके प्रति संतुष्ट हो जाएगा, यह जानने के चलते कि यह सुरक्षित और हेल्दी है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। उपभोक्ताओं का एक प्रमुख वर्ग जानता है कि वह जो प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ खरीद रहा है वह स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, लेकिन उसके पास विकल्प बहुत कम हैं। वैश्विक अध्ययनों से हमें पता चला है कि भारत, और छह अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं, में उपलब्ध 89 प्रतिशत प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के हिसाब से सही नहीं हैं।
हम पहले ही ऐसी स्थिति में हैं जहां बालपन में भूख के मुकाबले इस उम्र का मोटापा बड़ी समस्या बनने जा रहा है। दूसरी ओर, भारत पहले से ही वयस्कों में मोटापे के मामले में शीर्ष पांच देशों में शामिल है। रिपोर्टों में कहा गया है कि अनुमानित रूप से 135 मिलियन भारतीय या तो मोटे हैं या फिर अधिक वजन वाले हैं। बेशक, इसके लिए पूरी तरह से खान-पान संबंधी आदतें और उपभोग जिम्मेदार नहीं हैं, लेकिन भोजन की गुणवत्ता को नियंत्रित करने का ‘चलता है’ वाला रवैया अधिक से अधिक लोगों को इस जंजाल में धकेल रहा है। तत्काल आवश्यकता एफएसएसएआई को एक ऐसी संस्था में बदलने की है जिस पर देश भरोसा कर सके। इसके लिए भले ही मौजूदा ढांचे में बदलाव की बात आये, तो हमें यह करना ही होगा। देश को इसी गारंटी की आवश्यकता है।

लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।

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