हीरों के बाजार में तहजीब की मंडी
हेमंत पाल
फ़िल्मी दुनिया में प्रतिभाओं को अभिव्यक्त करने की अपनी अलग ही भाषा है। इसमें सिर्फ फिल्मों के कलाकार ही नहीं, बल्कि निर्देशकों को भी उनकी क्षमता के मुताबिक पदवी दी जाती है। ऐसी ही एक पदवी है ‘शो मैन’ की। फिल्म इंडस्ट्री का पहला ‘शो मैन’ राज कपूर को माना जाता है, जिनके फिल्मांकन का कैनवस बहुत भव्य होता था। उनकी अधिकांश फिल्मों में ये दिखाई भी देता है कि जब किसी कथानक पर काम करते थे, तो उसमें डूब से जाते थे। उनके बाद यही नाम सुभाष घई को दिया गया। उनकी फिल्मों का कलेवर और कैनवस भी बहुत विशाल होता था। उनके बाद ‘शो मैन’ का ख़िताब मिला संजय लीला भंसाली को जिन्होंने अपनी फिल्मों को एक नया स्वरूप दिया। हम दिल दे चुके सनम, देवदास, बाजीराव मस्तानी और पद्मावत जैसी उनकी फिल्मों में दर्शकों ने अलग ही भव्यता देखी। अब अपनी वही प्रतिभा वे अपनी पहली ओटीटी वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ में ले आए। अब आठ भागों की यह वेब सीरीज प्रकट हुई है।
वेब सीरीज के साथ बड़े शो मैन की चर्चा
इस वेब सीरीज के रिलीज होने के साथ ही संजय लीला भंसाल खासी चर्चा में हैं। ‘हीरामंडी’ जैसे तवायफों के विषय को उन्होंने जिस भव्यता से फिल्माया और बारीकियों का ध्यान रखा, वह उनके काम के प्रति समर्पण को दर्शाता है। ‘हीरामंडी’ एक पीरियड कथानक है, जो 1940 और उसके आसपास के दौर की कहानी कहता है। यह बंटवारे से पहले लाहौर शहर (अब पाकिस्तान में) की कहानी है। ‘हीरामंडी’ तवायफों का इलाका हुआ करता था, जिसे लेकर यह कहानी गढ़ी गई। वह दौर आजादी के आंदोलन का भी रहा, तो उसमें क्रांतिकारियों को भी जोड़ा गया।
शुरुआत के कुछ एपिसोड देखकर नहीं लगता कि ‘हीरामंडी’ की दो प्रतिद्वंद्वी तवायफों का किस्सा अंत तक आते-आते क्रांतिकारियों से जुड़ जाएगा और क्लाइमेक्स भी उसी पर केंद्रित होगा, पर हुआ यही। ‘हीरामंडी’ सिर्फ आठ घंटे के आठ एपिसोड तक फैली लंबी कहानी ही नहीं है, इसमें बहुत कुछ है जो अनोखा कहा जाएगा। सेट की भव्यता, तवायफों की पोशाक बताती है, कि संजय लीला भंसाली ने उस दौर को कितनी गंभीरता से समझा और फिल्मांकन किया। नवाबों और महाराजाओं के उस काल में तवायफों की समाज में क्या जगह थी और तहजीब को लेकर उन्हें किस तरह इज्जत बख्शी जाती थी, ये ‘हीरामंडी’ देखकर ही पता चलता है। हालांकि फिल्म का काफी हिस्सा कम रोशनी में फिल्माया गया, जो थोड़ा खलता है।
भंसाली के लिए रुचि का विषय
संजय लीला भंसाली के लिए तवायफों की दुनिया शुरू से ही रुचि का विषय रहा है। पहले उन्होंने ‘देवदास’ की चिर-परिचित कहानी को अपने अंदाज में फिल्माया। इसके बाद ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ के जरिये तवायफों की जिंदगी के दुख-दर्द के अंदर झांका। जबकि, ‘हीरामंडी’ भी इन्हीं तवायफों की जिंदगी का सच बखान करती है, पर कुछ अलग अंदाज में। ‘हीरामंडी’ की ये तवायफें अभाव में नहीं जीतीं और न किसी से डरती हैं। अंग्रेजी शासनकाल में भी उनकी दबंगता का अलग ही अंदाज दिखाया गया। ‘हीरामंडी’ में मनीषा कोइराला और उनसे जुड़ी तवायफों के जरिये इस बाजार की शानो-शौकत को दिखाया गया है। जिसमें मनीषा कोइराला और सोनाक्षी सिन्हा की आपसी प्रतिद्वन्द्विता में बाजार पर कब्जे का संघर्ष है। इनके बीच शर्मीन सहगल को अड्डे की ऐसी लड़की बताया गया, जो तवायफों की दुनिया से निकलना चाहती है पर निकल नहीं पाती। वो जिसके सहारे इस दलदल से निकलने की कोशिश करती है, उसी की वजह से अंग्रेज सरकार के निशाने पर भी आ जाती है।
निर्देशन की अद्भुत कल्पनाशीलता
