For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

सचेतक है खडूर साहिब से उठती टीस

07:10 AM Jun 02, 2024 IST
सचेतक है खडूर साहिब से उठती टीस
Advertisement
ज्योति मल्होत्रा

यह जानने के लिए आपको खडूर साहिब चुनाव क्षेत्र जाने की जरूरत नहीं कि क्योंकर सुदूर डिब्रूगढ़ जेल में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कैद और आज़ाद उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए अमृतपाल सिंह के पक्ष में जीत की हवा चलती महसूस हो रही है और हो सकता है वह जीत भी जाए। चंडीगढ़ के सेक्टर 51 की ट्रैफिक लाइटें पार करके, चंडीगढ़-मोहाली की सीमा पर बुजुर्ग सिखों का समूह पिछले डेढ़ साल से वहां टेंटों को लगाकर धरने पर बैठा है, जिसका मकसद दशकों से जेल में बंद 22 सिख बंदियों की रिहाई की तरफ ध्यान दिलवाना है।
जो कोई इस झुलसा देने वाली धूप में धरना देने वालों तक पहुंचे, उसे अंग्रेज सिंह नामक शख्स मीठे गर्म दूध का कप थमाता है। करनाल से सिख किसानों का एक जत्था उनका साथ देने इतनी दूर आया है। बातचीत का विषय केंद्र सरकार (यानी भाजपा) का पंजाब के प्रति भेदभाव पर आने में देर नहीं लगी, जिसके मूर्त रूप में दिखाने को वे ‘बंदी सिंह’ प्रसंग से लेकर भिंडरांवाले का अवतार कहे जाने वाले अमृतपाल सिंह के प्रति अन्यायपूर्ण रुख का जिक्र करते हैं। सड़क के पार, खाली टेंटों और कुछ होर्डिंगों पर जरनैल सिंह भिंडरांवाले, दीप सिद्धू, अमृतपाल सिंह और बेअंत सिंह (इंदिरा गांधी का कातिल) इत्यादि के पोस्टर लगे हैं। एक पोस्टर के आधे भाग में, भिंडरांवाले के अगल-बगल में हरदीप सिंह निज्जर और जसवंत सिंह खालरा दिखाए हैं तो बाकी हिस्से में बीवी-बच्चों सहित कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के परिवार का चित्र है, जिस पर गुरुमुखी में ‘धन्यवाद कनाडा’ लिखा है।
जब आपका आईफोन गर्मी के कारण तपकर काम बंद करने की कगार पर हो और वक्त मानो थम गया हो, एकबारगी, कुछ पल के लिए, हैरानी होती है कि क्या यह 1984 का मंज़र है (जब ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ) या 1988 (ऑपरेशन ब्लैक थंडर) या वर्तमान 2024 का दृश्य है। आपके समक्ष पंजाब के ‘अवांछितों’ की चित्र वीथी है और सूचनाओं की मानें तो इनमें एक भावी सांसद भी हो सकता है।
लेकिन गर्म होते अपने आईफोन और स्व को संभालिए। अधिकांश टेंट खाली पड़े हैं और कुछ बुजुर्ग किंतु अत्यंत वाकचातुर्य से लबरेज यह टोली इस पकी उम्र में भी तपती दोपहरियों को झेल रही है। वे कहते हैं, हम यहां इसलिए हैं क्योंकि हमें हमारे हक चाहिए, बंदी ‘सिंहों’ को घर जाने दिया जाए, वे बहुत लंबी सज़ा जेल में काट चुके हैं। यहां तक कि कुंभकर्ण भी कुछ महीनों बाद जाग जाता था लेकिन यह सरकार जागने का नाम नहीं ले रही। अमृतपाल सिंह को अकारण गलत समझा जा रहा है, वह तो केवल इतना चाहता है कि सिख समुदाय में सुधार हो– वह युवाओं को नशे से दूर करना और उनकी मांओं के आंसू पोंछना चाहता है। वह खालिस्तान की मांग नहीं कर रहा। जो भी है, भारत में वे भी तो हैं जो हिंदू राष्ट्र चाहते हैं।
