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लावनी की ज्योति

07:11 AM Oct 27, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी
प्रकाश मनु

उसका नाम था लावनी। छोटी, बहुत छोटी थी लावनी। होगी कोई सात-आठ वर्ष की। पर कभी-कभी उसे लगता, भगवान ने उससे सारी खुशियां छीन ली हैं। और यह सोचते ही उसका चेहरा उदास हो जाता।
पर फिर अगले ही पल उसे अम्मां के लाड़-प्यार की याद आती तो वह धीरे से कहती, ‘अरे, मैं भी कैसी बुद्धू हूं। ...अम्मां हैं न! मुझे इतना लाड़ करने वाली अम्मां। एक पल भी वे मेरे बिना नहीं रह पातीं। तो फिर भला मुझे किस चीज की कमी है?’
फिर वह झटपट अम्मां के पास जाकर बतियाने लगती। कहती, ‘अम्मां, आपने मेरा नाम लावनी क्यों रखा? ऐसा नाम तो मैंने किसी का नहीं सुना। सच्ची, किसी का भी नहीं...!’
‘अरे बिटिया, लावनी तो उसे कहते हैं न, जो सुंदर हो। ...भला तेरे जैसा सुंदर कोई और है? तो फिर लावनी नाम किसी और का कैसे होता!’ अम्मां हंसकर कहतीं और उसे अपने आंचल में समेट लेतीं। लावनी का दिल भीतर-भीतर उमगने लगता। कहती, ‘सचमुच अम्मां, मैं ऐसी ही हूं? बहुत सुंदर! पर... पर सहेलियां तो...?’ और वाक्य पूरा करने से पहले ही उसकी आंखों से टप-टप आंसुओं की बारिश शुरू हो जाती।
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अम्मां जानती थीं उसका दुख। उसे प्यार से गोद में बैठाकर सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगतीं। फिर धीरे से कहतीं—
‘पगली, रोती है? तेरे पास भला क्या नहीं है। बस आंखें ही तो नहीं हैं न! पर इससे क्या होता है? तेरे पास मन की आंखें जो हैं। कैसी उज्ज्वल आंखें, मोती जैसी। दीये जैसी। उनमें सारी दुनिया के लिए प्यार है। ...इतनी सुंदर आंखें भगवान ने तुझे दी हैं तो फिर रोती क्यों है? और फिर कितना सुंदर तू गाती है, ‘रामचंद्र, कृपालु भज मन... !’ भला कोई गा सकता है और...?’
अम्मां की बातों से लावनी को कुछ तसल्ली मिलती तो वह कहती, ‘अम्मां, आपने उस दिन आधी कहानी ही सुनाई थी न, कि कैसे सीता मैया की खोज में राम निकले और वन-वन भटकते रहे। आज आगे की कथा सुनाओ न!’
सुनकर अम्मां भाव-विह्वल हो जाती, ‘सुनाऊंगी बेटी, जरूर सुनाऊंगी रामचंद्र जी और सीता मैया की कहानी। क्यों न सुनाऊंगी? पर पहले रसोई का थोड़ा काम निपटा लूं, फिर आती हूं। दिवाली आ रही है, तो घर में एकाध मीठा पकवान तो बनना चाहिए न। तेरे लिए खोए के लड्डू बना लेती हूं। तब तक तू एकाध मीरा का पद गा न! मैं वहीं रसोई में बैठी-बैठी सुनती रहूंगी।’
और मां के जाते ही लावनी गुन-सुन करके धीरे-धीरे गाने लगती, ‘पायो री, मैंने राम रतन धन पायो री...!’
गाते-गाते स्वर बंध जाता, और लावनी किसी और ही दुनिया में पहुंच जाती, जहां और चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश...!
