समरसता की सोच
देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने दो अहम फैसलों में स्पष्ट संकेत दिया है कि धर्मनिरपेक्षता को पश्चिमी देशों से आयातित शब्द के नजरिये से देखने के बजाय भारतीय संविधान की आत्मा के रूप में देखना चाहिए। साथ ही यह भी कि भारतीय संदर्भ में यह सोच सदा से रची-बसी रही है। धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की मूल विशेषता बताते हुए कोर्ट ने कहा कि संविधान में वर्णित समानता व बंधुत्व शब्द इसी भावना के आलोक में वर्णित हैं। साथ ही धर्मनिरपेक्षता को भारतीय लोकतंत्र की अपरिहार्य विशेषता बताते हुए कहा कि यह समाज में व्यापक दृष्टि वाली उदार सोच को विकसित करने में सहायक है। जिसके बिना स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। जो राष्ट्रीय एकता का भी आवश्यक अंग है। दरअसल, शीर्ष अदालत ने अपने दो हालिया फैसलों के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की विस्तृत व्याख्या की है। पहले बीते सोमवार को संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं के बाबत कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का हिस्सा बताया। वहीं अदालत ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता को लेकर अपनी सुविधा अनुसार व्याख्या नहीं की जा सकती। कोर्ट का निष्कर्ष यह भी था कि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़े जाने से पहले भी यह भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण सोच रही है। अदालत का कहना था कि समानता व बंधुत्व शब्द इसकी मूल भावना को ही अभिव्यक्त करते हैं। वैसे भारतीय समाज ने इस शब्द के मूल भाव का सहजता से अंगीकार किया भी है। यही वजह है कि कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान का मूल स्वर बताते हुए इसकी संकुचित व्याख्या करने से बचने के लिये कहा। भारतीय समाज का बहुधर्मी व विभिन्न संस्कृतियों का गुलदस्ता होना भी इसकी अपरिहार्यता को दर्शाता है। निश्चित रूप से अदालत ने इस मुद्दे पर अपनी राजनीतिक सुविधा के लिये तल्खी दिखाने वाले नेताओं को भी आईना दिखाया है। निस्संदेह, यह वक्त की जरूरत भी है।
वहीं दूसरी ओर बीते मंगलवार को शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट 2004 को रद्द करने के फैसले को भी अनुचित ठहराया। इसके बजाय कोर्ट ने ऐसे कदम उठाने की जरूरत बतायी जो मदरसों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ सकें। कोर्ट को मानना था कि ऐसे मामलों की की गई संकुचित व्याख्या से उत्पन्न होने वाली विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए। कोर्ट ने इससे पहले संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं से तल्ख सवाल भी किए थे। कोर्ट न जानना चाहा कि क्यों उन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से परहेज है। इस बाबत याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि उन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से परेशानी नहीं है। उन्हें राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक लक्ष्यों के लिये कालांतर संविधान संशोधन के जरिये इस शब्द को शामिल करने पर आपत्ति है। दरअसल, अदालत का कहना था कि भारतीय जीवन दर्शन में इस सोच का गहरे तक अंगीकार किया गया है। साथ ही कोर्ट ने मदरसा एजुकेशन एक्ट को रद्द करने को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विपरीत बताया। यह भी कि इस शब्द की संकुचित व्याख्या के चलते ही उत्तर प्रदेश के हजारों मदरसों के लाखों छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया था। अदालत का मानना था कि मदरसों पर रोक लगाने के बजाय उनके पाठ्यक्रम को वक्त की जरूरत और राष्ट्रीय सोच के अनुरूप ढालना जाना चाहिये। जिससे छात्रों की व्यापक दृष्टि विकसित हो सके। अदालत ने दो टूक कहा भी कि यदि किसी भी प्रकार से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा कमजोर पड़ती है तो अंतत: इसका नुकसान समाज व देश को ही उठाना पड़ेगा। यह भारतीय समाज में सदियों से फल-फूल रही गंगा-जमुनी संस्कृति के पोषण की भी अपरिहार्य शर्त है। साथ ही एक वाइब्रेंट लोकतांत्रिक समाज की आवश्यकता भी है। निश्चित तौर पर शीर्ष अदालत की ये टिप्पणियां जहां राजनीतिक दलों को आईना दिखाती हैं, वहीं आम लोगों को उदारवादी दृष्टिकोण के साथ सह-अस्तित्व की सोच का पोषण करने की जरूरत भी बताती हैं। जो वक्त के हिसाब से तार्किक भी है।