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गुलजार है बाजार कहे बनो खरीदार

06:46 AM Nov 12, 2023 IST
गुलजार है बाजार कहे बनो खरीदार
िचत्रांकन : संदीप जोशी
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शुभता के लिए दिवाली के मौके पर कुछ न कुछ खरीदने की परंपरा रही है। ऐसी खरीदारी जो परिवार की जरूरत-हैसियत से तय हो। जैसी लोगों की आय वैसा बाजार का कारोबार। लेकिन अब इश्तिहारों के जरिये बाजार तय करता है कि कोई व्यक्ति कितना खरीदेगा। आय न हो तो कर्ज-किस्तों व छूट का सम्मोहन। अकसर स्टेटस सिंबल के नाम पर इच्छा जगाना यहां तक कि जरूरत महसूस कराना सेल के आक्रामक खेल का तरीका है। जीएसटी की उगाही , महंगी कारों और मोबाइल की सेल के आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं।

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कवर स्टोरी

आलोक पुराणिक
लेखक आर्थिक पत्रकार हैं।

दिवाली रोशनी का त्योहार है जी, यह कहा जा सकता है। पर दिवाली खरीदारी का त्योहार है, यह तो 200 परसेंट भरोसे के साथ कहा जाना चाहिए। दिवाली पर खरीदारी की पुरानी परंपरा है। य़हां तक कि शेयर बाजारों में तो खरीदारी के लिए विशेष मुहूर्त सत्र आयोजित किये जाते हैं। दिवाली के शुभ अवसर पर खरीदारी की ही जानी चाहिए यह विश्वास सिर्फ शेयर बाजार तक सीमित नहीं है। दिवाली यूं भी कारोबारी त्योहार माना जाता है। कारोबार तो पहले ही होता था, पर अब तो बहुत आक्रामक तरीके से माल बेचने का खेल है। पुराने वक्त की बात है, दिवाली पर मध्यवर्गीय परिवारों में नये कपड़े बनवाये जाते थे। दिवाली पर पूजन के वक्त नये कपड़े पहने जायेंगे, ऐसी उम्मीद होती थी। पुराने वक्त के बच्चे भी कपड़े जब इच्छा हो, तब नहीं खरीदते थे। दिवाली पर मौका होता था नये कपड़ों का। वह वक्त था, जब अर्थव्यवस्था खुली न थी, इच्छाओं पर कुछ लगाम होती थी। सीमित आय असीमित इच्छाओं को संभाल नहीं सकती थी। अस्सी के दशक के दौर की दिवाली अलग होती थी। फिर आर्थिक उदारीकरण के बाद तो इच्छाओं को विस्तार मिला। अब साल 2023 में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था बनने के बाद तीसरे स्थान की तरफ निकल रही है।
जेब में पैसा, बढ़े खरीदार
आंकड़ों के मुताबिक, अक्तूबर 2023 में जीएसटी संग्रह 1 लाख 72000 करोड़ रुपये का रहा, अक्तूबर 2022 के मुकाबले यह आंकड़ा 13 प्रतिशत ज्यादा है। अब तक का सर्वाधिक जीएसटी संग्रह 1 लाख 87 हजार करोड़ रुपये रहा है। यानी अक्तूबर का आंकड़ा बता रहा है कि कर संग्रह का हाल ठीक है। लोगों की जेब में पैसे हैं, और वे खरीदारी कर रहे हैं।