रसोई में मीठे पकवान बनाती अम्मां का दिल जैसे खुशी से उमगने लगता, ‘अहा, गला कितना मीठा है लावनी का! मुरली बाबा यों ही कोई प्रशंसा थोड़े ही करते हैं। बेलापुर कस्बे के सबसे पुराने और नामी गायक हैं मुरली बाबा। अभी कल ही उन्होंने किस कदर तारीफ की थी कि लावनी का गाना दो मिनट भी सुन लो तो लगता है, सचमुच प्रभु जी से दिल का सुर मिल गया।’ सोचते हुए अम्मां बेटी पर जैसे रीझ-सी गईं।
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पर लावनी को तो जरा भी चैन नहीं। अम्मां जानती थी कि उसके भीतर रात-दिन कौन-सा दर्द, कौन-सी ज्वाला जलती है। कुछ वर्ष पहले चेचक के कारण लावनी की दोनों आंखें चली गई थीं। और लावनी की जिंदगी में अंधेरा, एकदम अंधेरा हो गया था।
आंखों के चले जाने से लावनी उतनी नहीं रोई, जितना उसे यह सोच-सोचकर रोना आ रहा था कि अब वह नहीं पढ़ पाएगी। यानी सारी जिंदगी भर के लिए अनपढ़, गंवार...!
वह बहुत रोई, बहुत।
अम्मां ने लावनी की हालत देखी तो भीतर ही भीतर उनकी भी रुलाई छूट गई। फिर किसी तरह खुद को संभालकर बोलीं, ‘रोती क्यों है बेटी, मैं पढ़ाऊंगी न!’
अम्मां कक्षा छह तक पढ़ी थीं, लेकिन घर पर किताबें पढ़-पढ़कर उन्होंने काफी अध्ययन किया था। हिंदी, अंग्रेजी, गणित, सामाजिक विज्ञान सभी कुछ। यहां तक कि थोड़ी-सी संस्कृत भी। पर मुश्किल यह थी कि भला वे लावनी को पढ़ाएं कैसे? बहुत छोटा-सा कस्बा था बेलापुर, वहां कोई स्कूल नहीं था। पर अम्मां ने कोशिश करके उसे पढ़ाने का नया तरीका खोज लिया। वे लावनी को सूर, कबीर, तुलसी और मीरा के सुंदर-सुंदर पद, गीत और चौपाइयां सुनातीं। कुछ अच्छे भजन भी उन्होंने याद करा दिए थे।
लावनी उन्हें गाती, तो उसके स्वरों का कंपन हवाओं में भर जाता।
फिर एक दिन लावनी को मुरली बाबा ने आकर बताया कि बेलापुर में संगीत की दुनिया के महान गुरु राघवाचार्य जी आ रहे हैं।
सुनकर उसे लगा कि उसके भीतर कोई है, जो पुकार-पुकारकर कह रहा है कि लावनी, अब तेरे दुख कटेंगे, जल्दी...!
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उसी रात अम्मां ने लावनी को राघवाचार्य जी की पूरी जीवन-कथा सुनाई, ‘अच्छी-खासी आराम की सरकारी नौकरी थी, ऊंचे अफसर थे। बड़ी-सी कोठी, खूब नौकर-चाकर। क्या नहीं था उनके पास...? पर गांधी जी के आह्वान पर उसे लात मारकर अब दर-दर भटक रहे हैं...!’
आगे अम्मां ने बताया कि ‘अभी कुछ ही रोज पहले ही राघवाचार्य जी ने पूना में बच्चों को संगीत सिखाने का स्कूल खोला और अपना पूरा जीवन इसी के लिए समर्पित कर दिया। और अब तो सुनते हैं, यहां भी वैसा ही एक संगीत विद्यालय...!’
‘तब तो अम्मां, वे मुझे भी संगीत सिखा सकते हैं। वे सिखाएंगे न अम्मां, मुझे भी?’ लावनी ने मां का हाथ पकड़कर झिंझोड़ दिया।
‘यह... मैं क्या जानूं, बेटी? पर आएंगे तो मैं कहूंगी!’ अम्मां बोली। फिर कुछ सोचकर उन्होंने कहा, ‘बेटी, अगर मैंने कहा और वे मान भी गए, तो क्या फायदा? अच्छा तो यह है कि तू खुद कह। सुना है कि वे बच्चों को खूब प्यार करते हैं और उनकी कोई बात नहीं टालते। अच्छा तो तब है कि तू उनके पास जाए, तो वे खुद-खुद तेरे संगीत पर रीझ जाएं और...!’
