गाल बजाने के लिए स्वर्णिम काल
केदार शर्मा
इस युग में गाल बजाने की कला के आगे सारी कलाएं पानी भरती नजर आ रही हैं। इसका महत्व दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। इसके लिए न तो किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है और न ही कोई डिग्री ही अपेक्षित होती है। बस बत्तीस दांतों के बीच सुरक्षित जुबान से जो जी में आए बढ़-चढ़कर धाराप्रवाह बोलना शुरू करना-भर होता है। हालांकि, कुछ अज्ञानी लोगों ने बकबक करने, डींग हांकने और प्रलाप करने जैसे नाम देकर, इस पुरातन कला को दबाने और इस क्षेत्र में आगे बढ़ने वालों को जितना हतोत्साहित किया उतनी ही यह कला फलती-फूलती गई।
यदि आप प्रवचनकर्ता बनना चाहते हैं तो इस क्षेत्र में साधारण प्रवचनकर्ता के अनुभव से गुजरते हुए आप मठाधीश, धर्माचार्य, बाबा, बाबी और स्वामीजी तक के शिखर तक पहुंच सकते हैं। कई सफलतम गाल-वादक स्टार इससे भी आगे बढ़कर राजकीय कारागारों में आजीवन अतिथि के पद को सुशोभित कर रहे हैं। धीरे-धीरे मंच, माला, मिठाई, माइक, मान और मुद्रा मय निष्ठावान भक्तों के आपके पीछे-पीछे चलने लगेंगे। चारों ओर जयजयकार होने लगे तो समझ लीजिएगा यह कला आपके भीतर पकने लगी है और अब केवल मधुर फल चखने का समय आ गया है।
इस क्षेत्र में कड़वे फल केवल भक्तों के लिए सुरक्षित हैं। भगदड़ मचेगी तो भक्त दबेंगे, मरेंगे कुचले जाएंगे, पर आप सकुशल वहां से निकल भागोगे। दूरदर्शी तुलसीदास जी ने इसी युग के बारे में मानस में पहले ही लिख दिया था—‘मारग सोई जा कहु जोई भावा, पंडित वही जो गाल बजावा।’ जितने अधिक गाल बजाओगे उतने ही कुशल पंडित, धर्मगुरु या प्रवचनकर्ता माने जाओगे।
गाल बजाने वालों के लिए राजनीति सबसे उर्वर क्षेत्र है। केवल गाल बजाते-बजाते अनेक नेता सरपंच से लेकर विधानसभा और संसद में पहुंच चुके हैं, अनेक मंत्री बनकर उभरे हैं। लोकतंत्र के इन सदनों में यह सुविधा भी दी गई है कि सदन में गाल बजाने पर अभियोग दायर नहीं किया जा सकता। जो विपक्ष में हैं उनको तो सत्तापक्ष की उचित-अनुचित बात पर कभी गाल बजाकर तो कभी गाल फुलाकर पांच साल निकालने ही होते हैं।
जिनको कहीं पर भी गाल बजाने का मंच नहीं मिला वे भी सोशल मीडिया के समंदर में दो-दो हाथ कर रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में, इतने विषयों पर गाल बजाने वाले इतने महारथियों को एक साथ देखकर दांतों तले अंगुली दबानी पड़ रही है। सचमुच में गाल बजाने वालों के लिए यह स्वर्णिम काल है।