समावेशी हो कृत्रिम मेधा का नया रचनात्मक युग
सुरेश सेठ
युग बदल गया। इंटरनैट की शक्ति 5जी और 6जी तक उड़ान भरने लगी। रोबोट्स की दुनिया तीसरी दुनिया के देशों में भी प्रवेश कर गई। जहां आबादी कम है और श्रमबल की आवश्यकता अधिक है, वहां तो रोबोट्स की यह नई दुनिया बहुत उपयोगी है। लेकिन दुनिया में भारत जैसे अत्यधिक आबादी वाले देशों को तो रोबोट्स के इस्तेमाल के बारे में कुछ नये पैमाने अपनाने पड़ेंगे। रोबोट हो या कृत्रिम मेधा, इनके प्रतिमान भारत जैसे देशों में सहयोगी हो सकते हैं, मशाल लेकर आगे-आगे चलने वाले नहीं।
इसके अतिरिक्त कृत्रिम मेधा की इस तेजी से विकसित होती दुनिया में हम व्यक्ति की अभिव्यक्ति का हूबहू प्रतिरूप तो पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अब अनुभव बता रहा है कि कृत्रिम मेधा की इस दुनिया में संवेदना, उत्साह, भावुकता और रिश्तों के पुलों का भी तो अपना एक महत्व है। निस्संदेह, पुतले तो राष्ट्रीयता की बात नहीं कर सकते। कृत्रिम मेधा के प्रतिरूप कलात्मक मौलिकता की उड़ानें नहीं भर सकते। इस बात को पूरी दुनिया ने ही नहीं, तीसरी दुनिया के अग्रणी भारत जैसे देशों ने भी बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है।
अगर भारत को 2047 के आजादी के शतकीय उत्सव में एक विकसित राष्ट्र बनना है तो यह विकास समावेशी विकास होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि समाज का कोई भी वर्ग अपने आप को पिछड़ता हुआ महसूस न करे और संतुलित प्रगति के पथ पर हर कदम साथ-साथ चले। समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलना पड़ेगा। पिछड़े और अगड़ों की यह भावना खत्म हो और सभी एक ही धरातल पर उद्यम करते हुए जिएं।
आज दुनिया में साम्राज्यवाद के खिलाफ अब तीसरी दुनिया और अफ्रीका के देश तेजी से आंखें खोल रहे हैं। भारत की अध्यक्षता में जी-20 के शिखर सम्मेलनों में अफ्रीकी संघ को स्थायी सदस्य बनाया गया। आज भारत अफ्रीका के सभी देशों के आर्थिक और सामाजिक विकास, स्थिरता और सुरक्षा में योगदान दे रहा है। पिछले दशक में अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में भारत की आवाज बुलंद हुई है। इसका कारण यही है कि चाहे यह रूस और यूक्रेन का अंतहीन लगता हुआ हिंसक युद्ध हो या हमास और इसराइल का भयावह हिंसक तांडव, भारत ने हमेशा शांति और संवाद की पैरवी की है। उसका कहना गलत साबित नहीं हुआ क्योंकि जिस प्रकार दुनिया का व्यापार अस्त-व्यस्त हुआ। आपूर्ति चैनल गड़बड़ा गए और मानवता की बेचारगी सबके सामने स्पष्ट हो गई, वह यही कह रही थी कि भारत की आवाज सही थी और युद्धोन्माद में हथियार संपन्न व्यवसायी देशों द्वारा हथियार बेचने की ललक गलत है।
जी-7 सम्मेलन से भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक नई आवाज उठाई है। उन्होंने यह कहा है कि हम समाज के हर वर्ग के विकास को मुख्यधारा से जोड़ने को प्राथमिकता दे रहे हैं। उन्होंने कृत्रिम मेधा के महत्व को नकारा नहीं और कहा कि इतने बड़े देश के लोकतांत्रिक चुनावों में अगर हम कुछ घंटों में ही निष्पक्ष और तटस्थ चुनाव परिणाम दे पाए तो यह कृत्रिम मेधा की शक्ति का ही परिणाम है। लेकिन गड़बड़ वहां हो जाती है जहां समर्थ और संपन्न अपनी वैज्ञानिक और अन्वेषक शक्ति के कारण कृत्रिम मेधा से लेकर रोबोटिक युग तक अपना एकाधिकार जमा लें।
जहां तक कृत्रिम मेधा का संबंध है, उसके साथ डीपफेक की जो शक्ति विकसित हो गई है, जिसमें आप किसी भी युग, किसी भी व्यक्ति को न केवल हूबहू साकार कर सकते हैं, बल्कि उसके मुंह में अपना बयान डाल सकते हैं। इसलिए जिंदगी में सही क्या है और गलत क्या है, इसकी पहचान करना और भी कठिन हो गया है। इसका उत्तर यही है कि अगर कृत्रिम मेधा की यह शक्ति रचनात्मकता और मौलिकता का दामन नहीं छोड़े, मानवीय संवेदनाओं को कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल से मौलिकता का एक नया रंग दे तो भारत में जय जवान, जय किसान और जय अनुसंधान का जो नारा आपने विकास के लिए दे रखा है, उसमें अनुसंधान को नई मंजिलें तय करते देर नहीं लगेगी। लेकिन याद रखा जाए कि ये मंजिलें निर्माणात्मक होनी चाहिए। मानवीय संवेदना और मानवीय आदर्शों का परिवर्धन करने वाली होनी चाहिए।
भारत ने घोषणा की है कि वह कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर राष्ट्रीय रणनीति तैयार करने वाले पहले कुछ देशों में से एक है और भारत का नया नारा है ‘एआई फॉर ऑल’ अर्थात कृत्रिम मेधा सबके लिए। इस कृत्रिम मेधा को पारदर्शी, निष्पक्ष, सुरक्षित, सुलभ और जिम्मेदार बनाया जाए, इसके लिए सबको मिलजुल कर काम करना होगा। बेशक पर्यावरण प्रदूषण के क्षेत्र में 2070 तक भारत नेट जीरो के लक्ष्य को हासिल करने का हरसंभव प्रयास करेगा और आने वाले समय को हरित युग बनाया जाएगा जहां एक समावेशी प्रयास में जुटे हुए सब देश होंगे और संपन्न देश भी अपनी स्वार्थपरता भूल कर तीसरी दुनिया के देशों के साथ हाथ से हाथ मिलाकर चलेंगे।
लेखक साहित्यकार हैं।