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क्रोध की आंधी में बुझ जाता है विवेक का दीप

06:38 AM May 06, 2024 IST
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डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

आजकल समाज में प्रायः देखा जा रहा है कि लोगों की सहन-शक्ति कम हो रही है और जरा-जरा सी बात पर क्रोध भड़कने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। ‘रोड-रेज़’ की घटनाएं इन दिनों आपको प्रतिदिन जहां-तहां सुनने को मिलती रहती हैं। क्रोध मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है, यह हमारे धर्मशास्त्रों में बताया गया है, लेकिन इन दिनों तो जिसे देखिए, वही क्रोध की ज्वाला में धधकता मिलता है।
एक दार्शनिक ने कहा है— ‘क्रोध वह आंधी है, जिसके आने पर बुद्धि का दीपक स्वतः बुझ जाता है।’ तब लाख टके का सवाल यह पैदा होता है कि क्रोध आता क्यों है? सभी जानते और मानते हैं कि क्रोध जीवन का सर्वनाश कर देता है, फिर भी हम इस क्रोध की ज्वाला को शांत क्यों नहीं कर पाते? मनोविज्ञानी मानते हैं कि व्यक्ति के भीतर जब ‘हीनता की भावना’ प्रबल हो जाती है और उसकी बात नहीं मानी जाती, तो वह क्रोध से भर उठता है। कहा तो यह भी गया है :-
‘क्रोध कभी मत कीजिए,करे शांति को भंग।
शीतल मन नित राखिए, जीवन भरे उमंग।’
क्रोध पर विचार करते हुए आज एक बड़ी ही कारुणिक लोककथा पढ़ने को मिली, जिसने मुझे बरबस रुला दिया है। यह लोककथा आपको भी दे रहा हूं।
एक गांव में एक विधवा औरत और उसकी 6-7 साल की बेटी रहते थे। किसी प्रकार गरीबी में वे दोनों अपना गुजर-बसर करते थे। एक बार मां सुबह-सवेरे घास लेने के लिए गयी और घास के साथ ही झाड़ियों में उगने वाला फल ‘काफल’ भी तोड़ के लायी। बेटी ने काफल देखे, तो बड़ी खुश हुई। मां ने बेटी से कहा कि मैं खेत में काम करने जा रही हूं, दिन में जब लौटूंगी, तब काफल खाएंगे। मां ने वे काफल टोकरी में रख दिए। बेटी दिन भर काफल खाने का इंतज़ार करती रही। बार-बार टोकरी के ऊपर रखे कपड़े को उठाकर देखती और काफल के खट्टे-मीठे रसीले स्वाद की कल्पना करती, लेकिन उस आज्ञाकारी बच्ची ने एक भी काफल उठाकर नहीं चखा। प्रतीक्षा में बैठी रही कि जब मां आएगी, तब दोनों ये काफल खाएंगे। आखिरकार मां आई! बच्ची दौड़ के मां के पास गयी और बोली, ‘मां, मां! अब काफल खाएं?’ ‘थोड़ा सांस तो लेने दे छोरी’ मां बोली। फिर मां ने काफल की टोकरी निकाली, उसका कपड़ा उठा कर देखा, ‘अरे! ये क्या? काफल कम कैसे हुए?’ गुस्से में मां ने पूछा, ‘तूने खाये क्या?’ बेटी बोली, ‘नहीं मां, मैंने तो चखे तक भी नहीं!’
जेठ की तपती दुपहरी में मां का दिमाग पहले ही गर्म था, अब भूख और तड़के उठ कर लगातार काम करने की थकान के कारण मां को बच्ची के झूठ बोलने से बहुत गुस्सा आ गया। मां ने ज़ोरों से एक झांपड़ बच्ची के सिर पर दे मारा। बच्ची उस जोरदार अप्रत्याशित वार से तड़प कर नीचे गिर गयी और ‘मैंने काफल नहीं चखे मां’ कहते-कहते उसके प्राण पखेरू उड़ गए! अब जैसे ही मां का क्षणिक आवेश उतरा, तो उसे होश आया! वह बच्ची को गोद में लेकर प्रलाप करने लगी! ‘ये क्या हो गया! मुझ दुखियारी का एकमात्र सहारा यह बेटी ही तो थी। उसे भी अपने ही हाथ से मैंने खत्म कर दिया? वो भी तुच्छ से काफल की खातिर! आखिर ये लायी किसके लिए थी? इसी बेटी के लिये ही तो! तो क्या हुआ था, जो उसने थोड़े खा ही लिए थे?’
रोते-बिलखते मां ने उठा कर काफल की वह टोकरी बाहर फेंक दी और रात भर वह बैठी रोती- बिलखती रही। हुआ यह था कि जेठ की गर्म हवा से काफल कुम्हला कर थोड़े कम हो गए थे। रात भर बाहर ठंडी हवा में पड़े रहने से वे सुबह फिर से खिल गए और टोकरी भरी-पूरी हो गयी! अब मां की समझ में आया और रोती-पीटती बेटी के शोक में वह भी मर गयी! कहते हैं कि वे दोनों मर के पक्षी बन गईं और जब भी काफल पकते हैं, तो एक पक्षी बड़े करुण भाव से गाता है- ‘काफल पाको! मी नी चाखो’ (काफल पके हैं, पर मैंने नहीं चखे हैं) और तभी दूसरा पक्षी चीत्कार कर उठता है- ‘पुर पुतई पूर पूर!’ (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)!
मेरी ही तरह, आप भी इस ‘काफल-कथा’ को पढ़कर संत कबीर के इस दोहे के मर्म को जरूर समझ जाएंगे :-
‘क्रोध-अग्नि घर-घर बसी, जले सकल संसार।
दीन लीन निज भक्ति जो, तिनके निकट गुबार।’
अर्थात‍् क्रोध की अग्नि तो घर-घर में बसी हुई है, जिसमें सारा संसार जल रहा है। जो दीन प्राणी अपनी भक्ति में लीन है, वही इस गुब्बार से बचता है।
निश्चय ही, क्रोध हमारे मन की ऐसी विकृति है जो हमारे विवेक को जलाकर राख कर देती है। इस क्रोध में हम वह कर जाते हैं, जिसे सोचना तक संभव नहीं होता। क्रोध के बाद केवल पछतावा ही बचता है, बाकी सब तो स्वाहा हो जाता है। आइए, आज मिलकर एक संकल्प हम अवश्य लें कि हमारे विवेक को राख कर देने वाले इस क्रोध नामक शत्रु को हम कभी जीवन में नहीं आने देंगे।
‘क्रोध एक अग्नि सखे, हो विवेक की राख।
अशांत मन नित ही रहे, मिटे व्यक्ति की साख।’

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