बढ़ा बजट उबारेगा कृषि को संकट से
देविंदर शर्मा
साल था 1996। चुनाव परिणाम घोषित हो चुके थे और अटल बिहारी वाजपेयी को निर्वाचित-प्रधानमंत्री के रूप में घोषित किया जा चुका था। एक या दो दिन बाद, नई दिल्ली में कुछ जाने-माने अर्थशास्त्रियों के साथ बंद कमरे में बैठक हुई। चूंकि बतौर निर्वाचित-प्रधानमंत्री वे इसमें शामिल नहीं हो सकते थे, लिहाजा एक अन्य राजनीतिक दिग्गज मुरली मनोहर जोशी ने बैठक की अध्यक्षता की।
अर्थशास्त्रियों को अपने सुझाव इस बाबत देने को कहा गया कि एनडीए सरकार को किस किस्म की आर्थिक नीतियां लानी चाहिए ताकि उसे आगे चलकर सत्ता विरोधी लहर का सामना न करना पड़े। उपस्थित अधिकांश अर्थशास्त्री चाहते थे कि राजकोषीय घाटे पर कड़ी नजर रखी जाए और चालू-खाता घाटा कम करने के तरीके खोजे जाएं। चिन्हित मुद्दों पर काफी विचार हुआ और निश्चित रूप से अन्य अहम विषयों पर भी चर्चा हुई, मसलन, रोजगार सृजन, विनिर्माण एवं निर्यात को बढ़ावा देना इत्यादि।
जब मुझसे यह सुझाव देने के लिए कहा गया कि नीतिगत ध्यान का केंद्र किस पर होना चाहिए, तो मेरा जवाब था कि बजट का 60 प्रतिशत हिस्सा उस समय कृषि क्षेत्र में काम कर रही 60 प्रतिशत आबादी के लिए रखा जाना चाहिए। मेरे कई साथी मुझसे सहमत नहीं थे, कुछ ने तो यहां तक चेतावनी दे डाली कि अगर बजट का 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि के लिए आवंटित किया गया तो आर्थिक तबाही मच जाएगी। उद्योग और बुनियादी ढांचा विकसित करने को अधिक धन देने पर जोर दिया गया और इसे उच्च आर्थिक विकास की ओर ले जाने का शर्तिया माध्यम बताया गया।
मैंने फिर भी जोर देकर कहा कि यह एक नया सांचा और आर्थिक सोच बनाने का समय है और जब तक कृषि के लिए पर्याप्त बजटीय प्रावधान नहीं किया जाता, तब तक देश सर्वांगीण विकास नहीं कर पाएगा। मुझे पता था कि मेरा सुझाव मुख्यधारा की आर्थिक सोच से मेल नहीं खाएगा। हालांकि, मेरी समझ से सत्ता विरोधी लहर से बचने की एकमात्र राह खेती और ग्रामीण विकास में पर्याप्त निवेश करना था। बैठक का समापन जोशी ने यह कहकर किया कि वे हमारे विचारों से प्रधानमंत्री को अवगत करवाएंगे।
कुछ दिनों बाद, मुझे आश्चर्य हुआ जब नई सरकार ने कृषि के लिए 60 प्रतिशत बजट प्रदान करने की अपनी मंशा की घोषणा की। कृषि में इतने संसाधन लगाने की जरूरत को लेकर मीडिया में हंगामा मच गया, कई विशेषज्ञों ने तो यहां तक कहा कि इससे अर्थव्यवस्था पीछे की दिशा में जाएगी। लेकिन मेरी दलील थी कि उच्च विकास की दिशा में कदम आगे बढ़ाते वक्त भारत अपनी दो-तिहाई आबादी को ग्रामीण इलाकों में भुगतने के लिए छोड़ नहीं सकता।
इसे संभव बनाने के लिए, और राजनीतिक दार्शनिक जॉन रॉल के ‘निष्पक्षता एवं न्याय’ सिद्धांत के अनुसार, नीति बनाते वक्त मानव पूंजी निवेश, खेती और कृषि का पुनर्निर्माण, स्वास्थ्य एवं शिक्षा क्षेत्र सहित उचित ग्रामीण बुनियादी ढांचे की स्थापना और इस प्रक्रिया में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए पर्याप्त राजकोषीय संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। संक्षेप में, यह वही है जो प्रधानमंत्री का ‘सबका साथ... सबका विकास’ वाला नारा कहता है, उसकी प्राप्ति के लिए रूपरेखा आर्थिक सोच एवं दृष्टिकोण और रुख में आमूल-चूल बदलाव लाकर फिर से तैयार की जा सकती थी। चूंकि वाजपेयी सरकार केवल 13 दिनों तक चली, इसलिए वह विचार जो परिवर्तनकारी बदलाव के लिए एक मजबूत नींव रख सकता था, वह भी गुम हो गया।
