भूख के संकट से बचाने वाला महानायक
उन्हें भारत में हरित क्रांति का पितामह कहा जाता है, प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन, बेहतरीन विज्ञानी एवं प्रशासक, जीते जी किंवदंती बने, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव कुर्त वाल्डहाइम ने पत्र लिखकर बधाई देते हुए विश्व का पहला खाद्य पुरस्कार विजेता घोषित किया। उनके देहावसान से एक युग का अंत हुआ है।
उन्होंने एक बार मुझे बताया- ‘हरित क्रांति के इतिहास की शुरुआत दरअसल इंदिरा गांधी के साथ कार-यात्रा में आधे घंटे की बातचीत से शुरू हुई।’ यह पूछने पर कि इस भावी कृषि क्रांति को संबल देने लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी, वह पाना कितना मुश्किल रहा। इस पर प्रो. स्वामीनाथन ने यादों के पिटारे से बताया कि उस वक्त मैं नयी दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में निदेशक था और पूसा परिसर में एक नये भवन का उद्घाटन करने इंदिरा गांधी आईं, मैं उनके साथ था, रास्ते में प्रधानमंत्री ने पूछा ‘स्वामी, मैं आपके द्वारा बताए नए किस्म के गेहंू पर दांव खेलने को तैयार हूं, लेकिन क्या आप मुझे यह वचन दे सकते हैं कि आज से दो सालों के बाद हमारे पास जरूरत के गेहूं के अलावा 1 करोड़ टन अतिरिक्त अन्न होगा, क्योंकि मैं पीठ पर सवार दुष्ट अमेरिकियों को उतार फेंकना चाहती हूं।’ स्वामीनाथन ने वचन दिया और जो कर दिखाया, इतिहास है।
वह देश, जो जिंदा रहने के लिए दो जून की रोटी जुटाने लायक नहीं था और करोड़ों लोगों का पेट भरने के लिए समुद्री जहाज़ों में लदकर खाद्यान्न आते थे, वहां कृषि-क्रांति से हुए परिवर्तन ने न केवल आत्म-निर्भरता बनाई बल्कि एक निर्यातक भी बना दिया। राजनीतिक नेतृत्व के यथेष्ट समर्थन से हुई हरित क्रांति की गाथा का प्राथमिक उद्देश्य देश को भुखमरी के चंगुल से निकलना था। बंगाल में 1943 के महा-अकाल के महज चार साल बाद मिली आज़ादी के बाद भी भुखमरी की चुनौती से निजात नहीं मिल पाई। दशकों तक, पीएल-480 योजना के तहत खाद्यान्न उत्तर अमेरिका से आता रहा।
मालूम हो कि विश्व के अनेकानेक प्रभावशाली लोगों ने भारत को नकारा मान लिया था, कुछेक ने तो यहां तक भविष्यवाणी कर डाली कि 1970 के दशक के मध्य तक, बाकियों का पेट भरने के लिए आधे भारतीयों के जीवन को समाप्त करना पड़ सकता है। भुखमरी से लड़ाई की प्रो. स्वामीनाथन की नियति, विश्व के इतिहास में, सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक घटनाओं में एक के रूप में दर्ज होगी। न केवल इसने देश के भीतर करोड़ों लोगों की जिंदगी बदल दी बल्कि शेष दुनिया के लिए भी प्रेरणा बनी।
हरित क्रांति के पुरोधा प्रो. स्वामीनाथन को भी सघन कृषि के नकारात्मक परिणामों का बखूबी भान था। वे हर मायने में दूरदृष्टा थे और कई बार उन्होंने न दिखाई पड़ने वाली भावी विफलता की चेतावनियां दीं। वर्ष 1968 में, हरित क्रांति शुरू होने के एक साल बाद, उन्होंने लिखा ‘मिट्टी की प्रजनन शक्ति और संरचना को बचाए बगैर भूमि पर सघन खेती करते जाने का हश्र मरुस्थल बनाना है। कीट-फफूंद-खरपतवार नाशकों के अंधाधुंध उपयोग से इनका विषैला अंश अन्न और अन्य खाद्य पदार्थों में समा जाएगा और इससे कैंसर जैसे रोग बढ़ेंगे। भूजल के गैर-वैज्ञानिक दोहन से इस नैसर्गिक पूंजी में तेजी से ह्रास होगा।’
