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औपनिवेशिक विभाजन के मंसूबों को हवा

06:54 AM Dec 12, 2023 IST
औपनिवेशिक विभाजन के मंसूबों को हवा
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बृज किशोर कुठियाला

भारत के जनमानस में रंग, जाति, क्षेत्र और प्रांत के आधार पर भेद उत्पन्न करने के प्रयास वर्षों से होते रहते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय विमर्श में दक्षिण भारत व उत्तर भारत की अलग-अलग पहचान व व्यवहार का विषय उभर कर आया है। ऐसे प्रयासों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। देश को उत्तर-दक्षिण में बांटने का सुनियोजित प्रयास अठारहवीं शताब्दी में हुआ।
यूरोप के कुछ इतिहासकारों ने उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के उत्तर व दक्षिण में भेद उत्पन्न करने की मंशा से ये तर्क दिये कि मध्य एशिया से कई कबीलों ने उत्तर भारत पर आक्रमण किए और वहां के लोगों को दक्षिण में खदेड़ दिया। इन काल्पनिक विदेशी कबीलों को नाम दिया आर्य। पुरातत्व के अपुष्ट प्रमाण देते हुए मार्टिमर व्हीलर के इस भ्रम को सच बनाने का प्रयास हुआ कि मोहनजोदड़ो व हड़प्पा संस्कृतियों को इन आर्यों ने नष्ट किया। मैक्स मूलर ने भी पहले तो इस असत्य को प्रचारित किया, बाद में स्वयं स्वीकारा कि उसने और उसके साथियों ने ग़लत इतिहास गढ़ा था क्योंकि व्हीलर के प्रस्ताव में समय के आंकलन का दोष था। दरअसल, गढ़े प्रमाणों से कहीं भी सिद्ध नहीं होता कि उत्तर भारत से जनसंख्या का दक्षिण की ओर पलायन हुआ हो।
दरअसल, यूरोप के विद्वानों ने ऐसा इसलिए किया, जिससे ब्रिटेन के भारत पर क़ब्ज़े को सही ठहराया जा सके। तर्क दिया कि भारतीय भी बाहर से आए, मुस्लिम भी बाहर से आए- इसलिए अब हमारा इस भूमि पर राज करना तार्किक है। कालांतर में पुरातन शोध, भाषाओं के इतिहास व बाद में जीन-पूल के अध्ययनों ने आर्यों के बाहर से आने की बात को समूल ग़लत सिद्ध कर दिया। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक दृष्टि से यह स्थापित है कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप एक ही मानव नस्ल है। स्वाधीनता के बाद तो दक्षिण-उत्तर की एकता व एकात्मकता और भी स्पष्ट और सुदृढ़ हो गई। आज दुनियाभर के निष्पक्ष इतिहासकार आर्य शब्द को संज्ञा न मानकर इसे संस्कृत भाषा का विशेषण बताते हैं जिसका अर्थ है श्रेष्ठ व्यक्ति। अंग्रेजों की इस चाल के चलते द्रविड़ भारत की अलग पहचान पर बहुत राजनीति हुई।
पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में द्रविड़ अभियान ने दक्षिण के भारतीयों को फिर से भ्रमित करने का प्रयास किया परन्तु कुछ ही समय में जनमानस ने उसे नकार दिया। साथ ही सिद्ध किया कि भारत के समस्त लोक का मन तो एक ही है। आजकल नये तर्कों व कुतर्कों के साथ दक्षिण-उत्तर भेद को राजनीतिक मुद्दा बनाने का फिर से प्रयास हो रहा है। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर या केवल गढ़े हुए झूठ के सहारे भ्रम फैलाने का प्रयास है। कहा गया है कि उत्तर भारत के लोग जीवनयापन के लिए दक्षिण में आते हैं। यह सच्च हो सकता है कि सारे देश से लोग बेंगलुरू, हैदराबाद आदि स्थानों पर काम के लिए जाते हैं परन्तु उससे अधिक तो केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक व तेलंगाना से उत्तर, पश्चिम, पूर्व व मध्य भारत में जाते हैं। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता में तो दक्षिण भारतीय समाजों की अपनी-अपनी पहचान है। यह मानना कि दक्षिण में कार्यरत उत्तरी भारत के लोगों ने चुनाव में निर्णयात्मक भूमिका निभाई, अपने आप में हास्यास्पद है।
एक अन्य राजनीतिक वक्तव्य में उत्तर भारत के लोगों को गाय का मूत्र पीने वाला बताया गया। गोमूत्र के प्रयोग को किसी भौगोलिक क्षेत्र से जोड़ना हास्यास्पद तो है ही परन्तु कहने वालों के दक्षिण भारतीयों के विषय में अज्ञान को भी झलकाता है। गाय के प्रति दक्षिण के लोगों के वही भाव हैं जो उत्तर भारत के जनमानस में। दक्षिण में गोशालाओं की भरमार है और गाय के मूत्र, गोबर आदि से बने उत्पादों का बहुत बड़ा बाज़ार है। तिरुपति के देवस्थान पर भी गाय के दूध, दही, मूत्र, गोबर व घी से 85 आयुर्वेदिक दवाइयां बनती हैं। हां, ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो अपने मज़हबी विश्वास के आधार पर या अन्यथा गाय को पवित्र नहीं मानते, परन्तु यह लोग तो पूरे देश में हैं, केवल दक्षिण में हों, ऐसा नहीं है। जो भेद चुनींदा राजनीतिज्ञ सिद्ध करना चाह रहे हैं वह शासन, प्रशासन, सेना, निजी क्षेत्र में कहीं भी दिखता नहीं है। काल्पनिक और गढ़े हुए झूठों के सहारे लोक के मन को भ्रमित करना यदि अपराध नहीं तो अनैतिक व शरारतपूर्ण तो है ही।
एक हास्यास्पद विमर्श बनाने का विषय यह भी है कि दक्षिण के मतदाता अधिक समझदार और परिपक्व हैं। आम विवेक की बात है कि राजनीतिक समझ जाति, नस्ल, क्षेत्र व प्रांत के अनुसार तो हो नहीं सकती। एक नया विवाद तेलंगाना में बिहार के प्रवासियों से सम्बंधित उठ खड़ा हुआ है। यह कहना कितनी नासमझी है कि एक प्रांत के नागरिकों का डीएनए दूसरे प्रांत के लोगों के डीएनए से बेहतर है। ऐसा तो कभी गोरों और अफ्रीका के निवासियों के विषय में भी कहने की गलती नस्लवादियों व कट्टरपंथियों ने भी नहीं की है। देश के समाज को तोड़ने व विभाजित करने के बोल या तो नासमझी में अचानक कह दिए जाते हैं या फिर विघटनकारी नारे से प्रेरित षड्यंत्र का प्रयास है। दोनों ही स्थितियों में देश को कमजोर करने का विमर्श बनता है जो कि किसी भी हाल में समाज को स्वीकार नहीं है। इन सभी मुद्दों पर सभी रंगों के राजनीतिज्ञ अपना-अपना खेल तो खेलेंगे ही परन्तु मीडिया व बुद्धिजीवियों को सचेत होकर वास्तविकता जनमानस के सामने रखनी होगी।

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लेखक उच्च शिक्षा परिषद, हरियाणा के पूर्व अध्यक्ष व पंचनद शोध संस्थान के अध्यक्ष हैं।

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