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वे बच्चे जो कभी घर नहीं लौट पाते

09:01 AM Jun 25, 2024 IST
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क्षमा शर्मा

हाल ही में दिल्ली पुलिस ने चौदह साल से कम उम्र के तेईस खोए हुए बच्चों को उनके माता-पिता से मिलवाया है। पुलिस ने बच्चों की काउंसलिंग भी की। पता चला कि वे घर का रास्ता भटककर खो गए थे। इनमें से कई बच्चे घर से बाहर खेलने के लिए गए थे। कई दुकानों से सामान लाने गए थे और रास्ता भूल गए थे। कई बच्चे ऐसे भी थे जो ठीक से बोल नहीं पाते थे। पुलिस ने बताया कि इन बच्चों को अपने घर का पता नहीं मालूम था। न ही वे ये बता सकते थे कि उनके घर के आसपास ऐसी कौन-सी मशहूर जगह या लैंडमार्क है जहां पहुंचकर घर जाया जा सके। पुलिस को पता चला कि घर वालों ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था कि बच्चों को घर का पता याद होना जरूरी है।
अब पुलिस माता-पिता को इस बारे में शिक्षित कर रही है कि वे बच्चों को अपने घर का पता, टेलीफोन नम्बर आदि जरूर याद कराएं। उनके कपड़ों में घर का पता और फोन नम्बर लिखकर हमेशा रख दें जिससे अगर वे रास्ता भूल भी जाएं तो कोई उन्हें घर पहुंचा दे। पुलिस के पास आएं तो पुलिस को भी बच्चों को घर लाने में आसानी हो। दिल्ली पुलिस ने ऐसे सोलह बच्चों को भी ढूंढ़ निकाला जिन पर इनाम घोषित था। पैंतालीस ऐसे बच्चों को भी उनके घर पहुंचाया गया, जो परीक्षा में अच्छा नहीं कर पाते थे, इस वजह से घर वालों की डांट खाते थे। इसलिए वे बिना बताए घर से चले गए थे।
बच्चों का खोना या हाट, मेले में घर वालों से बिछुड़ना कोई नई बात नहीं है। इस विषय पर बहुत-सी फिल्में भी बन चुकी हैं। बचपन में इसीलिए अक्सर घर वाले घर से बाहर तभी जाने देते थे, जब घर का कोई बड़ा साथ हो। दरअसल, बच्चे चुराने वाले गिरोह भी सक्रिय रहते थे, जो आज भी रहते हैं। इसके अलावा अड़ोस-पड़ोस भी आज की तरह कोई बेगाना नहीं था। हर कोई एक-दूसरे के परिवार वालों को जानता था, इसलिए बच्चे सुरक्षित भी रहते थे।
बचपन बचाओ आंदोलन की रिपोर्ट ‘मिसिंग चिल्ड्रन आफ इंडिया’ के अनुसार अपने देश में हर साल छियानवे हजार बच्चे खो जाते हैं, जिनमें से इकतालीस हजार, पांच सौ छियालीस बच्चे कभी नहीं मिलते। संगठन का कहना है कि भारत में हर घंटे ग्यारह बच्चे खो जाते हैं। इनमें से चार का पता कभी नहीं चलता।
भारत के छह सौ चालीस जिलों में से तीन सौ बानवे जिलों में जनवरी, 2008 से जनवरी, 2010 में खोए हुए बच्चों का अध्ययन किया गया था। उसी के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई थी। इसमें सबसे गम्भीर बात यह बताई गई थी कि खोए हुए बच्चे या तो बंधुआ मजदूरी का काम करते हैं या तरह-तरह से उनका यौन शोषण किया जाता है। महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल से सबसे ज्यादा बच्चे खोते हैं।
क्राई संस्था का भी कहना है कि भारत में बड़ी संख्या में बच्चे लापता हो जाते हैं। 