लावनी ने सुना तो जैसे उसकी आत्मा के भीतर कोई प्रकाश-सा हुआ। उसे लगा कि अगर जीवन में कुछ करना, कुछ बनना है, तो उसके लिए यही सही समय है। और सचमुच अगले दिन मुरली बाबा के साथ लावनी राघवाचार्य जी के पास जा पहुंची। एकदम डरते-डरते! गई और पास जाकर खड़ी हो गई।
राघवाचार्य जी ने बड़े कौतुक से लावनी को देखा, फिर बोले, ‘मुझे लग रहा है बेटी, तुझमें कुछ खास बात है। क्या? यह तो मैं नहीं कह सकता, पर... कुछ है जरूर। तेरा माथा प्रकाशित है, एक अलग-सी जोत... बिल्कुल अलग-सी जोत है तेरे माथे पर! मैं भूल नहीं कर सकता बेटी, मैंने पहचान लिया है तुझे... पहचान लिया...!’
कुछ देर बाद राघवाचार्य जी बोले, ‘तू अच्छा गाती है न! मेरा मन कहता है, तू जरूर गाती होगी। सुना, अपनी पसंद का कोई गीत सुना दे।’
लावनी को एक गीत आता था, ‘श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन...!’ उसने धीरे से उसी की तान छेड़ दी—
श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन, हरण भवभय दारुणम‍्, नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर कंज, पद कंजारुणम‍्। श्री रामचंद्र कृपालु…...
सुनकर राघवाचार्य की आंखें मुंद गईं, मुंदती चली गईं। अहा, कैसा दिव्यत्व है लावनी के सुरों में...!
कुछ देर बाद उनकी समाधि टूटी, तो वे लावनी के सिर पर हाथ फेरने लगे। हाथ फेरते जाते और कहते जाते कि ‘देख, मैंने कहा था न, कहा था न!’
लावनी हैरान, यह क्या हुआ राघवाचार्य जी को? उसे कुछ भी ठीक-ठीक समझ में नहीं आ रहा था।
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और उस दिन से लावनी की पढ़ाई शुरू हुई।
राघवाचार्य जी अद्भुत गायक थे और उतने ही बड़े संगीताचार्य भी। जीवन में पहली बार उन्हें कोई ऐसा शिष्य मिला था, जिसके भीतर सीखने की अनंत उत्कंठा थी, जो कहीं रुकना ही नहीं चाहती थी। राघवाचार्य जी जो भी एक बार सिखा देते, वह लावनी के भीतर उतर जाता। और फिर जब वह उसका अभ्यास करती तो लगता, जैसे उसकी समाधि लग गई हो। उसके भीतर-बाहर आनंद की बरखा होने लगी। रोज पौ फटते ही आसपास के गली-मोहल्लों में अक्सर उसके गानों की आवाज आती। उसके स्वर में दर्द था...! ऐसा दर्द, मानो आसमान पिघल रहा हो। पर साथ ही ताजे बने गुड़ जैसी मिठास भी, जो दिल को सुकून देती थी। आत्मा उससे तृप्त होती।
पूरे बेलापुर में उसके गाने की गूंजें-अनगूंजें फैलने लगतीं। लोग एक-दूसरे से कहते, ‘देखो-देखो, लावनी गा रही है। सुनते हो उसके गीतों की आवाज...? ऐसा भला और कौन गा सकता है?’
फिर एक दिन राघवाचार्य जी ने लावनी को बुलाया और कहा, ‘आज तेरी परीक्षा है। बस, तुझे गाना है, गाते जाना है। जो तेरा सर्वश्रेष्ठ है, मैं सुनना चाहता हूं।’
लावनी के सामने अब तक लोगों के सामने गाने के तो मौके आए थे, पर अब तो उसे गुरु के आगे गाना था। ऐसे गुरु के आगे, जिनके पोर-पोर में संगीत बसा था। लावनी असमंजस में थी। वह सोच नहीं पा रही थी कि वह क्या गाए। पर तभी, जैसे कुहासा फटता है, अचानक उसके भीतर से एक प्रेमपगा सा, गहरा-गहरा फूट पड़ा—
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी...! जैसे अंग-अंग बास समानी, प्रभु जी...