फिलीपींस स्थित अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान में निदेशक रहते हुए उन्हें इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो से असामान्य संकट-संदेश मिला, जब भूरे टिड्डों की वजह से देश की धान फसल को बहुत नुकसान हुआ। सुहार्तो ने प्रो. स्वामीनाथन को इसका निदान निकालने को कहा। उन्होंने और तीव्र कीटनाशक इस्तेमाल करने की बजाय वैज्ञानिकों की टीम इंडोनेशिया भेजी जिसने सुहार्तो को कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने की सलाह दी। ठीक इसी वक्त एकीकृत कीट-प्रबंधन अभियान चलाया। सुहार्तो ने अध्यादेश जारी कर 57 कीटनाशकों को प्रतिबंधित कर दिया।
बहुत से लोगों को मालूम नहीं होगा कि प्रो. स्वामीनाथन तकनीक के अंध-विश्वासी नहीं थे। यहां तक कि जिन दिनों अानुवंशिक रूप से संशोधित धान (जेनेटिकली मॉडिफाइड राइस) के खिलाफ अभियान सबसे तीखा था, तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को दिया उनका मशविरा बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति रोककर रखने के पीछे मुख्य कारक था। चेन्नई स्थित एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन में आयोजित प्रेस-वार्ता में उन्होंने फली की एक फोटो दिखाई और जीएम राइस के औचित्य पर सवाल उठाया। यहां उनका कहने का मतलब था कि रिवायती तौर पर चावल पकाते वक्त जो फलियों की पत्तियां डाली जाती हैं उससे विटामिन-ए खुद-ब-खुद प्राप्त हो जाता है।
यदि केवल समय-समय पर प्रो. स्वामीनाथन द्वारा उठाई चिंताओं पर नीति निर्माता ध्यान देते रहते तो भारतीय कृषि अपनी सततता बनाए रखने पर बने घोर संकटों में न फंसती। उन्होंने सेंट्रल एडवाइज़री बोर्ड ऑन प्लांट रिसोर्स ऑफ सीजीआईएआर (जो कि अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्रों का एक समूह है) की अध्यक्षता भी की है। मैं उस वक्त सीजीआईएआर के बौद्धिक संपदा अधिकार हेतु केंद्रीय परामर्श प्रकोष्ठ का सदस्य था। वैश्विक स्तर पर उपलब्ध पौध आनुवंशिक स्रोत सीधे निजी कंपनियों को देने पर लगी रोक में निभाई उनकी महत्ती भूमिका गोपनीय बनी रही। मैं चश्मदीद गवाह हूं कि वैश्विक जैव-विविधता खज़ाने का निजीकरण करने वाले प्रयासों को विफल करने में उन्हें कितने बड़े स्तर पर प्रयास करने पड़े थे।
जब प्रो. स्वामीनाथन को वर्ष 2004 में राष्ट्रीय किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने मुझे आयोग का ज़ीरो-ड्राफ्ट लिखने के लिए आमंत्रित किया था, जिसको अंतिम रूप देने से पहले देशभर में विचार और विमर्श किया जाना था। मुझे मिले दिशा-निर्देशों में किसान को केंद्र में रखना और फिर यह देखना कि उसकी हालत में सुधार कैसे हो। लेकिन बाद में जब मुख्य केंद्र बिंदु के तौर पर केवल किसान न होकर कृषि क्षेत्र के विभिन्न खिलाड़ियों के हित भी शामिल करने को कहा गया, तो मैंने माफी मांगकर किनारा कर लिया। लेकिन इस सब के बीच, प्रो. स्वामीनाथन के ध्यान का केंद्र किसानों की आय-सुरक्षा बनाना रहा। जहां वे खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में किसानों की भूमिका के प्रशंसक थे वहीं कृषकों को दरपेश मुश्किलों को लेकर सदा चिंतित भी।
वर्ष 2004 से 2006 के बीच, चार हिस्सों में प्रस्तुत स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट का उद्देश्य भारतीय कृषि में उत्पादन, मुनाफा और सततता को बढ़ावा देना था। देशभर के किसान संगठनों की मांगें इस रिपोर्ट के इर्द-गिर्द रहीं। उनका यह सुझाव कि किसान की फसल का भाव, औसत लागत में 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर तय हो, इस पर एक के बाद एक आई सरकारों ने अमल नहीं किया। इस महान दूरदृष्टा को देश की ओर से सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि स्वामीनाथन रिपोर्ट पर अक्षरशः और इसकी पूरी भावना सहित क्रियान्वयन हो।
लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।