मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

सक्रिय जीवनशैली से समृद्धि की राह

07:23 AM Jul 09, 2024 IST
Advertisement

सुरेश सेठ
आजादी के 77 वर्षों के बाद भी भारत के लोग आज अपने लिए ऐसी उद्यम नीति की तलाश में हैं जो न केवल उन्हें सक्रिय रख सके बल्कि वे देश को विकास पथ पर ले जाने में भी अपने आप को सफल मान सकें। देश में उपलब्धि और सफलता के उत्सव होते रहते हैं। अगर पीछे मुड़कर देखें तो उसमें बहुत-सी कमियां नजर आती हैं। बेकारी को दूर करने का संकल्प अनुकम्पा के उदार वितरण में नजर आता है। महंगाई का नियंत्रण एक ऐसा छद्म लगने लगता है जिसमें आंकड़े तो कहते हैं कि थोक ही नहीं बल्कि खुदरा सूचकांक भी नीचे गिर गया। खाद्य वस्तुओं की बाजार कीमतें आकाश छूती रहती हैं।
देश आश्वस्त हो चुका है कि वह दो-तीन साल में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन सकता है। वर्ष 2047 को आजादी का शतकीय महोत्सव मनाते हुए हम भारत को फिर से वैश्विक ताकत कह सकेंगे। उम्मीद करते हैं कि उस समय हम दुनिया में आर्थिक सामर्थ्य के लिहाज से मजबूत हो जाएंगे। लेकिन ये तिलिस्मी बातें जिनकी चकाचौंध में हम अपने आप को दुनिया की किसी भी प्रमुख शक्ति से कम नहीं मानते। लेकिन जितनी उद्यमहीनता और दृष्टिविहीनता भारत के आम लोग महसूस करते हैं, उतनी शायद किसी भी अन्य देश में नहीं है। यह निष्कर्ष लैंसेट ग्लोबल हैल्थ जर्नल के एक अध्ययन में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन बताता है कि हमारे देश में 50 फीसदी लोग शारीरिक सक्रियता से भागते हैं। अगर यूं ही उद्यमहीनता और उदार रेवड़ियां बांटने का माहौल चलता रहा तो इस अध्ययन के अनुसार 2030 तक भारत में शारीरिक सक्रियता से भागने वालों का आंकड़ा 60 फीसदी तक पहुंचने की संभावना है।
दुनिया में लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है। भारत में कुपोषण और पर्याप्त रोजी-रोटी के अभाव में हम स्वास्थ्य के न्यूनतम मापदंडों पर भी खरे नहीं उतर रहे हैं। यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कही है। लोगों के बीच एक ऐसी संस्कृति पनप रही है जो यह कहती है कि मुफ्त में जो हाथ लग सके, वही बेहतर है। जब बैंक खातों में बिना श्रम किए पैसे आ जाने के नेताई वादे हों तो भला लोग परिश्रम क्यों करें? किसी उद्यम नीति की तलाश क्यों करें? आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2000 में 22 फीसदी वयस्क शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं थे। 2010 में यह आंकड़ा बढ़कर 34 फीसदी हो गया और अब 50 फीसदी है। यह औसत महिलाओं में 57 फीसदी और पुरुषों में 42 फीसदी लोग सक्रिय नहीं हैं। सवाल उठता है कि महिलाएं तो घर को संभालती हैं, इतनी मेहनत करती हैं, उनको निष्क्रिय कहेंगे? नौजवान जवान होते ही बाप-दादा के साथ खेतों में या दुकानों में काम करने लगते हैं, क्या इनको निष्क्रिय कहेंगे? जी हां, जो मेहनत देश की सकल राष्ट्रीय आय में कोई योगदान नहीं देती उसे निष्क्रिय ही कहा जाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन यह कहता है कि अगर कोई वयस्क प्रति सप्ताह 150 मिनट की मध्यम या 75 मिनट की तीव्रता गति वाली शारीरिक गतिविधि नहीं करता, तो वह निष्क्रिय है। ऐसी इस युवा देश की आधी जनसंख्या है। इन आंकड़ों के बल पर सोचना कितना अजीब लगता है।
आंकड़े कहते हैं कि भारतीय महिलाओं की निष्क्रियता बंगलादेश, भूटान और नेपाल से भी निचले स्तर पर है। इस निष्क्रियता के चलते उनमें कई गंभीर बीमारियों का विस्तार होता जाता है। सरकार ने चाहे आयुष्मान योजना का लाभ पूरी आबादी तक कर दिया है लेकिन बीमारों का अनुभव है कि निजी क्षेत्र के अस्पताल उन्हें दाखिल नहीं करते या उनकी परिचर्या नहीं करते क्योंकि वे कहते हैं कि सरकार से उन्हें उचित समय पर भुगतान नहीं मिलता।
देश में तरक्की के दावों के साथ-साथ एक शार्टकट संस्कृति और कोरे उपभोक्तावाद को भी बढ़ावा मिला है। शार्टकट संस्कृति में नीति, आदर्श और नैतिकता पुराने जमाने की बातें हो गई हैं। ऐसी आरामदायक जीवनशैली जिसमें काम और मेहनत कम और आराम ज्यादा हो। लैंसेट के ये निष्कर्ष एक चेतावनी देते हैं, समाज के मार्गदर्शकों को, सत्ता के कर्णधारों को कि उदारवाद की नीतियों से, अनुकम्पा की बरसात से किसी भी देश के आत्मसम्मान या आत्मगौरव में वृद्धि नहीं होती। जरूरत इसमें सुधार की है।
आज मनरेगा की योजना को साल में सौ दिन से बढ़ाकर 200 दिन कर देने की बात तो चलती है लेकिन इस मनरेगा द्वारा कौन से लक्ष्य सिद्ध किए जाएंगे, निर्माण की कौन-सी मंजिलों तक पहुंचा जाएगा? आज भारत का युवा दिग्भ्रमित होकर देश से पलायन का रास्ता पकड़ता है। नशों के जाल में फंस जाता है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में जिन देशों में सबसे अधिक मदिरापान होता है, उनमें से एक भारत भी है। यह सच काफी हैरान कर देने वाला है। इस समय जरूरत है जीवनशैली को बदल कर, जीवन आदर्शों के प्रति पुन: समर्पित होकर एक नया समाज रचने की, जो अपने कर्तव्य पथ पर निरंतर अग्रसर होगा और मंजिल के शार्टकट की तलाश में अंधी गलियों में भटक जाने की व्यथा में नहीं डोलता रहेगा।

लेखक साहित्यकार हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement