भक्ति और श्रद्धा की राह
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
श्रुताराधक संत क्षुल्लक प्रज्ञांशसागर जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘जिन अभिषेक विधि’ वस्तुतः जैनधर्मावलम्बियों के लिए एक अमूल्य उपहार है। जैन समाज की धर्म-परायणता, सहिष्णुता, और अहिंसा के सिद्धांत में अटूट विश्वास इस पुस्तक में प्रकट होता है। जैन धर्मावलम्बी प्रातःकाल मंदिर जाए बिना जल भी ग्रहण नहीं करते, जो उनकी गहरी धार्मिकता का परिचायक है।
यह पुस्तक केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि जैनियों को धर्म के मूल तत्वों से परिचित कराने के लिए बड़े मनोयोग से लिखी गई है। प्रज्ञांशसागर जी ‘आखिर क्यों?’ शीर्षक के तहत ‘देवदर्शन की आवश्यकता एवं महत्व’ पर लिखते हैं कि जैन धर्म में दर्शन का अर्थ श्रद्धा से वस्तु स्थिति को देखना है। देव दर्शन का अभिप्राय है कि भक्ति और श्रद्धा के साथ सच्चे देव अरिहंत परमेष्ठी की वंदना की जाए। इसी प्रसंग में क्षुल्लक प्रज्ञांशसागर जी बहुत बड़ी और तत्व की बात लिखी है।
प्रज्ञांशसागर जी उन लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत करते हैं जो ‘कर्मकाण्ड’ और ‘पूजा-पद्धति’ को दिखावा मानते हैं। वे लिखते हैं कि ‘जिन प्रतिमा हमारी भावनाओं को शुद्ध करने का बाहरी साधन है। जिनेन्द्र देव पाप नष्ट नहीं करते, क्योंकि वे वीतरागी हैं, परंतु उनके प्रति भक्ति के निर्मल भाव पाप विनाशक होते हैं।’
इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रज्ञांशसागर जी ने जिन शास्त्रों और पुराणों से प्रामाणिक उद्धरण देकर अत्यंत सरल भाषा में ‘जिन अभिषेक विधि’ को प्रस्तुत किया है, जिससे सामान्य जैन श्रावक भी अपनी श्रद्धा के अनुसार ‘जिन अभिषेक’ कर सकते हैं।
पुस्तक में ऐसी बातें भी शामिल हैं जो केवल जैनधर्मावलम्बियों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी श्रद्धालुओं के लिए उपयोगी हैं, जैसे ‘दर्शन करते समय ध्यान देने योग्य बातें’। इस प्रकार, ‘जिन अभिषेक विधि’ प्रत्येक जैन परिवार के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह जिन-पूजा विधि को सही तरीके से समझाकर मानसिक संतोष और पुण्य प्राप्त करने में सहायक होती है।
पुस्तक : जिन अभिषेक विधि लेखक : क्षुल्लक श्री प्रज्ञांशसागर जी प्रकाशक : ज्योति ग्राफिक्स, जयपुर पृष्ठ : 112 मूल्य : निःशुल्क