झालरदार शार्क की रहस्यमयी दुनिया
के.पी. सिंह
झालरदार शार्क को अंग्रेजी में फ्रिल्ड शार्क कहते हैं। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार झालरदार शार्क लगभग 50 करोड़ वर्ष प्राचीन मछली है। रीढ़धारी प्राणियों के अभी तक जितने भी जीवाश्म मिले हैं, उनमें सर्वाधिक प्राचीन जीवाश्म एक मछली का है। इस मछली के जबड़े नहीं थे बल्कि चूसने वाला मुंह था। इसे सभी मछलियों का पूर्वज कहा जा सकता है। इसकी वंशज मछलियां दो भागों में बंट गयीं। पहली-अस्थिधारी और दूसरी-उपस्थिधारी। झालरदार शार्क की शारीरिक संरचना सर्वाधिक प्राचीन उपस्थिधारी मछलियों के जीवाश्म से बहुत मिलती है। झालरदार शार्क में ऐसी अनेक विशेषताएं पायी जाती हैं, जो इसे अत्यंत प्राचीन शार्क सिद्ध करती हैं।
शार्क की अधिकांश जातियों की जानकारी तो मानव को लंबे समय से है, किंतु झालरदार शार्क की जानकारी लगभग 100 वर्षों से है। सर्वप्रथम जापानी मछुआरों ने इसे 1884 में देखा और इसके नमूने एकत्रित किये। इसके गलफड़े सिल्क जैसे थे अतः इसे नाम दिया गया रिब्यूका सिल्क शार्क। इसका स्वरूप छिपकली जैसा था, अतः कुछ लोगों ने इसे लिजार्ड शार्क कहा। झालरदार शार्क की प्रमुख विशेषता यह है कि इसके 12 झालरदार गलफड़े होते हैं, अतः इसे एक नया नाम मिला-झालरदार शार्क। यह नाम सर्वाधिक प्रचलित हुआ और इसे आज इसी नाम से जाना जाता है।
झालरदार शार्क अटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर के दाहिनी ओर गहरे पानी में पायी जाती है, अर्थात् इसे पुर्तगाल से नार्वे तक और केलिफोर्निया के तटों पर देखा जा सकता है। झालरदार शार्क लगभग 550 मीटर की गहराई पर रहना अधिक पसंद करती है। यह गहराई इतनी अधिक है कि प्रायः गोताखोर भी सागर में इतनी गहराई पर नहीं जाते। यही कारण है कि झालरदार शार्क के संबंध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध हो सकी है। झालरदार शार्क की संख्या बहुत कम है। इसकी केवल एक जाति है। यह एक आलसी शार्क है और बहुत धीमी गति से तैरती है।
झालरदार शार्क की शारीरिक संरचना अत्यंत प्राचीन मछलियों की तरह है। इसका शरीर पतला और लंबा, ईल जैसा होता है। इसकी लंबाई लगभग 2 मीटर एवं शरीर का रंग एक जैसा कत्थई होता है। इसकी पीठ पर केवल एकमात्र पीठ का मीनपंख होता है, जो पीठ पर काफी पीछे होता है। इसके सिर के दोनों ओर छह-छह गलफड़े होते हैं जिनके किनारे झालरदार होते हैं। इसीलिए इसे झालरदार शार्क कहते हैं। प्राचीन शार्क में भी ऐसे ही और इतने ही गलफड़े थे। वर्तमान समय में जितनी भी शार्क पायी जाती हैं, उनमें कुछ को छोड़कर शेष सभी के केवल पांच जोड़े गलफड़े होते हैं। झालरदार शार्क की आंखों की संरचना बड़ी विचित्र होती है। इसकी आंखें थोड़ा-सा उभरकर बाहर आ जाती हैं और इन्हें ऊपर की ओर घुमाया जा सकता है। सागर तल पर गहराई में रहने वाले जीवों के लिए इस प्रकार की आंखें आवश्यक हैं। इस प्रकार की आंखों से झालरदार शार्क को अपने शत्रुओं से बचने में काफी सहायता मिलती है। इसके साथ ही यह इनकी सहायता से अपना शिकार भी सरलता से खोज लेती है।
झालरदार शार्क का प्रमुख भोजन गहरे पानी में रहने वाले स्क्वीड और आक्टोपस हैं। अतः एक बार पकड़ में आने के बाद इसका शिकार बच नहीं पाता। झालरदार शार्क के बहुत से नमूने मिले हैं, किंतु अभी तक एक भी झालरदार शार्क ऐसी नहीं मिली है, जिसके पेट में अधिक भोजन मिला हो। इससे यह सिद्ध होता है कि झालरदार शार्क अजगर के समान एक आक्टोपस अथवा स्क्वीड खाकर सागर तल में पड़ी रहती है तथा इस समय यह आसपास के जीवों पर ध्यान नहीं देती। यही कारण है कि इसके पेट में हमेशा स्क्वीड अथवा आक्टोपस का आधा हजम किया हुआ अवशेष ही मिला है।
समागम काल में नर और मादा गहरे पानी में एक-दूसरे से मिलते हैं। इनमें आंतरिक निषेचन होता है। झालरदार शार्क का गर्भकाल दो वर्ष होता है। झालरदार शार्क अंडे देती है, किंतु इसके अंडे इसके शरीर के भीतर ही परिपक्व होकर फूट जाते हैं। इस प्रकार मादा शार्क के शरीर से अंडे न निकलकर जीवित बच्चे निकलते हैं। यह एक बार में लगभग 15 बच्चों को जन्म देती है। इसके बच्चे लंबे समय तक मादा के साथ रहते हैं। मादा ही इनकी सुरक्षा करती है। ये बच्चे शीघ्र ही छोटे-छोटे स्क्वीड और आक्टोपस का शिकार करना सीख जाते हैं और वयस्क होने से पहले सागर में बिखर जाते हैं। झालरदार शार्क मानव के लिए घातक नहीं है। यूं भी यह सागर में 500 मीटर से अधिक की गहराई पर रहती है। जहां तक प्रायः गोताखोर नहीं जाते। इ.रि.सें.