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मानवीय संवेदनाओं के पत्थर होने की टीस

07:30 AM Oct 04, 2023 IST

विश्वनाथ सचदेव
महाकाल की नगरी उज्जैन में वह लगभग निर्वस्त्र नाबालिग बेटी घंटों पनाह मांगती रही। पचासों मकानों के दरवाज़े खटखटाये थे उसने, पर हर जगह से दुत्कारी गयी वह। सुना है उसके साथ बलात्कार करने वाला आरोपी पकड़ा गया है। हो सकता है उसका अपराध प्रमाणित हो जाये, हो सकता है उसे कड़ी से कड़ी सज़ा भी मिल जाये। पर महाकाल की नगरी के नागरिकों के मुंह से वह कालिख कैसे मिटेगी जो एक असहाय बेटी को शरण न देने से लगी है। उस नाबालिग बेटी की हालत देखकर भी घंटों कोई दिल नहीं पसीजा, यह स्थिति अपने आप में किसी अपराध से कम नहीं है।
सुना है एक ऑटो वाले ने उसे अपना कमीज उतार कर अवश्य दे दिया था, पर यह बात उसे नहीं सूझी कि इतनी सहानुभूति पर्याप्त नहीं थी, ज़रूरत उस बच्ची को अस्पताल ले जाने की थी। अब वह ऑटो वाला इस बात पर खेद व्यक्त कर रहा है कि यह बात उसे क्यों नहीं सूझी। हां, एक व्यक्ति को सूझी थी यह बात। वह उसे अस्पताल भी ले गया। काश‍! पहले कोई यह काम कर देता तो उस अभागी बच्ची की स्थिति इतनी गंभीर नहीं होती।
आरोपी के पिता का यह कहना है कि यदि मेरे बेटे ने यह जघन्य अपराध किया है तो उसे कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। वह लड़की मेरी भी बेटी है! पर बलात्कार की शिकार हुई कन्याओं के बारे में कितने लोग इस तरह की सोच रखते हैं? आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2022 में देशभर में 31 हज़ार से अधिक बलात्कार के मामले पुलिस ने दर्ज किये थे। हर बीस मिनट में एक बलात्कार हो रहा है हमारे देश में! और यह संख्या तो उन मामलों की है जो पुलिस में दर्ज कराये गये हैं, उन मामलों की संख्या कौन बता सकता है जो पुलिस तक पहुंचे ही नहीं।
बहरहाल, महिलाओं के खिलाफ इस जघन्य अपराध के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है। पर सवाल तो यह है कि इस बारे में बात क्यों नहीं होती कि उज्जैन में हुए इस शर्मनाक कांड में उस बच्ची की पुकार पर सैकड़ों दरवाजे खुले क्यों नहीं? क्यों किसी का मन नहीं पसीजा? क्यों लोगों को यह नहीं लगा कि खून में लथपथ वह लगभग निर्वस्त्र बच्ची उनकी भी हो सकती है?
कुछ ही अर्सा पहले हमने मीडिया में मणिपुर की उन दो महिलाओं की शर्मनाक खबर देखी-सुनी थी, जिन्हें निर्वस्त्र करके सड़कों पर घुमाया गया था। निर्वस्त्र कहने से शायद बात की गंभीरता उतनी उजागर नहीं होती जितनी ‘नंगा’ कहने से होती है। सैकड़ों लोग थे मणिपुर की सड़कों पर निकाले गये मनुष्यता को शर्मसार करने वाले उसे जुलूस में। कहां चली गयी थी उनकी आंखों की शर्म? क्यों उस भीड़ में किसी को इस बात पर शर्म नहीं आयी कि महिलाओं के साथ यह व्यवहार समूची मानवीय संवेदनाओं के पत्थर होते जाने की कहानी कह रहा है? मणिपुर की उस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति वहशी नहीं हो सकता, तो फिर उस भीड़ में से किसी ने यह आवाज़ क्यों नहीं उठायी कि यह अत्याचार असह्य है?
