एक गृहस्थ की उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धि
डॉ. मधुसूदन शर्मा
छब्बीस सितंबर, 1895 को काशी के गरुडेश्वर मोहल्ले में, ब्रह्मस्वरूप गुरु योगिराज श्री श्री लाहिड़ी महाशय ने महाष्टमी के संधि क्षणों में सचेतन रूप से अपना शरीर छोड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने शिष्यों को पहले से ही महासमाधि का दिन और समय बताया था। उस दिन, भक्तगण आंसुओं के साथ अंतिम दर्शन के लिए खड़े थे। लाहिड़ी महाशय ने उन्हें आश्वस्त किया कि उनका स्थूल शरीर नष्ट होगा, लेकिन वे हमेशा उनके साथ रहेंगे। इसके बाद, वह गहरे ध्यान में चले गए और लौकिक बंधनों को तोड़कर अनंत ब्रह्मांडीय चेतना में विलीन हो गए। उनका महासमाधि दिवस एक प्रेरणा का स्रोत बना, जो साधकों को ध्यान और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
क्रिया योग का पुनर्जीवन
लाहिड़ी महाशय, जिनका पूरा नाम श्यामाचरण लाहिड़ी था, योग के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित थे। उन्हें योगावतार कहा जाता है। लाहिड़ी महाशय भारतीय योग परंपरा में क्रिया योग के पुनर्जीवनकर्ता माने जाते हैं। उनका जन्म 30 सितम्बर, 1828 को बंगाल के घुरनी गांव में एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका प्रारंभिक जीवन साधारण था और उन्होंने सामान्य शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही उनका आध्यात्मिक झुकाव था, और वह अक्सर पद्मासन में घंटों शांति से बैठे रहते थे।
महावतार बाबाजी से दीक्षा
लाहिड़ी महाशय का जीवन तब पूरी तरह बदल गया जब उनकी मुलाकात हिमालय में अमर गुरु महावतार बाबाजी से हुई। बाबाजी ने उन्हें क्रिया योग की दीक्षा दी और इसे सुपात्रों को दीक्षा देने का आदेश दिया। क्रिया योग आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने की एक उच्चतम तकनीक है, जो श्वास और प्राणायाम पर आधारित है, और साधक को ध्यान की उच्चतर अवस्थाओं तक पहुंचने में सहायक होती है।
एक गृहस्थ योगी
लाहिड़ी महाशय एक गृहस्थ थे और उन्होंने नौकरी करते हुए योग साधना को जीवन में अपनाया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि योग का अभ्यास केवल संन्यासियों के लिए नहीं है, बल्कि एक साधारण गृहस्थ भी उच्चतम आध्यात्मिक अवस्थाओं को प्राप्त कर सकता है। उनके जीवन का यही संदेश था कि किसी भी सामाजिक परिस्थिति में रहते हुए व्यक्ति योग का अभ्यास कर सकता है और आत्मिक उन्नति कर सकता है।
हज़ारों शिष्यों को दीक्षा
कई सौ वर्षों से लुप्त आत्मसाक्षात्कार की इस उन्नत तकनीक क्रिया योग को लाहिड़ी महाशय ने अपने गुरु महावतार बाबाजी के आदेश पर हजारों शिष्यों को दीक्षित किया। उनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी युक्तेश्वर, स्वामी प्राणवानंद, स्वामी केशवानंद और भूपेंद्र सान्याल आदि शामिल थे। स्वामी युक्तेश्वर ने आगे चलकर क्रिया योग के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार के लिए अपने प्रिय शिष्य परमहंस योगानंद को पश्चिम भेजा, जिन्होंने पश्चिम में योग और ध्यान को लोकप्रिय बनाया। परमहंस योगानंद जी की आत्मकथा ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ पहली बार 1946 में प्रकाशित हुई, जिसने पश्चिमी दुनिया में ध्यान योग के प्रति गहरी रुचि उत्पन्न की।
आत्मज्ञान व्यक्तिगत यात्रा
लाहिड़ी महाशय का अपने बारे में विज्ञापन या प्रचार-प्रसार में कोई रुचि नहीं थी। वे अपने योग के अनुभवों और साधना के बारे में केवल उन लोगों से बात करते थे जो सच्चे आत्मिक अन्वेषण के इच्छुक थे। उनका मानना था कि आत्म-ज्ञान और ईश्वर से संबंध एक व्यक्तिगत यात्रा है, जिसे किसी बाहरी प्रचार के माध्यम से नहीं फैलाना चाहिए। उन्होंने अपने शिष्यों को भी यही सिखाया कि सच्ची साधना को गुप्त रूप से और बिना किसी अहंकार के करना चाहिए। उनका जीवन यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान और आंतरिक शांति को बाहरी प्रशंसा, प्रसिद्धि या प्रचार की आवश्यकता नहीं होती।
महासमाधि का महत्व
लाहिड़ी महाशय का महासमाधि दिवस केवल एक योगी के देह त्याग का दिन नहीं है, बल्कि यह उनकी शिक्षाओं और उनके द्वारा स्थापित योग मार्ग को पुनः स्मरण करने का दिन है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि एक साधारण गृहस्थ जीवन में भी उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। महासमाधि का यह संदेश है कि ध्यान योग के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार संभव है।
महासमाधि के बाद दिव्य दर्शन
परमहंस योगानंद जी ने अपनी क्लासिक ‘योगी कथामृत’ में लाहिड़ी महाशय की महासमाधि के अगले दिन प्रातः 10 बजे की एक घटना का उल्लेख किया है। लाहिड़ी महाशय के तीन शिष्य, स्वामी केशवानंद, स्वामी प्राणवानंद, और पंचानन भट्टाचार्य, अलग-अलग स्थानों पर थे, लेकिन उन्हें एक ही समय पर सुबह 10 बजे लाहिड़ी महाशय के दर्शन हुए। मान्यता है कि ये तीनों शिष्य गुरु के प्रति गहरे आत्मिक जुड़ाव और निष्ठा से जुड़े थे, और इसीलिए उन्हें महासमाधि के बाद भी गुरु के दिव्य दर्शन प्राप्त हुए।