2011 में पहले चार महीनों में ही बारह सौ साठ बच्चे लापता हो गए थे। इन खो जाने वाले सत्तर फीसदी बच्चों की उम्र बारह से अठारह साल के बीच होती है। इनमें से रिपोर्ट्स के अनुसार ही हजारों बच्चे अपने घर कभी लौट ही नहीं पाते। बच्चों के लिए काम करने वाले संगठनों को पुलिस के रवैये से भी नाराजगी है। उनका कहना है कि पुलिस अक्सर खोए हुए बच्चों की रिपोर्ट ही नहीं लिखती। हालांकि, यह भी सच है कि अनेक मामलों में पुलिस बच्चों को ढूंढ़ती भी है। दिल्ली में खोए हुए बच्चों को उनके माता-पिता से मिलाने के लिए ‘आपरेशन मिलाप’ नामक कार्यक्रम भी चलाया जाता है। इस लेख की शुरुआत में पुलिस द्वारा खोए बच्चों का जिक्र है। यह भी कि उनमें से बहुत से बच्चों को अपने घर का पता या लैंडमार्क ही नहीं मालूम होता। इसके लिए पुलिस अभिभावकों के लिए जागरूकता अभियान भी चलाती है। पुलिस का कहना है कि अपने बच्चों को घर का पता ठीक से याद कराएं। हो सके तो फोन नम्बर भी उन्हें याद करा दें। जो बच्चे ठीक से बोल नहीं पाते जब भी वे घर से बाहर जाएं, उनके कपड़ों पर घर का पता और फोन नम्बर लिख कर हमेशा रख दें।
वर्ष 2023 में मुम्बई पुलिस ने ‘आपरेशन मुस्कान’ के तहत आठ महीनों में पचास हजार खोए हुए बच्चों का पता लगाया था। पुलिस ने यह भी बताया था कि इन बच्चों के खोने के बड़े कारणों में पढ़ाई पर ध्यान न देना, मोबाइल का अधिक प्रयोग, गरीबी से बचने की चाहत, फिल्मों में काम करने की इच्छा, प्रेम-संबंध, माता-पिता से झगड़ा आदि शामिल हैं। साथ ही कई बार बच्चे उन लोगों से मिलने के लिए घर से भाग जाते हैं, जिनसे सोशल मीडिया पर चैट तो करते हैं मगर उनसे मिले भी नहीं होते। आजकल सोशल इनफ्लुएंसर बनने के चक्कर में भी बच्चे घर से भाग रहे हैं।
न जाने कितने माता-पिता ऐसे होते हैं, जो जीवन अपने खोए हुए बच्चों के इंतजार में गुजार देते हैं कि शायद एक दिन ऐसा हो कि बच्चा वापस आ जाए। कई बार बीस, बीस साल बाद बच्चे किसी सुखद संयोग के कारण माता-पिता के पास लौटते हैं। ऐसे में जिन माता-पिता के बच्चे पुलिस या अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं की तरफ से घर लौट आते हैं उनकी खुशी के कहने क्या।
मुम्बई में रेलवे पुलिस में कार्यरत हैं रेखा मिश्रा। वे अब तक सैकड़ों लापता बच्चों को उनके माता-पिता से मिलवा चुकी हैं। मुम्बई में देशभर से भागे हुए बच्चे आते हैं। इनकी भाषा समझना एक बड़ी चुनौती होती है। एक बार चेन्नई की तीन लड़कियों को अगवा करके मुम्बई लाया गया था। लेकिन वे केवल तमिल बोलती थीं। तब रेखा ने एक तमिल बोलने वाले की मदद से उन लड़कियों की बातों को समझा। चेन्नई से पता चला कि लड़कियों के माता-पिता ने उनके अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई थी। रेखा ने यह भी बताया कि कई बार माता-पिता ही इस बात पर ध्यान नहीं देते कि उनके बच्चे खो गए हैं। कई बार बहुत से बच्चे घर वापस नहीं जाना चाहते। यह बच्चे की इच्छा पर ही निर्भर करता है कि वह घर जाना चाहता है या पुनर्वास केंद्र। अगर वह घर नहीं जाना चाहता तो उसे पुनर्वास केंद्र भेजा जाता है और वहां उसके भरण-पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की व्यवस्था की जाती है।
सीआरपीएफ भी आपरेशन ‘नन्हे फरिश्ते’ चलाती है। अभी तक इस योजना के तहत आठ सौ बाईस लड़के और चार सौ चौदह लड़कियों को बचाया जा चुका है। स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से इन्हें इनके माता-पिता से मिलवाया जाता है।
बेशक बहुत से बच्चे अपने माता-पिता से दोबारा मिल पाते हैं, इसमें अनेक संगठनों की भूमिका भी होती है। मगर ऐसे असंख्य बच्चे होते हैं जो एक बार घर से बिछुड़ने पर दोबारा कभी नहीं लौट पाते।

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लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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