समाज के अंतिम व्यक्ति को मिले विकास का लाभ
सुरेश सेठ
तीसरी पारी शुरू होते ही नई सरकार कह रही है कि देश में जितना आर्थिक विकास उनके शासनकाल में हुआ, उतना उनकी पूर्ववर्ती सरकारों ने नहीं किया। अब देश को नई पहचान देने का प्रयास हो रहा है। मोदी शासन का पहला आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत होने से पहले देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों की राय ली जा रही है ताकि ये आर्थिक लाभ कतार में खड़े आखिरी आदमी तक पहुंच सके। अर्थशास्त्रियों से यह राय ली जा रही है कि देश में गरीबी कैसे कम होगी। अमीर-गरीब का भेद कैसे कम होगा। देश की पिछड़ती हुई कृषि में नई जान कैसे डाली जाएगी।
कृषि आज भी देश का महत्वपूर्ण व्यवसाय है और इस क्षेत्र में आबादी का 50 प्रतिशत संलग्न है। प्रश्न यह है कि कृषि का योगदान सकल घरेलू आय में क्यों घटता जा रहा है? वर्तमान में, यह सकल आय के आधे हिस्से से घटकर केवल 15 प्रतिशत का रह गया है। छोटे किसान निराशा, बदहाली और पिछड़ेपन के गर्त में हैं। गरीबी को दूर करने के लिए सिर्फ परिभाषाएं बदलना पर्याप्त नहीं है। यह आवश्यक है कि जनता के जीवन स्तर में सुधार हो और उनकी मूलभूत जरूरतें पूरी हों।
मोदी सरकार अपनी तीसरी पारी का पहला बजट संसद में पेश करने जा रही है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का यह सातवां बजट है। हालांकि, नई राह पर चलने का दावा करने वाले आर्थिक विशेषज्ञों के सामने अभी कई प्रश्न हैं, जिन पर विचार करना आवश्यक है। यदि सरकार अपने पहले कदमों के रूप में इनकी घोषणा कर सके तो बेहतर होगा।
एक समतावादी समाज की स्थापना संविधान का महत्वपूर्ण लक्ष्य रहा है, लेकिन जब निजी क्षेत्र को प्राधान्य मिलने लगा, तो निजी और सार्वजनिक भागीदारी के नाम पर धन का असमान वितरण और बढ़ गया। गरीब और गरीब होते गए, जबकि अमीरों की आर्थिक सामर्थ्य लगातार बढ़ती रही।
यह कैसा विरोधाभास है जबकि दुनिया में भारत आर्थिक ताकत के रूप में मजबूत होता जा रहा है और यहां करोड़ों गरीब बदहाल हैं। अनियमित रोजगार है। बेरोजगार युवा स्थायी रोजगार न मिलने के कारण विदेशों की ओर पलायन कर रहा है या नशे की गर्त में डूब रहा है। इस समय सरकार के सामने सवाल यह है कि मध्यम और कमजोर वर्ग को कैसे राहत दी जाए? इस समय जो विकास हो रहा है, वह मुख्यतः निवेशकों के प्रयासों से है। यह विकास निजी क्षेत्र के डिजिटल, रोबोट युग के आगमन और कृत्रिम मेधा के कारण है। इसके बावजूद, देश के आम आदमी की बेरोजगारी की समस्या हल नहीं हो रही है।
आंकड़े बताते हैं कि शहरों की तुलना में गांवों में बेरोजगारी बढ़ने लगी है। इसका कारण यह है कि हमने फसलें उगाने के बाद अपने खाद्य पदार्थों को फिनिश प्रोसैसिंग में नहीं डाला, जैसा कि सभी प्रगतिशील देश इस समय कर रहे हैं। अगर यह प्रसंस्करण उद्योग लघु और कुटीर उद्योगों के रूप में गांवों के आसपास स्थापित हो जाते, तो आज किसानों में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या पैदा न होती। वैसे लघु और कुटीर उद्योगों का प्रशस्तिगायन हर बजट में किया जाता है। मोदी सरकार की तीसरी पारी के इस पहले बजट में भी इसकी प्रशंसा की जा रही है, लेकिन वास्तविकता में इसका प्रभाव कहीं नजर नहीं आ रहा है। लघु और कुटीर उद्योगों में रोजगार देने की बहुत क्षमता है। हालांकि, न तो छोटे उद्यमियों, छोटे निवेशकों, या नौजवानों ने इस दिशा में ध्यान दिया है। इसके विपरीत, हाल के दिनों में लाल डोरा क्षेत्र, जहां ये उद्योग विकसित किए जा सकते थे, वहां संपन्न निवेशकों को भी निवेश करने की इजाजत दे दी गई। किसानों की आय दोगुनी करने के वादे के बाद भी किसानों को उनकी मेहनत का पूरा मूल्य नहीं मिल रहा है। उनकी फसलों के लिए नियमित न्यूनतम समर्थन मूल्य एक कानूनी अनिवार्यता के रूप में सामने नहीं आ रहा है।
इस समय महंगाई का बड़ा कारण पेट्रोल और डीजल की कीमतें हैं। इनकी कीमतों को जीएसटी के तहत लाने की मांग की जा रही है। जबकि पेट्रोलियम कम्पनियों को भारी लाभ होने के बावजूद कीमतें घटाई नहीं जा रही हैं। इस समय देश की जरूरत का 85 प्रतिशत कच्चा तेल विदेशों से आयात किया जाता है जो देश की विनिमय दरों और रुपये के मूल्य को निरंतर घटाता है। आयात महंगे हो जाते हैं और निर्यात सस्ते। जाहिर है कि महंगाई के कारण रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति में भी यथास्थितिवाद का बोलबाला है। रेपो रेट में पिछली सात-आठ घोषणाओं में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। जब तक ब्याज दर कम न होगी, नए निवेश को प्रोत्साहन कैसे मिलेगा?
सरकार को अपनी तीसरी पारी शुरू करते हुए इन समस्याओं पर गंभीरता से विचार करना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा है कि आर्थिक विकास की उपलब्धियां केवल कागजी न रहकर, जमीनी स्तर पर लागू हों और समाज के हर वर्ग तक पहुंच सकें।
लेखक साहित्यकार हैं।