मुफ़्त की बड़ी कीमत
सत्ता हासिल करने के लिये शॉर्टकट रास्ता अख्तियार कर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की कीमत अब पंजाब और हिमाचल चुका रहे हैं। दोनों राज्य फिलहाल गंभीर वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। निश्चित तौर पर यह आर्थिक संकट चुनावी अभियानों के दौरान किए गए लोकलुभावन वायदों के चलते ही उत्पन्न हुआ है। जिसके कारण पिछले दिनों हिमाचल में कर्मचारियों को वेतन व सेवानिवृत्त कर्मियों को पेंशन देने में व्यवधान देखा गया। पंजाब में विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी ने मतदाताओं को तीन सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने का वायदा किया था। सत्ता में आने पर राज्य सरकार ने अपने वायदे को अमली जामा पहनाया। जिसके चलते चालू वित्त वर्ष के लिये बीस हजार करोड़ से अधिक सब्सिडी बिल आया है। इसी तरह कांग्रेस के नेतृत्व वाली हिमाचल सरकार ने सरकारी कर्मचारियों को खुश करने के लिये पुरानी पेंशन लागू करने का वायदा किया। यह तय था कि इस घोषणा से राज्य की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इस आसन्न संकट को महसूस करते ही विगत में केंद्र सरकार ने पुरानी पेंशन योजना से हाथ खींच लिया था। लेकिन अब हिमाचल सरकार द्वारा पुरानी पेंशन योजना यानी ओपीएस को पुनर्जीवित करने से, पहले से ही संकटग्रस्त सरकारी खजाने पर एक बड़ा बोझ और बढ़ गया है। वहीं पंजाब में सब्सिडी भुगतान में देरी से पंजाब की स्थिति और खराब हो गई है। लंबित बिल साढ़े चार हजार करोड़ से अधिक हो गए हैं। वहीं दूसरी ओर पंजाब स्टेट पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड यानी पीएसपीसीएल की बिल संग्रह दक्षता में भारी गिरावट आई है। दरअसल, पीएसपीसीएल पहले ही ट्रांसमिशन घाटे में वृद्धि के संकट से जूझ रहा है। हालांकि, पंजाब स्टेट पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा बिजली के बिल के बकायादारों और कतिपय सरकारी विभागों से बकाया धनराशि वसूलने से राजस्व बढ़ाने के प्रयासों में कुछ राहत जरूर मिली है। लेकिन कुल मिलाकर स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। जिसकी कीमत कालांतर राज्य की आर्थिकी को ही चुकानी होगी।
निश्चित तौर पर पंजाब को मुफ्त की बिजली देने से उत्पन्न संकट से जल्दी राहत मिलने के आसार नजर नहीं आते। राज्य फिलहाल उधार हासिल करने की सीमा के करीब पहुंच गया है। जिसके चलते मुफ्त बिजली योजना चलती रह सकेगी, इसमें संदेह है। कमोबेश हिमाचल प्रदेश भी ऐसे ही संकट से दो चार है। राज्य की वित्तीय बदहाली इस बात की गवाह है। पुरानी पेंशन योजना की बहाली ने राज्य के वित्तीय दायित्वों को बढ़ा दिया है। जिसके चलते वेतन और पेंशन से जुड़ी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये मासिक रूप से दो हजार करोड़ की अतिरिक्त आवश्यकता होती है। जो वित्तीय दिक्कतों की अंतहीन शृंखला को जन्म दे रही है। राज्य 6200 करोड़ की अपनी ऋण सीमा समाप्त होने के बाद, अपने रोजमर्रा के खर्चों को प्रबंधित करने के लिये भविष्य की उधारी पर निर्भर होता जा रहा है। आर्थिक मामलों के जानकार चिंता जता रहे हैं कि राज्य की आर्थिक स्थिति और खराब हो सकती है क्योंकि अगले वित्तीय वर्ष में केंद्र का राजस्व घाटा अनुदान आधा होने की बात कही जा रही है। वहीं अपनी लोकलुभावनी नीतियों के दुष्प्रभावों को नजरअंदाज करके दोनों राज्यों की सरकारों ने भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर फंड रोकने और भेदभावपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप ही लगाया है। वहीं दूसरी ओर पूंजी निवेश योजना के लिये विशेष सहायता से हिमाचल को बाहर किए जाने पर तल्ख राजनीतिक प्रतिक्रिया सामने आई है। कुछ ऐसे ही पंजाब सरकार भी विकास निधि के आवंटन में पक्षपात का आरोप केंद्र सरकार पर लगाती रही है। जबकि यह एक हकीकत है कि चुनावी लोकलुभावनवाद से प्रेरित अस्थिर राजकोषीय नीतियां ही संकट के मूल में हैं। यह टकसाली सत्य है कि राज्य सरकारें बढ़ते कर्ज और घटते राजस्व के चलते वित्तीय संकट से जूझ रही हैं। यह वक्त की दरकार है कि राज्य सरकारें अपना ध्यान खैरात बांटने के बजाय संरचनात्मक सुधारों पर केंद्रित करें। दरअसल, राज्यों को वित्तीय संकट से उबारने के लिये राजकोषीय विवेक, कुशल कर संग्रह और तार्किक सब्सिडी समय की मांग है।