मानवीय मूल्यों में क्षरण की टीस
सुदर्शन गासो
कवयित्री कृष्णलता यादव के इस गीत-नवगीत संग्रह ‘सपन पखेरु भीगी पांखें’ से पूर्व उनकी कहानी, कविता, लोकगीत, बाल-साहित्य, संस्मरण व यात्रा-वृत्तांत आदि साहित्य रूपों में सत्रह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्राध्यापिका के साथ-साथ आप ने अनेक संस्थाओं में पाठ्यपुस्तक निर्माण में भी भरपूर योगदान दिया है। लेकिन दृष्टिकोण लोक-हितैषी और उच्च मानवीय मूल्यों पर आधारित होने के कारण साहित्य प्रासंगिक बना नज़र आता है।
लेखिका सामाजिक मूल्यों व पारिवारिक रिश्तों के महत्व को स्थापित करना अपना धर्म समझती है :-
तुम ही मेरे ऋषि मुनि हो
तुम ही चारों धाम हो।
मात-पिता के श्रीचरणों में
बार-बार प्रणाम हो।
इस तरह वह उन मूल्यों की निशानदेही करती है जो सभ्यता के हाथों से पीछे छूट गए हैं या जिनके पीछे छूट जाने की संभावना है। जीवन की कटु सच्चाइयों का गीत बनाना मुश्किल होता है। लेखिका जीवन की सच्चाइयों को आवाज़ देती नज़र आती हैं और उसी में से अपने गीतों की रचना करती हैं :-
भरे हुए का रोज़ कीरतन
भूखा पेट न जपता माला।
कवयित्री के पास अपने मौलिक विचार और भाव भी हैं, और इनको गीत में बांधने की कला भी है। वह समय के सत्य को बहुत साधारण शब्दों में व प्रभावशाली ढंग से पेश करने का हुनर रखती है :-
महंगा दूध ज्यादा पानी
आज समय की यही कहानी।
पदार्थ की दृष्टि से समाज ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन इस तरक्की का दूसरा पहलू यह भी है कि इस ने पेड़-पौधों, जानवरों व पक्षियों तक को बुरी तरह से प्रभावित किया है :-
चिड़िया तक को ठोर मिला न
घर के रोशनदानों में
उगा विकास है खेतों-खेतों
पगडण्डी बागानों में।
सभी गीतों के शीर्षक सरल व प्रभावशाली हैं। कवयित्री एक सजग व चेतन लेखिका के रूप में सामने आती है।