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आंकड़े कुछ और भी बता रहे हैं। मारुति सुजुकी की कारों की सेल अक्तूबर 2023 में अक्तूबर 2022 के मुकाबले 20 प्रतिशत ज्यादा रही है। महिंद्रा एंड महिंद्रा के यात्री वाहनों की सेल अक्तूबर 2023 में अक्तूबर 2022 के मुकाबले 35 प्रतिशत ज्यादा रही। मारुति सुजुकी और महिंद्रा एंड महिंद्रा की बड़ी कंपनियां हैं। इनकी सेल में इतनी बढ़ोतरी का मतलब है कि लोग दे-दनादन कार खरीद रहे हैं। टू व्हीलर कंपनी हीरो मोटोकार्प के दुपहिया वाहन अक्तूबर 2023 में अक्तूबर 2022 के मुकाबले 26.4 प्रतिशत ज्यादा बिके। बजाज आटो ने अक्तूबर 2023 में अक्तूबर 2022 के मुकाबले 35 फीसदी ज्यादा वाहन बेचे। दुपहिया बाजार की ये दोनों बहुत बड़ी कंपनियां हैं। इनमें इतनी जबरदस्त सेल का मतलब है कि दुपहिया वाहनों की खरीदारी भी जमकर हो रही है। वाहन विहीन दुपहिया वाहनों की तरफ जा रहे हैं। दुपहिया वाहन वाले कारों की तरफ जा रहे हैं। कार वाले बड़ी कारों की तरफ जा रहे हैं। बड़ी कार वाले एक साथ कई-कई कारों की तरफ जा रहे हैं। खरीदना और खऱीदना, और नया वाहन खरीदना, अब नया स्टेटस सिंबल है। सिर्फ कार नहीं, नये मॉडल की एकदम नयी कार-यह है स्टेटस सिंबल।
मोबाइल बाजार में भी तेजी है। महंगे मोबाइलों की ओर ग्राहक रुख कर रहे हैं। गरीब से गरीब बंदे के पास भी मोबाइल है अब। खुशी के मायने भी बदल गये। अब खुशी यानी खरीदारी, और सिर्फ खऱीदारी नहीं, खूब सारी खरीदारी। खरीदारी के बाद भी लगातार खरीदारी। नवरात्रि से खरीदारी पर्व शुरू होता है। इसके बाद तो इश्तिहार-दर-इश्तिहार खरीदारी ही खरीदारी। मोबाइल, कार, स्कूटी,टीशर्ट, पैंट, शर्ट सब कुछ खरीदना है। क्योंकि डिस्काउंट मिल रहा है। और सिर्फ डिस्काउंट नहीं, कर्ज भी लीजिये। महंगा और महंगा –अब सिर्फ आइटम नहीं चाहिए, महंगे से महंगे की जरूरत है। सिर्फ फोन नहीं, एप्पल फोन चाहिए। एप्पल फोन के स्टोर भारत में खुलने शुरू हो गये हैं।
हर मर्ज की दवा कर्ज
इच्छाओं को आय की सीमा में बांधने की जरूरत क्या है। इंतजाम है, चादर से बाहर पैर फैलाइये। बल्कि अब तो धीमे-धीमे यह हो रहा है कि अगर चादर से बाहर आप पैर नहीं फैला रहे हैं, तो आप पुराने जमाने के इंसान हैं। आय से कम खर्च पुराने वक्त की बात है। अब खर्च भरपूर होना चाहिए, आय कम हो, तो भी क्या, कर्ज है ना। नयी पीढ़ी कर्ज लेने के मामले में बहुत उदार है। पुराने बुजुर्ग बता सकते हैं कि शादी-ब्याह, मकान-दुकान के लिए कर्ज लेना समझ में आता है। वरना कर्ज लेना बहुत बुरी बात मानी जाती थी। कर्जदार की समाज में इज्जत नहीं होती, इस आशय की बातें अब सत्तर-अस्सी साल के बुजुर्ग कहते हुए दिख सकते हैं। कर्ज लेना अब बहुत सहज काम है और कर्ज देना तो बहुत ही मुनाफे का काम है। इतना मुनाफे का काम है कि फोन करके तमाम सेल्स-बालाएं बताती हैं कि आपका कर्ज एप्रूव हो गया है। आपको ईमेल पर इस आशय के संदेश आ सकते हैं कि आपका कर्ज एप्रूव हो गया, बल्कि सही टर्म बतायी जाती है- प्री-एप्रूव हो गया है। प्री-एप्रूव यानी आपने एप्लाई न भी किया हो, तो भी आपके ट्रैक रिकार्ड को देखकर हम इतना लोन दे रहे हैं। दे चुके हैं, बस आप जाकर ले लें।