लेकिन उनकी यह टीस दोपहर की भीषण गर्मी में तुरंत भाप बनकर उड़ भी जाती है। यहां तक कि इन बुजुर्गों को भी यह अनकहा सच मालूम है कि यदि खडूर साहिब, फरीदकोट और संगरूर, जहां से क्रमशः अमृतपाल, इंदिरा गांधी के कातिल बेअंत सिंह का बेटा सरबजीत सिंह खालसा और अकाली दल (अमृतसर) के मुखिया सिमरनजीत सिंह मान प्रत्याशी हैं, उन्हें पृथक राष्ट्र खालिस्तान का बिल्ला तो तभी उतारकर रखना पड़ गया जब चुनाव पर्चा भरते वक्त उन्होंने भी तमाम प्रत्याशियों की तरह भारत के संविधान की रक्षा करने की शर्त पर सहमति जताई। अस्सी के दशक की भयावहता का सबक यही है कि आज इन तीनों को, विशेष रूप से सिमरनजीत सिंह मान को- जिसने विगत में चुनाव तो बहुत लड़े किंतु जीत केवल 1989 में मिली–पता है कि अपने श्रोताओं-समर्थकों को प्रभावित करने को उनके पास बोलने, अभिव्यक्ति और विरोध करने का जो हक है, वह भी संविधान में दी गई गारंटी की बदौलत है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया की खूबसूरती यह कि वह इन जैसों को इस प्रक्रिया से अंतिम छोर तक छूट लेने की इजाज़त देती है और फिर जब वे इसे और अधिक न खींच पाएं तो अपनी वापसी पुनः केंद्र (मुख्यधारा) की ओर करने की इज़ाजत भी देती है। स्पष्टतः यह तीनों अपने आदर्श पुरुष और विचार स्रोत भिंडरांवाले से कहीं अधिक चतुर हैं, जिसने झुकने की बजाय टूटना चुना।
सिमरनजीत सिंह को 2022 के संगरूर संसदीय उपचुनाव में बमुश्किल यानी महज 5000 वोटों के फर्क से विजय तब मिली जब उसी वक्त भगवंत मान पंजाब के मुख्यमंत्री बने। यही कारण है कि पंजाब में मुख्यधारा की राजनीति जीवित है और अच्छी तरह चल रही है। अगरचे खडूर साहिब की सीट संभावित पृथकतावादी अमृतपाल सिंह जीत गया तो दुनियाभर का मीडिया वहां पहुंचकर पंजाब को अविवेकी, संवेदनहीन और अज्ञानता भरी तूलिका से रंगने लगेगा- जबकि तथ्य यह है कि पंजाब के 2.14 करोड़ मतदाताओं ने पहले ही मध्यमार्ग चुन रखा है। वहां असल लड़ाई आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के बीच है क्योंकि मुद्दे असली हैं अर्थात‍् वह कृषि संकट जो स्थाई हो चला है। औद्योगिकी तरक्की के लिए माहौल अनुकूल नहीं। पर्यावरणीय संकट गहरा रहा है। जनसंख्या बुढ़ाती जा रही है और गांव युवाओं से खाली हो रहे हैं।
खडूर साहिब के इर्द-गिर्द की भावावेश वाली नाटकीयता में दरअसल संभावित सिविल-नाफरमानी-आंदोलन की आहट छिपी है। राजसत्ता के अहंकार का मर्दन करने में, पंजाब की प्रतिरोध वाली प्रवृत्ति रही है। पंजाबी बंदा खुद को भारी नुकसान के बावजूद शांतिपूर्ण विरोध करने को तैयार रहता है। 2020-21 में किसानों द्वारा दिल्ली की घेराबंदी इसकी एक बानगी है। माना जाता है कि मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानून वापस लिए जाने पर सहमति से पहले इस आंदोलन में लगभग 750 किसानों की मौत हुई। हालिया हफ्तों में, जैसे-जैसे चुनाव प्रचार मुद्दाविहीन होता चला गया, न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर केंद्र सरकार द्वारा अड़ियल रवैया अपनाने से क्षुब्ध हुए किसानों ने न केवल भाजपा प्रत्याशियों को काले झंडे दिखाकर नाराज़गी जताई बल्कि उन्हें गांवों में न घुसने देने पर अड़ गए। पंजाबियों की एक पुरानी मांग यह भी है कि अटारी-वाघा और हुसैनीवाला सीमा को पाकिस्तान से व्यापार और बेहतर रिश्तों के लिए पुनः खोला जाए।
तथापि, कदाचित यह समय है खडूर साहिब से उठती टीस पर ध्यान देने का। जो कह रही है, हमसे संवाद कीजिए, चीज़ों को अलग ढंग से करें, मानो दिल्ली के तख्त पर जल्द बैठने जा रहे शासक से पंजाब कह रहा हो, हमें आखिरी हद तक न धकेलें, हम भी वहां तक जाना नहीं चाहते।

लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×