दीर्घकालीन लक्ष्य होते हैं आदर्श बजट के
हर साल केंद्रीय सरकार पहले आर्थिक सर्वे और फिर बजट प्रस्तुत करती है। सर्वे के जरिये बताया जाता है कि अर्थव्यवस्था की हालत क्या है और बज़ट के माध्यम से अपनी सोची कार्ययोजना पेश करती है। इनको दो विचारों के मद्देनज़र देखा जाता है : मौजूदा परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में क्या किया जाना चाहिए? और क्या चीज़ें सही दिशा में जाने वाली हैं?
किंतु लगता है सरकार इतने में खुश है कि पिछले 10 सालों की सत्ता के दौरान उसकी उपलब्धि क्या रही। वित्तीय वर्ष -2023-24 में आर्थिक वृद्धि दर 8.2 फीसदी रही, इस तरह भारत दुनियाभर की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिकी बना, जबकि वर्ष 2023 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर 3.2 प्रतिशत रही। भारत को इस बात पर यकीन है 2024-25 में मुद्रास्फीति 4.5 फीसदी के अंदर रख पाएगा। लेकिन यह दृश्यावली इतनी भी गुलाबी नहीं है। वर्ष 2023-24 के बीच खुदरा महंगाई दर 5.4 प्रतिशत रही। इससे भी अधिक चिंताजनक यह कि खाद्य महंगाई दर 7.5 प्रतिशत जितनी ऊंची रही।
कुल मिलाकर, इस क्षेत्र में कारगुजारी बेहतर रहने के साथ, आर्थिक सर्वे में 2047 तक ‘विकसित भारत’ बनाने के ध्येय की पूर्ति हेतु अगले सालों में वृद्धि दर पाने की रणनीति के बारे में बताया गया है। वृद्धि निरंतर बनी रहे इसके लिए निजी क्षेत्र को अपनी पूंजी तलाशनी होगी। भारत को हरित ऊर्जा राष्ट्र में तबदील करने के लिए सार्वजनिक-निजी साझेदारी को बढ़ावा देना होगा। सरकार को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग तंत्र में खामियों को दूर करना होगा ताकि उनकी तरक्की होती रहे। नीतियों को अमलीजामा पहनाने के लिए राजकीय मशीनरी और व्यवस्था के लिए अपनी कामकाजी गति बढ़ाना जरूरी है।
यदि यह अगले 25 सालों का दीर्घकालीन ध्येय है तो इसकी शुरुआत अब हम कहां से करें? प्रथम, करदाताओं के लिए अच्छी खबर यह है कि मानक कर कटौती (स्टैंडर्ड टैक्स डिडक्शन) को 50,000 रुपये से बढ़ाकर 75,000 रुपये कर दिया गया है। टैक्स स्लैब में कुछ बदलाव किया गया है ताकि नौकरीपेशा लोगों के हाथ में 17,000 रुपये तक बचत हो पाए। व्यावसायिक लोग कार्यबल का हिस्सा बनें, इसके लिए उन्हें प्रोत्साहन पैकेज मिलेगा। इससे 20 लाख से अधिक युवाओं को फायदा होने की उम्मीद है। न केवल वेतन पाने वालों को बल्कि पूंजी निवेश से लाभ कमाने वालों को भी आमदनी कर में छूट देकर राहत दी गई है।
इस प्रकार, यह बजट मध्य वर्ग का मददगार है, क्योंकि उन्हें कर कम चुकाना पड़ेगा। विद्रूपता यह कि सबसे गरीब तबका, जिसे यूं तो आयकर नहीं देना पड़ता, तथापि अपने उपभोग की तमाम उन वस्तुओं पर वह कर चुकाता है, जो जीएसटी तंत्र के तहत आती हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों को जीएसटी से जुड़े विषयों में सुधार और अधिक किए जाने की जरूरत है, हालांकि इन पर सर्वसम्मति पाना सदा कठिन रहा है। इसके अलावा, यह भी गलत है कि सेस से होने वाली कमाई अकेले केंद्र के हिस्से आए, जिसे वह आगे राज्यों से बांटना नहीं चाहता। उगाहे गए कराधान की जरूरत सूबों को भी उतनी है ताकि वे अपने विकास ध्येयों को पूरा कर पाएं। मसलन, गरीब छात्रों के लिए शिक्षा सुनिश्चित करना।