पहली बार परदे पर दिखाया गया कि आजादी के संघर्ष में तवायफों की भी अपनी भूमिका रही। ये वास्तव में हुआ भी या नहीं, यह तो पता नहीं! पर, संजय लीला भंसाली ने इस वेब सीरीज में जिस तरह घटनाओं को पिरोया है, वो देखते समय सच जैसा लगता है। क्योंकि, कैनवस की भव्यता व कहानी की कसावट दर्शक को कुछ और सोचने का मौका ही नहीं देती।
तवायफों यानी तहजीब की पाठशाला
भंसाली ने ‘हीरामंडी’ के जरिये उस दौर के नवाबों की दुनिया का नजारा तो दिखाया ही, साथ ही तवायफों की समाज में इज्जत और उनका दबदबा भी दिखाया। ‘हीरामंडी’ तवायफों की वो दुनिया थी, जहां नवाबों की अय्याशी पलती थी और ये उनकी बेगमों को स्वीकार भी था। तवायफ़ों को लाहौर के इस बाजार से महफिल सजाने के लिए बुलाया जाता था। लेकिन, वैश्याओं की तरह नहीं, बल्कि नाचने-गाने वाली फ़नकारा की तरह। उन्हें मेहमान की तरह इज्जत बख्शी जाती। नवाबों के यहां इन्हीं तवायफों को तहजीब की पाठशाला कहा जाता था। एक दृश्य में कुदसिया बेगम (फरीदा जलाल) लंदन से पढ़कर लौटे अपने पोते ताजदार से कहती हैं- ‘हिंदी जुबां और रिवायतें हम नहीं सिखा सकते, इसके लिए आपको ‘हीरामंडी’ जाना होगा।’ इस पर ताजदार कहता है कि वहां तो अय्याशी सिखाते हैं। इस पर दादी कहती हैं, व्हाट नानसेंस। वहां तो सारे नवाब जाते हैं। वहां अदब सिखाते हैं, नफासत सिखाते हैं ... और इश्क भी।
चर्चित डायलॉग
‘ये शाही महल की पुरानी दीवारें हैं, इसे पार नहीं कर सकती’,‘पुरानी दीवारें पार नहीं की जाती, तोड़ दी जाती है’,‘शराफत हमने छोड़ दी, मोहब्बत ने हमें छोड़ दिया।’ ,‘एक बार मुजरे वाली नहीं मुल्क वाली बनकर सोचिए’, ‘नवाब जोरावर अली खान जब जूता भी मारता है, तो सोने का मारता है, मल्लिका जान’, ‘मोहब्बत और बगावत के बीच कोई लकीर नहीं होती और इश्क और इंकलाब के बीच कोई फर्क नहीं होता।’
मिस्टर परफेक्शनिस्ट जैसा अंदाज़
जिस तरह आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहा जाता है, तो संजय लीला भंसाली भी उनसे कम नहीं हैं। सोनाक्षी सिन्हा, ऋचा चड्ढा, शर्मिन सेगल, संजीदा शेख और मनीषा कोइराला जैसे कलाकारों के पास ‘हीरामंडी’ को लेकर कई अनुभव हैं। भंसाली अपने काम को लेकर कितने गंभीर हैं, इस बारे में ऋचा चड्ढा ने एक इंटरव्यू में बताया कि आपने वो पोस्टर्स तो देखे होंगे, जिनमें मेरे सिर पर फूल हैं। वो कई बार बदले गए। भंसाली हर थोड़ी देर बाद बोलते कि इन गुलाब को बदल दो! सोनाक्षी सिन्हा ने भी भंसाली की तारीफ की कि उनके जैसा विजन किसी के पास नहीं। कभी डेकोरेटिव लैंप बुझ जाता था, कभी परदे हवा से नहीं हिलते तो एक ही टेक कई बार शूट किया जाता।
काल्पनिक नहीं, वास्तविक
संजय लीला भंसाली ने आजादी से पहले के दौर की लाहौर की हीरामंडी की जो कहानी रची है, वो भले काल्पनिक हो, पर ‘हीरामंडी’ इलाका सही है। यह लाहौर का रेडलाइट एरिया है। जिसमें एक वक्त पर हीरे, जेवरात बिका करते थे, इसलिए इसे हीरामंडी कहा जाने लगा। कहा जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह के मंत्री हीरा सिंह के नाम पर इसका नाम हीरामंडी रखा गया था। उन्होंने यहां पहले अनाज मंडी बनवाई इसके बाद यहां तवायफ़ों को बसाया। उस दौर में कई देशों से संगीत, नृत्य, तहजीब और कला से जुड़ी औरतों को यहां लाया जाता। लेकिन, अंग्रेज शासन के बाद हीरामंडी उजड़ने लगा फिर यहां वेश्यावृत्ति पनपने लगी। 90 के दशक के बाद से हीरामंडी पूरी तरह बिखर गया। ‘हीरामंडी’ की कहानी आठ भागों में अद्भुत भव्यता से फिल्माई गई ऐसी कहानी है, जिसकी किसी और वेब सीरीज या तवायफों वाली फ़िल्मी कहानी से तुलना नहीं की जा सकती। इस वेब सीरीज ने ऊंची लाइन खींच दी कि तवायफों की फ़िल्में सिर्फ तवायफों के अड्डों व मुजरों तक सीमित नहीं होती।