मैं यह इसलिए साझा कर रहा हूं क्योंकि सकल बजट में खेती के लिए आवंटन और भी कम हो गया है। यह देखते हुए कि कृषि पर करोड़ों लोगों की आजीविका निर्भर है, यह चिंताजनक है। 2019-20 में पहले से ही काफी कम रख गए अंश यानी 5.44 प्रतिशत के बाद, कृषि का हिस्सा 2024-25 के बजट में और गिरकर 3.15 फीसदी रह गया है। यह जानते हुए कि यह राजनीतिक और आर्थिक कारक -जिन पर बड़े कारोबारियों का काफी प्रभाव है- संसाधन आवंटन पर हावी है, गलती की भ्रंश रेखाएं स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। देश की 42.3 प्रतिशत आबादी अभी भी कृषि में लगी हुई है, इसकी वृद्धि दर वर्तमान में 1.4 प्रतिशत के आसपास मंडरा रही है। इससे भी बदतर यह है कि औसत कृषि आय में भारी गिरावट आई है। वास्तविक ग्रामीण मजदूरी एक दशक से अधिक समय से स्थिर है। निरंतर जारी कृषि संकट इतना गंभीर है कि इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जैसा कि मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं, यह इसलिए क्योंकि खेती को जानबूझकर पिछड़ा रखा गया।
अनेकानेक अध्ययन दर्शाते हैं कि अगर विकल्प मिले तो लगभग 60 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। और अगर आप हैरान हो रहे हैं कि भारतीय किसानों की हालत इतनी खराब कैसे है, तो कृषि की मौत के संकेतकों में सबसे ऊपर है, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन। इससे पता चलता है कि भारतीय कृषि सबसे निचले पायदान पर है, जिसकी सकल कृषि प्राप्ति 2022 में ऋणात्मक 20.18 प्रतिशत रही। हरियाणा की 54 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां कृषि घाटे की भरपाई करने के लिए बजटीय सहायता का प्रावधान नहीं किया गया।
हालांकि, अगर संसाधन आवंटन करते वक्त कृषि क्षेत्र में लगी आबादी की संख्या के अनुपात के अनुरूप यथेष्ट संसाधन दिए गए होते, तो आर्थिक रूप से बहुत बड़ी अक्लमंदी होती। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि संसाधन आवंटन में होती गिरावट के साथ, कृषि में चमत्कार होने की उम्मीद करना निश्चित रूप से बेमानी है। अगर 1996 में, जब तत्कालीन एनडीए सरकार कृषि और ग्रामीण विकास के लिए बजट का 60 प्रतिशत हिस्सा देने पर सहमत हो गई थी, और अगर यह जारी रहता, तो ग्रामीण भारत की शक्ल अब तक पूरी तरह बदल चुकी होती।
अब भी, जबकि कृषि व्यवसाय में लगे लोगों की संख्या घटकर 42.3 प्रतिशत रह गई है, ऐसे में यह सुनिश्चित करने के लिए मजबूत वजह है कि 48 लाख करोड़ रुपये के वार्षिक बजट का कम से कम 50 प्रतिशत कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग रखा जाए। यह, शायद, चार नई ‘जाति’ अर्थात् गरीब-महिला-युवा-अन्नदाता के उत्थान का सबसे अच्छा तरीका होगा। वास्तव में, कृषि सभी प्रकार की जाति संरचनाओं को आजीविका प्रदान करती है। कृषि में पर्याप्त संसाधन लगाने से न केवल प्रदर्शन में सुधार होता है और स्थायी आजीविका का निर्माण होता है, बल्कि उद्यमशीलता की आकांक्षाओं को भी बढ़ावा मिलता है। विश्व बैंक भी कहीं न कहीं यह स्वीकार करता है कि कृषि में उचित निवेश दुनिया के 75 प्रतिशत गरीबों की दरिद्रता कम करने में सहायक हो सकता है। ऐसे समय में जब दुनिया के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोग सबसे निचले 95 प्रतिशत लोगों की तुलना में अधिक धन इकट्ठा कर चुके हैं। ऐसे आर्थिक सिद्धांतों पर टिके रहने का कोई मतलब नहीं है, जो असमानता को और बदतर करे। इसलिए, भारत को अपनी इबारत खुद लिखने की जरूरत है। और इसकी शुरुआत कृषि को पुनर्जीवित करने से ही होगी।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।