और बस, फिर उसे कुछ होश न रहा। जैसे वह धरती से ऊपर उठ गई हो, और निरंतर ऊपर ही उठती जा रही हो।
मगन होकर राघवाचार्य जी ने कहा, ‘लावनी बिटिया, अब तू हो गई अपने में पूर्ण गायिका। भीतर-बाहर से पूर्ण...! कोई तेरे गायन पर कहीं उंगली नहीं रख सकता। अब किसी भी बड़ी से बड़ी सभा में तू निडर होकर गा सकती है। तू जहां भी गाएगी, वहीं संगीत का झरना बह उठेगा।...’
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और कुछ दिनों बाद ही ऐसा अवसर भी आ गया। सारे देश में आजादी का अलख जगाते घूम रहे महात्मा गांधी बेलापुर में भी आए। बापू के सम्मान में गुरु राघवाचार्य जी ने एक बड़े सम्मेलन का आयोजन किया था।
मंच पर बापू के साथ-साथ राघवाचार्य भी मौजूद थे। लोग प्रतीक्षा में थे, भला गांधी जी क्या कहते हैं? राघवाचार्य जी ने जब गांधी जी से कुछ शब्द कहने का अनुरोध किया, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘मैं भाषण तब दूंगा, जब आप... ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए रे, जे पीर पराई जाणे रे’ वाला गीत मुझे सुनाएंगे।’
राघवाचार्य जी विनम्रता से बोले, ‘वैष्णव जन वाला गीत तो आप सुनेंगे बापू, पर वह मैं नहीं, मेरी शिष्या लावनी सुनाएगी। और यकीन मानिए, वह मुझसे ज्यादा अच्छा गाती है।’
‘अच्छा...!’ बापू चकित, ‘कहां है आपकी शिष्या...?’
‘वह यहीं है बापू!’ राघवाचार्य जी ने मुस्कराते हुए कहा। फिर लावनी को गीत सुनाने का संकेत दिया उन्होंने!
सभा में हजारों लोगों की भीड़ थी। लावनी ने डरते-डरते गाना शुरू किया नरसी मेहता का अमर गीत, जो गांधी जी के साथ-साथ अब लाखों दिलों में बसता था, ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए रे, जे पीर पराई जाणे रे...!’
पर गाना शुरू करते ही उसे लगा, उसके अंदर कोई अनोखी शक्ति आ गई है, जो कह रही है, ‘लावनी, तुझे डरना-झिझकना नहीं है। मुरली बाबा का आशीर्वाद तेरे साथ है। गुरु राघवाचार्य जी ने कितनी आशा से तुझे गाने के लिए भेजा है। देख, हिम्मत मत हारना। आज तुझे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना है।’
और लावनी ने गाना शुरू किया, तो लगा उसके स्वरों का जादू देखते ही देखते फैलकर हजारों लोगों के मन-प्राणों को भिगो रहा है। पूरी सभा जैसे आनंद-विभोर थी। सचमुच संगीत का झरना बह उठा था—
वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीड पराई जाणे रे, पर दु:खे उपकार करे, तोये मन अभिमान न आणे रे।... धन-धन जननी तेनी रे...! वैष्णव जन तो तेणे कहिए...
जितनी देर लावनी गाती रही, लग रहा था, सब पर किसी ने मंत्र से जादू कर दिया है।
जब लावनी पूरा गीत गाकर रुकी, तो गुरु जी ने इशारा किया और अब लावनी गा रही थी, ‘श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन...’ और उसके फौरन बाद, ‘वंदे मातरम‍्....!’