इश्तिहार बतायें जरूरत
पहले रुख यह होता था कि ओ भाई, जेब में पैसे न होंगे, तो न लेंगे पचास हजार वाला फोन। एक हजार वाला ले लेंगे, दो हजार वाला ले लेंगे। ना-ना-ना इश्तिहार सुनिश्चित करेंगे कि आप बीस हजार से ऊपर वाला ही फोन लें, क्योंकि इसी में पांच कैमरे हैं। पर पांच कैमरों की जरूरत तो नहीं है। जी पहले नहीं थी, अब है। एक सेल्फी के लिए चाहिए, एक दूर की फोटो के लिए चाहिए। एक मोबाइल तो इस बात को आधार बनाकर बेच रहा है कि दूर के आइटमों की तस्वीर 50 गुना जूम करके ली जा सकती है। दूर की चिड़िया को कैमरे के जरिये बिलकुल पास दिखाया जा सकता है-निकालो करीब 80000 रुपये। पर दूर की चिड़िया को पास दिखाकर करना क्या है। मोबाइल तो बात के लिए होता है, संदेश देने के लिए होता है। मैं कौन-सा वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर हूं जो दूर की चिड़िया को पास दिखाऊं। ना-ना-ना तमाम मोबाइल कंपनियां आपको वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफऱ,सेल्फी फोटोग्राफर बनाने पर आमादा हैं। लीजिये इतनी सेल्फी लीजिये, लेते ही रहिये। इसलिए वो वाला ही मोबाइल लीजिये तीस हजार वाला। तीस हजार नहीं हैं, तो लोन लीजिये। इतने रुपये महीने की ईएमआई पर। आपकी जरूरत क्या है, यह आप तय नहीं कर रहे हैं, ये इश्तिहार तय कर रहे हैं। ये फीचर, वो फीचर, यह सच्चाई अलग है कि लोगों को अपने मोबाइल का पूरा इस्तेमाल करना नहीं आता , पर यह जुमला वह खूब प्रयोग करते हैं-लेटेस्ट मॉडल का है, बाजार में सबसे महंगा मॉडल है।


आपको खर्च कितना करना है अपनी लिमिट में करना है, यह भी तय आप नहीं कर रहे हैं यह कोई और तय कर रहा है।
आपको अपना पचास हजार का फोन कितने साल चलाना है, यह भी आप तय नहीं कर रहे हैं, जो कंपनी आपको पचास हजार का फोन बेचकर गयी थी, वही अगले छह महीनों में नया मॉडल लांच कर देगी और फिर पुराने फोन का जिक्र तक न करेगी। नये नये मॉडलों के इश्तिहारों के जरिये ऐसा माहौल बना दिया जायेगा कि सिर्फ आठ महीने पुराने फोन को यूज करनेवाला बंदा खुद को और अपने फोन को डाइनासोर समझने लग जायेगा। फोन में कमी न हो, तो भी कमी दिखने लग जायेगी-इसमें तो सिर्फ पांच कैमरे हैं, नये मॉडल में तो आठ कैमरे आ गये हैं।
शानदार डील डिस्काउंट पर