सच तो यह है कि बलात्कार जैसा जघन्य अपराध करने वाला ही अपराधी नहीं है, अपराधी वह हर व्यक्ति है जो किसी भी रूप में ऐसे अपराध का हिस्सेदार है। मणिपुर की सड़क हो या उज्जैन के बंद दरवाज़े, सबकी कहानी का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि हम एक संवेदनहीन समाज में बदलते जा रहे हैं। यह संवेदनहीनता मनुष्यता का नकार है, इस बात को समझना होगा।
आखिर क्यों उज्जैन में पनाह मांगती उस बेटी को घंटों सड़क पर बिलखना पड़ा? उसे देखकर क्यों कोई आंख नम नहीं हुई? क्यों मणिपुर की सड़कों पर महिलाओं के साथ वहशियाना हरकत करने वालों को रोकने के लिए एक भी हाथ नहीं उठा? क्यों किसी को गुस्सा नहीं आया? क्यों किसी को शर्म नहीं आयी। क्यों किसी को यह नहीं लगा कि ऐसे में उसका भी कोई कर्तव्य बनता है? इन और ऐसे सारे सवालों के जवाब तलाशने की ज़रूरत है। ज़रूरत है यह समझने की कि जिंदा समाज ऐसी हरकतों पर चुप नहीं रहता, नहीं रह सकता।
समाज व्यक्तियों के एक समूह का नाम है, जो कुछ मूल्यों के अनुसार एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। एक अलिखित समझौता होता है इन व्यक्तियों के बीच- हम सब मनुष्य हैं और इस नाते एक-दूसरे की खुशियों और गमों के हिस्सेदार हैं हम सब। संवेदनशीलता एक ऐसा मूल्य है जो हमें मनुष्य बने रहने के लायक बनाता है। इस संवेदनशीलता का तकाज़ा है कि हम एक-दूसरे की पीड़ा को पहचानें। उसे कम करने की कोशिश करें। मानव-समाज के रूप में हमारी एक सामूहिक पीड़ा यह होनी चाहिए कि दूसरे को कांटा चुभता है तो हमें दर्द क्यों नहीं होता?
इक्कीसवीं सदी के मनुष्य के सामने एक सवाल यह भी है कि प्रगति के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसमें कहीं एक बड़ी कमी यह है कि हमारी इस प्रगति-यात्रा में हमारे भीतर की मनुष्यता का रस कहीं सूखता जा रहा है। मनुष्यता के इस सूखते रस का अहसास किसी रूस या किसी यूक्रेन के बीच हो रहे युद्ध से ही नहीं होता, आदमी और आदमी के बीच बढ़ती दूरी भी यह अहसास कराती है।
‘जिसके कंधे पर सूरज उगा/ उसको कहते थे कल आदमी/ नाम तो आज भी है वही/ आदमीयत कहीं खो गयी।’
उज्जैन में उस बच्ची के साथ जो हुआ, या फिर मणिपुर की सड़कों पर महिलाओं के साथ जो हैवानियत बरती गयी, कुल मिलाकर आदमीयत के कहीं खोने की ही पीड़ादायक कहानी है। इस खोती हुई आदमीयत को बचाना होगा। तब आदमी बचेगा।
अपने भीतर के आदमी को बचाने का यह संघर्ष हर व्यक्ति को पहले अपने भीतर ही शुरू करना होगा। मनुष्यता का तकाज़ा है कि यह लड़ाई लगातार चलती रहे और इस लड़ाई में मनुष्य हारे नहीं। एक लहूलुहान निर्वस्त्र बेटी को देखकर भी यदि हमारे भीतर की करुणा नहीं जागती तो इसका अर्थ है मनुष्यता कहीं हार रही है। इस हार को जीत में बदलना होगा।
एक लड़ाई बढ़ती संवेदनहीनता के खिलाफ चलनी चाहिए। बलात्कार के अपराध से तो शायद पुलिस निपट ले, पर संवेदनहीनता के खिलाफ कोई पुलिस या कोई कानून लड़ाई नहीं लड़ सकता। अपने भीतर के मनुष्य को ज़िंदा रखने की यह लड़ाई हम में से हर एक को लड़नी है और जीतनी है। संवेदनहीन समाज को मनुष्य-समाज नहीं कहा जा सकता।
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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