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शुचिता से धन अर्जन में ही जीवन का सुख

06:29 AM Jul 10, 2023 IST

धर्मदेव विद्यार्थी

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मनुष्य जीवन का प्रारंभ परिवार से होता है। समाज और राष्ट्र की प्रथम इकाई परिवार है। परिवार व्यक्तियों से ही बनता है। लेकिन यदि परिवार की नीव व्यक्ति ही सुदृढ़ न हो तो परिवार भी सुदृढ़ नहीं बन सकता वहीं समाज और राष्ट्र भी सुदृढ़ नहीं होंगे। आश्चर्य की बात है। परिवार में रहकर ही परंपरागत रूप से व्यक्ति सद‍्व्यवहार व सद‍्गुण आदि सीखता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में जीवन को 16 संस्कारों में बांटा गया है जिसमें सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार है अर्थात उत्तम संतान उत्पत्ति कैसे की जाए? बालक को संस्कारवान, धार्मिक और चरित्रवान कैसे बनाया जाये? लेकिन ऐसे प्रश्नों का प्रशिक्षण देने का कहीं प्रबंध नहीं है। परिणाम यह कि समाज की प्रथम इकाई परिवार प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है। शतपथ ब्राह्मण का वचन है : ‘मातृमान, पितृमान, आचार्यमान, पुरुषों वेद:’ अर्थात‍् माता-पिता और आचार्य जब ज्ञानवान हों तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है। ज्ञान शिक्षा से प्राप्त होता है। ऐसे में जब परिवार का ताना-बाना बिखर जाने से अनेक रिश्ते कमजोर या खत्म हो गए हैं तो सामाजिक व शैक्षणिक संस्थाओं का दायित्व बढ़ जाता है। परस्पर प्रेम भाव संयुक्त परिवार प्रणाली में मौजूद था परंतु एकल परिवार प्रणाली में इसका अभाव है। यह सरकार और समाज की संयुक्त नीति के जरिये संभव है। इसलिए समाज की प्रथम इकाई परिवार को स्नेह और सामंजस्य के से मजबूत करना आवश्यक है।
जीवन का दूसरा स्तंभ शिक्षा है जिससे परिवार सबल होता है। नई शिक्षा नीति के माध्यम से कुछ बिंदुओं को पुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है तथापि यह पर्याप्त नहीं है। ऋषियों की मान्यता है कि बालक के पैदा होने से 5 वर्ष तक का समय अत्यंत संवेदनशील होता है परंतु अधिकतर माता-पिता बच्चे को बुद्धिहीन जानकर असंतुलित व्यवहार करते हैं जिसका कुप्रभाव पड़ता है। शिक्षा विद्या प्राप्त करने का माध्यम है परंतु हमने शिक्षा को ही विद्या मान लिया है। वहीं शिक्षा का माध्यम क्या हो व शिक्षा किस भाषा में दी जाए यह प्रश्न भी उलझा हुआ है। दरअसल मुगलों और अंग्रेजों के शासनकाल के पश्चात भारतीय शिक्षा का अधोपतन हो गया। मैकाले की शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप बालक साहित्य, हस्त कला व शिल्प कला, संगीत, गणित, विज्ञान व ज्योतिष तथा अध्यात्म शिक्षा में विशेष उपलब्धि नहीं प्राप्त कर पाए। इसकी पूर्ति के लिए डीएवी संस्थाओं सहित अन्य अनेक संस्थाओं ने प्रयत्न किया परंतु मौजूदा तंत्र में भारतीय विद्या को प्रकाशित करने का सुव्यवस्थित कार्य नहीं कर पाए। शिक्षा का उद्देश्य मानवीय गुणों का विकास करना है। ‘सा विद्या या विमुक्तए’- जो विद्या हमें निर्णय लेने में स्वतंत्र, आत्मनिर्भर बनाए वही विद्या है। कोरा किताबी ज्ञान विद्या नहीं है। लेकिन अंग्रेजों ने शिक्षा का उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना रखा। लेकिन कृषि, गोपालन, वस्त्र निर्माण, भवन निर्माण, केश कर्तन, पाक विद्या जैसे घरेलू उत्पादन में पारंगत होने के बावजूद हमारा युवा आत्मनिर्भर नहीं। असल शिक्षा का उद्देश्य छात्र की कर्मठता, मानवीयता आदि गुण होने चाहिए।
वेद शास्त्रों में दी गई धर्म की परिभाषा के मुताबिक, धर्म शब्द का अर्थ है धारण करना अर्थात‍् ऐसे नियम और सिद्धांत जिनसे प्राणी मात्र का कल्याण हो उनका पालन करना। वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता। ऐसे ही विद्यार्थी का धर्म विद्या प्राप्त करना, अध्यापक का धर्म अध्यापन करना, कर्मचारी का धर्म कर्म करना इत्यादि है। यह सभी मत-संप्रदायों के लिए समान है। भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ बताए गए हैं। उक्त तीन का आधार धर्म ही है। पूजा पाठ या परमात्मा की उपासना में जीवन लगाना ही धर्म नहीं है वहीं कोरी भौतिकता या केवल धन कमाना भी धर्म नहीं है। केवल मनुष्य ही मोक्ष अर्थात परम आनंद की इच्छा रखता है। यह आनंद मृत्यु के पश्चात नहीं जीवित रहते हुए ही प्राप्त करना है। इसके लिए कर्म करना अनिवार्य है। हमारा कर्म सत्य आचरण, परोपकार के निमित्त, सर्व कल्याणकारी सबकी उन्नति की वृद्धि करने वाला हो यही धर्म है। धर्म जीवन की समग्र दृष्टि है। माता-पिता आदि पारिवारिक, व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, साहित्य, आध्यात्मिक, इत्यादि विभिन्न प्रकार के कर्म सहित कर्तव्य ही धर्म है।
भारतीय परंपरा में अर्थ वह है जो धर्म से प्राप्त किया जाए। परिश्रम से जो धन हम अर्जित करते हैं वही अर्थ है। चोरी, लूट, शोषण इत्यादि से प्राप्त धन अर्थ नहीं है। भारतीय विद्वानों ने अर्थ संग्रह ,वृद्धि और खर्च के लिए चार पुरुषार्थ का उल्लेख किया है— प्रथम अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा, द्वितीय प्राप्त धन की रक्षा की इच्छा, तृतीय धन की वृद्धि और चतुर्थ धन का खर्च। जैसे कि धन का अपव्यय तो नहीं हो रहा या अधर्म के कार्य में तो नहीं लग रहा। इस संबंध में प्रशिक्षण की नितांत आवश्यकता है। विद्वानों ने प्रत्येक व्यक्ति को कमाई का 10 फीसदी परोपकार में खर्च करने का प्रावधान किया है। नयी पीढ़ी को शिक्षित कर सुयोग्य बनाने के स्थान पर शॉर्टकट से धन कमाना बता दिया गया। ऐसी प्रवृत्तियों से देश में बेकारी की समस्या, असीमित उपभोग की समस्या, जमाखोरी, और भ्रष्टाचार का जन्म हुआ है। धर्मपूर्वक कमाये धन को सही प्रकार व दिशा में खर्च करने का तरीका जिसने समझ लिया वह सुखी जीवन यापन करेगा। समाज व राष्ट्र तभी उन्नत होंगे जब पारिवारिक मूल्यों, सार्थक शिक्षा, धर्म व धर्मपूर्वक अर्थ की प्राप्ति-जीवन के चार स्तंभों को चिंतन और प्रशिक्षण के जरिये दृढ़ किये जायें।

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अर्जनशुचिता