आइटम इतनी जल्दी पुराने पहले नहीं दिखते थे। फ्रिज बीस-पच्चीस साल भी चल जाते थे। टीवी भी आठ-दस साल चल जाते थे। मोबाइल भी पांच-सात साल चलानेवाले खूब मिल जाते थे। पर अब इतनी जल्दी फ्रिज भी पुराना लगने लग जाता है। नये इश्तिहार बताते हैं कि सिर्फ ठंडा रखनेवाला फ्रिज तो पुरानी चाल का है। नये फ्रिज में तो कैमरा भी है, एफएम रेडियो भी है। ओ भाई, फ्रिज से कैमरे का काम लेने की क्या जरूरत है। जरूरत है जी जरूरत है जी। फ्रिज को नया दिखाना है, आपको कुछ नया बेचना है। आपको क्या तकनीक चाहिए, आपको किस तकनीक की जरूरत है। आपको मोबाइल में सिर्फ पांच नहीं सात कैमरे चाहिए, यह तय कौन करेगा। जी यह तय आप नहीं करेंगे, यह तो तय माल बेचनेवाले करेंगे। पर हम इतने नये-नये आइटमों को खरीदने के लिए पैसे कहां से लायेंगे। जी लोन दे रहे हैं न सिर्फ 5417 रुपये की ईएमआई पर। और फिर इतना शानदार डील डिस्काउंट पर मिल रहा है। दशहरा-दिवाली के मौसम में अगर आपने इतनी सस्ती डील नहीं खरीदी, तो फिर आपसे ज्यादा नासमझ कौन है।
कुछ न खरीदने वाले की लाचारगी
कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन जाता है कि जो कुछ खरीदता नहीं है, वह खुद को बैकवर्ड टाइप फील कर सकता है। जैसे वह मुख्यधारा का हिस्सा नहीं रहा है। दुनिया तीस हजार का डिस्काउंट वाला आठ कैमरों वाला फोन खऱीदे जा रही है और आप अटके हुए हैं सिर्फ पांच कैमरों वाले फोन पर। कहीं न कहीं पीछे छूटने का अहसास घेर लेता है। पीछे कोई छूटना नहीं चाहता है। ऑनलाइन सेल का लोग इस तरह से इंतजार करते हैं मानो वे आइटम पहले कभी देखे ही नहीं हैं। पूरी योजना बनाकर इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश रहती है कि लोग एकदम आतुर, पागल टाइप दिखें और फिर हम खबरें पढ़ते हैं कि तीस सेकंड में उस कंपनी ने बीस हजार फोन बेच दिये। सिर्फ तीस सेकंड में बीस हजार फोन जिन्होंने खरीद लिये, वे तो परम सौभाग्यशाली लोग हैं, जो इस सेल से वंचित रह गये, तो कितने बैकवर्ड, कितने पीछे छूटे हुए लोग हैं। अगली बार जैसे ही सेल खुलेगी बाकी वंचित भी अपनी किस्मत आजमायेंगे। सो अगली बार एक मिनट में पचास हजार फोन बिक जायेंगे।
खरीदो, खऱीदो, खरीदो...

जन्म खरीदने के लिए ही हुआ है। पर क्या और कितना खरीदना है-यह सवाल एकदम अप्रासंगिक है। खरीदो, खऱीदो, खरीदो। डील मिल रही है, लेकर ही जाओ। लेकर जाओ, डील से कुछ लेकर जाना ही परम उपलब्धि है। डिस्काउंट पर कुछ हासिल करना ही परम प्रतिभावान होने का सबूत है। तमाम तरह के डिस्काउंटों को जो व्यक्ति हासिल नहीं करता है, उसका जन्म अकारथ ही जा रहा है, इस मर्म को समझना चाहिए, जो इस मौसम में तमाम सेल-संत, मार्केटिंग गुरु समझाने पर आमादा रहते हैं। आपने 1000 का आइटम 1000 में खरीदा तो क्या खरीदा, 2000 का आइटम लें, एक के साथ एक फ्री मिलेगा। एक के साथ एक फ्री हासिल करने का जो संतोष है, जो उपलब्धि भाव है उसका कोई मुकाबला नहीं है।
कई साल पहले अमेरिकन मार्केटिंग में चीप यानी सस्ते का क्या रोल है, इस विषय पर एलेन रुपेल शेल ने किताब लिखी थी-चीप दि हाई कास्ट आफ डिस्काउंट कल्चर। इसमें बताया था कि किस तरह से चीजों को पुरानी साबित करने की रणनीति पर काम किया जाता है और फिर सस्ता बताकर वे आइटम बेचे जाते हैं, जो दरअसल सस्ते होते नहीं। सस्ते हो भी नहीं सकते, तमाम कंपनियां कारोबारी बाजार में धर्मार्थ के लिए नहीं हैं। धंधा करने के लिए, मुनाफा कमाने को हैं। मुनाफा तब तो शानदार तरीके से कमाया जा सकता है, जब लोग खुश हों। दिवाली का मौका है, खुश है, तो खरीदिये। नहीं खऱीदा, तो माना जायेगा कि आप खुश नहीं हैं।