बज़ट में भाजपा के सहयोगी दल, जैसे कि नीतीश कुमार के जद यू और चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम पार्टी को खुश करने के लिए कई बड़ी परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई है। भाजपा, जिसके पास अपने बूते सरकार बनाने का पूर्ण बहुमत नहीं है, हर हीले-हवाले से केंद्र में अपनी सत्ता कायम रखना चाहेगी। स्वीकृत मुख्य परियोजनाओं में, पटना-पूर्णिया और बक्सर-भागलपुर एक्सप्रेस-वे के अतिरिक्त बिहार के बक्सर जिले में गंगा नदी पर दो लेन वाला पुल बनना है। इसके अलावा, भागलपुर के पीरपैंती में 2400 मेगावाट क्षमता वाला बिजलीघर बनेगा। आंध्र प्रदेश के लिए रेल एवं सड़क मार्ग परियोजनाएं घोषित की गई हैं, इसकी नई बनने वाली राजधानी के लिए 15,000 करोड़ रुपये देना घोषित किया गया है।
इस बजट, जो कि राजनीति साधने का उपाय अधिक है, का ध्येय साफ है—यह सुनिश्चित करना कि भाजपा के मुख्य सहयोगी दल- जिनकी बैसाखी के बिना भाजपा सत्ता में नहीं टिक पाएगी– और मध्य वर्ग संतुष्ट रहे। मध्य वर्ग को खुश करने के पीछे मुख्य वजह भाजपा पर हावी व्यापारी वर्ग का धंधा चलाए रखने के आरोप से मुक्ति क्योंकि, यदि चुनावी आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए तो छोटे वोट बैंक के तौर पर मध्य वर्ग की हैसियत नहीं है कि चुनाव परिणामों पर फर्क डाल सके। सत्ताधारियों का मनोरथ सदा अपने लोगों को खुश रखना होता है।
तात्कालिक में, सरकार के लिए चीज़ें अच्छी नहीं हैं। बेशक दुनियाभर के आर्थिक टीकाकार भारत की उच्च वृद्धि दर की वाहवाही करें, लेकिन यह वृद्धि लगातार बनी रहे, इसके लिए कार्यबल का निरंतर बेहतर कौशल से लैस होते रहना और उसका स्वास्थ्य बढ़िया रहना नितांत जरूरी है। लेकिन मौजूदा बजट में इन महत्वपूर्ण विषयों के लिए नए कार्यक्रम केवल नाम भर के हैं। इसलिए कुल मिलाकर महसूस यह हो रहा है कि भले ही सत्ताधारी दल को अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं की तो समझ पूरी है, लेकिन नज़रिया दूरदर्शी नहीं है।
बजट से उम्मीदें उन मुद्दों को भी रेखांकित करने की थी जो वक्त की जरूरत है, चाहे जमीनी हकीकत कुछ भी हो। आर्थिक वृद्धि दर की ऊपर उठती रेखा के बावजूद, वस्तुओं की बाजार मांग कमजोर है, रोजगार के मौके गंभीर रूप से बहुत कम हैं। क्या उच्च आर्थिक वृद्धि का फल अधिकांश लोगों को मिल रहा है? और यह बिंदु कुछ तकनीकी है–क्या मुद्रास्फीति दर कम बताने वाली गणना वाकई सही है?
इस पर बहुत से लोगों की दलील है कि वृद्धि दर उतनी नहीं है जितनी बताई जाती है, क्योंकि नोटबंदी और कोविड-19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ। इसलिए, एक प्रकार से, यह खुद को दुबारा स्थापित करने की कोशिश है। वस्तुओं की मांग इसलिए नहीं है कि लोग अधिक बचत करने में लगे हैं बल्कि वे अपनी खपत इसलिए कम कर रहे हैं ताकि वह ऋण उतारा जा सके जो उन्होंने नोटबंदी और महामारी में आमदनी न रहने पर उठाया था। खुदरा महंगाई दर इसलिए काबू में नहीं है कि आपूर्ति बहुतायत में है वरन् इसलिए है कि लोग वह खरीद नहीं पा रहे, जो वो चाहते हैं।
फिर यहां एक बहुत बड़ा विरोधाभास भी है। यदि आर्थिकी और व्यापार लगातार बढ़िया कर रहा है, तब रिज़र्व बैंक के लिए ऋण दर कम रखना लाजिमी हो जाता। लेकिन फिर, बैंक पैसा जमा करवाने वालों को और लुभाने के लिए बचत खाते पर उच्च दर से ब्याज कैसे दे पा रहे हैं? इसलिए, बैंकों में ऋण और बचत के बीच असंगतता देखने को मिल रही है।
कुल मिलाकर, बज़ट लघु-कालीन ध्येय के संबंध में वास्तविकता लिए हुए है। यह मध्य वर्ग द्वारा मध्य वर्ग का ध्यान रखने की कवायद है। लेकिन दीर्घकालीन वृद्धि सुनिश्चित करने का इसमें ख्याल नहीं किया गया।
लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।