For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

बुलडोजर पर न्याय का हथौड़ा

06:44 AM Nov 15, 2024 IST
बुलडोजर पर न्याय का हथौड़ा
Advertisement

सही मायनों में यह सुप्रीम कोर्ट का एक सख्त फैसला था, लेकिन यह समय की जरूरत भी थी। कथित बुलडोजर न्याय पर रोक लगाकर शीर्ष अदालत ने यह संदेश दिया है कि संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों का कार्यपालिका मनमाने तरीके से अतिक्रमण नहीं कर सकती। निश्चित रूप से किसी भी मामले में एक आरोपी पर मुकदमा चलाए बिना ही दंड देना, नैसर्गिक न्याय की अवधारणा के ही विरुद्ध है। लेकिन साथ ही अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि सरकारी संपत्ति और सार्वजनिक स्थलों पर होने वाले अवैध निर्माण इस आदेश की परिधि में नहीं आते। दरअसल, हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ कथित बुलडोजर न्याय का सिलसिला दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान से लेकर असम तक जा पहुंचा। कई राज्यों ने अपराधी तत्वों पर अंकुश लगाने की मंशा जाहिर करते हुए बुलडोजर से दंड देने को कारगर तरीका मान लिया। जिसको लेकर सामाजिक प्रतिक्रिया के साथ ही राजनीतिक दलों की ओर से भी सख्त विरोध दर्ज किया गया। उन्होंने इसे अतार्किक और प्रचलित कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन बताया। हालांकि, समाज में आम लोगों के एक वर्ग में इसके प्रति समर्थन भी देखा गया। जिसका मानना था कि न्यायिक प्रक्रिया में दंड देने की अवधि खासी लंबी होती है। जिसके चलते धनबल और बाहुबल के आधार पर अपराधी मामले को लंबा खींचने में सफल हो जाते हैं। दरअसल, समाज के एक वर्ग में इस शीघ्र न्याय की आकांक्षा की सरकारों ने अपनी प्राथमिकताओं व सुविधाओं के अनुसार व्याख्या कर दी। वहीं दूसरी ओर प्रशासनिक स्तर पर इस कार्रवाई के बचाव में कई तरीके के तर्क गढ़े जाते रहे। जिसके चलते बुलडोजर न्याय की तार्किकता को लेकर दुविधा पैदा हुई। यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने ऐसे तमाम सवालों पर मंथन करते हुए कानूनन और संवैधानिक दृष्टि से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा को लेकर महत्वपूर्ण फैसला दिया। जो आम नागरिकों को सत्ता की निरंकुशता से बचाव का कवच उपलब्ध कराता है। साथ ही यह फैसला न्याय व्यवस्था के प्रति जनता के भरोसे को भी बढ़ाता है।
इसमें दो राय नहीं कि इस फैसले के जरिये शीर्ष अदालत ने कार्यपालिका को उसकी सीमा का अहसास ही कराया है। दूसरे शब्दों में, खुद ही आरोप तय करके और खुद ही न्याय करने की लोकसेवकों की कोशिश को सिरे से नकार दिया है। कोर्ट ने आईना दिखाया कि शासन-प्रशासन ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर अन्याय करने वाले कथित बुलडोजर न्याय को तार्किक बताने का प्रयास किया। जबकि बिना मुकदमा चलाये किसी को सजा देने का अधिकार किसी लोकसेवक को नहीं है। वैसे भी किसी भी अपराधी के कृत्य की सजा उसके पूरे परिवार को नहीं दी जा सकती। किसी एक घर को बनाने में व्यक्ति के जीवन की पूरी पूंजी लग जाती है। जिसे कुछ घंटों में बिना प्रतिवाद का मौका दिए ध्वस्त करना, जंगलराज का ही पर्याय कहा जा सकता है। यही वजह है कि अदालत ने अपने फैसले में कहा कि यदि किसी व्यक्ति का घर तोड़ने की कार्रवाई कानून की प्रक्रिया के विरुद्ध पायी जाती है तो तोड़े गए घर को बनाने का खर्च संबंधित अधिकारी के वेतन से काटा जाएगा। लेकिन दूसरी ओर अपने फैसले के आलोक में शीर्ष अदालत यह बताने में नहीं चूकी कि यह फैसला सरकारी जमीन, सार्वजनिक स्थलों मसलन रेलवे लाइन, फुटपाथ, सड़क पर किए गए अतिक्रमण या गैरकानूनी निर्माण पर लागू नहीं होगा। वैसे यह भी एक हकीकत है कि सार्वजनिक भूमि पर होने वाले अनधिकृत निर्माण और अतिक्रमण रातोंरात नहीं होते। ये अवैध कार्य राजनीतिक संरक्षण व नौकरशाही की मिलीभगत के बिना संभव नहीं हैं। कई मामलों में महीनों नहीं, सालों तक कोई कार्रवाई नहीं होती। जिससे कब्जा करने वालों के हौसले बढ़ते हैं। निश्चित रूप से किसी अवैध संरचना को समयबद्ध और कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए ही ध्वस्त किया जा सकता है। साथ ही प्रतिवादी को अपनी बात रखने का मौका भी मिलना चाहिए। कह सकते हैं कि शीर्ष अदालत ने सख्त फैसला देने के साथ न्यायिक संतुलन का आदर्श प्रस्तुत किया है। जो कालांतर लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक मूल्यों को समृद्ध करेगा।

Advertisement

Advertisement
Advertisement