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पूरी सभा जैसे लावनी के गीत के सुरों पर बह रही थी। बस, बहती जा रही थी, बिना यह जाने कि कितना समय बीत गया। और मंच के बीच में बापू। जैसे एकदम समाधि लग गई हो। बीच-बीच में आनंदमग्न होकर धीरे-धीरे सिर हिलाने लगते। वंदेमातरम‍् के बाद राघवाचार्य जी ने फिर बापू से कुछ बोलने का आग्रह किया। सुनकर बापू उठे। फिर धीरे से बोलना शुरू किया, ‘सभा में आए भाई-बहनो, मैं तो कुछ और ही सोचकर आया था। पर इस छोटी-सी बच्ची के गायन ने वह सब भुला ही दिया।’
कहते-कहते बापू कुछ देर के लिए रुके। जैसे उनके भीतर कोई गहरी हलचल मच गई हो, जिसे वे संभाल न पा रहे हों। फिर अपनी भावनाओं पर काबू पाकर उन्होंने कहा—
‘सच बताऊं तो मुझे लग रहा था, मानो मेरे सामने साक्षात सरस्वती ही बैठी हुई गा रही है। वैष्णव जन में सबके लिए प्यार और हमदर्दी की भावना है तो ‘श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन’ सुनकर मन उन रामचंद्र जी की शरण में चला जाता है, जो हर किसी को हिम्मत और हौसला देते हैं। और जब वंदे मातरम‍् गा रही थी यह बच्ची तो मुझे लग रहा था, हमारी मातृभूमि भी तो जगजननी सीता ही है, जो आज कष्टों में है। सीता का उद्धार हुए बिना भला हमारे दिलों को चैन कहां पड़ेगा?
‘कितना कमाल है कि भक्ति, परोपकार और देशप्रेम ये तीनों सुर इस छोटी-सी बच्ची लावनी के संगीत में ढलकर एक हो गए। मेरा आशीर्वाद है कि यह बड़ी होकर अपने गुरु राघवाचार्य जी की तरह ही बड़ी संगीतकार बने। देश के लिए गाए और हजारों लाखों दिलों को प्रकाशित करे।...’
और लावनी...! बापू जब बोल रहे थे, तो उसे लगा कि उसके दिल में सचमुच राम-सीता आकर बस गए हैं और उनके चारों ओर अनगिनत दीये झिलमल-झिलमिल करते हुए प्रकाश बिखेर रहे हैं।
‘उठो बेटी, देखो बापू तुम्हें आशीर्वाद दे रहे हैं।’ गुरु राघवाचार्य की आवाज सुनकर लावनी उठ खड़ी हुई। बापू पास खड़े उसी से कह रहे थे, ‘आंखें नहीं हैं, तो दुखी मत होना बेटी। दो आंखें नहीं हैं तो क्या हुआ? तुम्हारे भीतर झिलमल-झिलमल करते इतने सारे दीये तुम्हारी हजारों आंखें ही तो हैं, जो तुम्हें रास्ता दिखाएंगी और कभी भटकने नहीं देंगी।’
लावनी के दोनों हाथ जुड़ गए, और सिर बापू के आगे झुका, तो पता नहीं, कब उसकी आंखों से दो आंसू टपके और बापू के पैरों पर आ गिरे।
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कुछ देर बाद लावनी अम्मां के साथ वापस लौट रही थी, तो उसके भीतर खुशी समा नहीं रही थी। बोली, ‘अम्मां, अब तो बापू का आशीर्वाद मिल गया। अब तो लगता है, मैं जरूर अच्छी गायिका बन जाऊंगी। बड़ी होकर मैं बहुत गाऊंगी अम्मां, बहुत...!’
‘हां बेटी गाना, जरूर गाना।’ बेटी को खुश देखकर अम्मां की खुशी का भी कोई ओर-छोर नहीं था।
‘और अम्मां, तुम कह रही थी, दिवाली आने वाली है। दिवाली कब है मां?’
‘दिवाली तो दो दिन बाद है बेटी। पर मेरी दिवाली तो आज ही है बेटी, जब तुझे इतना खुश देखा है। मैं तो आज ही दीये जलाऊंगी।’ अम्मा बेटी पर निहाल हो रही थीं।
लावनी खुश होकर बोली, ‘जलाना मां, और मैं उन्हें देख लूंगी। मुझे लगता है, मैं उन्हें अपने अंदर देख लूंगी और लगेगा, मैं भी दिवाली मना रही हूं।’
लावनी जब यह कह रही थी, अम्मां ने मन ही मन उसकी बलैयां लेते हुए कहा, ‘ऐसी बेटी तो भगवान सबको दे, जिसकी बातों से दीये जलते हैं।’

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