उनका मुनाफा, जिंदगी जुआ

दलीलें दी जाती हैं दिवाली पर जुआ खेलने की। वैसे इन दिनों जुए के लिए दिवाली का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। तमाम इश्तिहार आते हैं,जिनमें तमाम खिलाड़ी ब्रांड एंबेसडर होते हैं जो किसी न किसी तरह का गेम खरीदने का आह्वान करते हैं और साथ में यह भी बताया जाता है कि सावधानी बरतें-इसकी आदत पड़ सकती है। जुए की आदत पड़ जाती है। बात में दम है। पर इसके बावजूद खिलाड़ी जुआ खिलवा रहे हैं। दिवाली पर तो कुछ लोगों द्वारा जुआ विशेष तौर पर खेला जाता है। जुए का वैसे बहुत पुरा संदर्भ मिलता है महाभारत में। महाभारत में दुर्योधन जुए के पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं कि पुराने लोगों ने भी द्यूत क्रीड़ा का व्यवहार किया है यानी पुराने लोगों ने भी जुआ खेला है। महाभारत को अपने जमाने की भारतीय भाषा में रचा है एक नाटककार नारायण प्रसाद बेताब ने साल 1950 में । यानी अब से करीब 73 साल पहले एक नाटककार ने महाभारत को उस भाषा में रचा था, जो उस वक्त की आमफहम भाषा थी। इसमें जुआ-विमर्श कुछ यूं था-
शकुनि अपने जुआ कौशल पर कहते हैं-
मिट जायेगा दुख दर्द सब इनका, जरा हाथ फेर में,
होगा इधर से उधर सारा माल इतनी देर में।
और युधिष्ठिर जुए में हारकर कुछ शेर पढ़ते हैं-
आज तक हमको बिठाते बशर आंखों पर,
आज वह दिन है कि सब हंसते हैं तर आंखों पर,
आप रख दें ये चरण बढ़के अगर आंखों पर,
पुतलियां झुक कर कहें, आइये सर आंखों पर।
आज्ञा कीजिये दिल चाहे सो स्वामी हमको,
दी है तकदीर के पासे ने गुलामी हमको।


जुआ अब सिर्फ खेल नहीं है, बाकायदा धंधा है, और ऐसा धंधा है जो खूब चल रहा है। नयी पीढ़ी खूब खेल रही है जुआ और खिलाड़ी प्रेरणा दे रहे हैं-खेलो खेलो। जबकि यह अपनी जगह एक किस्म की सच्चाई है कि जिंदगी एक जुआ है। जब जिंदगी ही जुआ है, तो उसमें अतिरिक्त जुआ क्यों खेला जाये। पर खेलिये, खेलिये, खरीदिये, खरीदिये आइटम। सच्चाई वैसे यह है कि जुआ आप खेलेंगे तो फायदा जुआ खिलानेवाले यानी कंपनी को होगा। खरीदेंगे आप तो भी आखिर में फायदा बेचनेवाली कंपनी को ही होगा। हम सब खरीदार हैं, अपने-अपने हिस्से की खरीदारी करके दुनिया से चले जायेंगे। कुछ याद आया कि शेक्सपियर ने कहा था- ‘हम सब अभिनेता हैं, सारी दुनिया एक रंगमंच, अपना-अपना रोल करके चले जायेंगे।’ दुनिया दरअसल एक बाजार है, हम सब खरीदार, अपने-अपने हिस्से की खरीदारी करके हमें चले जाना है। उस खरीदारी का बड़ा हिस्सा दिवाली पर ही करना है, यह बाजार आपसे सुनिश्चित करवाकर ही मानेगा।

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