For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

सामूहिक सहकारों से ही नवयुग के लक्ष्य

07:28 AM Sep 06, 2021 IST
सामूहिक सहकारों से ही नवयुग के लक्ष्य
Advertisement

डेढ़ बरस से अधिक हो गया, पूरा देश महामारी के भय से बीमार मानसिकता में जी रहा है। कोरोना की पहली लहर पिछले वर्ष के शुरू में भारत में आई थी। पहले दीये जलाकर, थालियां बजाकर इसका मुकाबला करने का प्रयास किया गया। संक्रमण बेकाबू होता दिखा तो पूर्ण लाॅकबंदी और फिर क्रमश: प्रतिबंधों में रहते रियायतें देते हुए जब पिछले वर्ष के अंत में इस रहस्यमय बीमारी का दबाव कम हुआ तो आम आदमी यूं अपना जीवन पुन: जीने के लिए मैदान में आया जैसे कि उसका जीवट अभी भी तैयार-बर-तैयार है।

Advertisement

आंकड़ा शास्त्रियों ने बताया कि देश में सामान्य बेकारी के साथ इतनी अतिरिक्त बेकारी पैदा हो गयी जितनी पिछले चार दशकों में नहीं देखी थी, इतनी महंगाई हो गयी कि उसने मोदीकाल से परे डाॅ. मनमोहन सिंह के महंगे भयावह दिनों को फिर जीवित कर दिया। महानगर से उखड़कर वैकल्पिक जीवन की तलाश में गांवों की ओर लौटती श्रम शक्ति प्रवासी भारतीयों का कोरोना भय से पीड़ित देशों से भाग अपनी धरती की गोद में लौटना। इधर देश में कुछ एेसे असुन्दर सच थे, जिन्होंने अच्छे दिन आने के सपनों को विदीर्ण कर दिया, गरीब आदमी के बैंक खातों में पंद्रह लाख रुपये जमा हो जाने की तो बात ही छोड़िये।

अब सामान्य जिंदगी जीना ही पूरा देश भूल गया। शिक्षालय बाधित, खेल खिलाड़ियों के मैदानों पर रंग बदलते वायरस के साये और अपने आपको घरों की चारदीवारी में कैद कर देने की मजबूरी पिछले बरस से इस बरस तक सरक आयी है। महामारी की इस दूसरी लहर ने एेसा हृदयविदारक रंग बदला कि कोरोना ने संक्रमण की ऊंचाइयां छू लीं, बीमारी से मौत तक की यात्रा दम घुटती सांसों के रास्ते पर चलती हुई और दुरूह हो गयी।

Advertisement

देश की उत्पादकता का आश्चर्यजनक रूप से घट जाना और विकास दर का शून्य से नीचे चले जाना, देश की आर्थिकता के स्वत: स्फूर्त हो जाने को एक दु:स्वप्न दे गया है। दूसरी लहर में संक्रमण गांवों तक चला आया, लेकिन देश का किसान उसी तरह सिर उठाये खड़ा रहा। उसके खेत उसी तरह फसलों के रूप में प्राणदायी हीरे-मोती उगलते रहे। कितना कठिन था, इस वर्ष का पहला आधा भाग। जीवन जैसे कारागार लगने लगा था और बंधे बंधाये पेशे उखड़ने लगे। इस कृषि प्रधान देश की धरती ने अभी भी उसका साथ दिया, लेकिन औद्योगिकीकरण की राह पर चलता, उभरता, संवरता समाज निवेश, उद्यम और व्यवसाय के लिए कालरात्रि बन गया। मनोरंजन और पर्यटन की दुनिया ने दम तोड़ा, देश का पटरी बाजार व्यवसाय अनियमित रोजगार जीने की पनाह मांगने लगा। देश की रात्रि जिंदगी ने दम तोड़ा ही, दिन में भी बाजार जब खुले तो सूने और ग्राहकों की बाट जोहते हुए। महानगरों से जो पलायन हुआ, उसे गांवों ने समेटा नहीं और गांवों से रोजी तलाशते लोगों का निष्क्रमण शहरों और विदेशों की ओर जारी रहा।

विश्व के भुखमरी सूचकांक में भारत की हालत बदतर हो गयी और देश की सर्वोच्च न्यायपीठ को भी कहना पड़ा कि देश में करोड़ों लोग भूख से न मरें, उनके जिंदा रहने की व्यवस्था करना सत्ता का प्रथम कर्तव्य है। लेकिन काम करने वाले हाथ पूछते रहे कि हमारे हाथों के लिए रोजगार की, काम की व्यवस्था हो, यह भी तो हमारा मूलभूत अधिकार है। इसके स्थान पर इस देश में खैरात संस्कृति और राहतों-रियायतों की दिलासा या दिशाहीन कार्ययोजना के बिना मनरेगा का विस्तार मिला जो कोई विकल्प नहीं।

लेकिन एेसे विकट संकट में देश की 135 करोड़ आबादी ने अपना अनुशासन या जीने के लिए जूझने की उम्मीद नहीं छोड़ी। सरकार ने रोग से जूझने के जो निर्देश दिये, उनका भरसक पालन किया। मास्क को वैक्सीन माना, सामाजिक अन्तर रख कर चले और जीने के लिए श्रम की चाह की। निवेशकों ने दोनों आर्थिक बूस्टरों से प्रेरणा ली है। पहला, पिछले वर्ष का बीस लाख करोड़ रुपये का आर्थिक बूस्टर, और दूसरा अभी वित्तमंत्री सीतारमण द्वारा छह लाख करोड़ से अधिक का घोषित आर्थिक बूस्टर। यह दीगर बात है कि ये बूस्टर साख प्रेरक थे, मांग प्रेरक नहीं। तो भी शेयर मंडियों के सूचकांकों की उछाल बताती है कि निवेशक आज भी नयी जिंदगी की तलाश में है, उनके उद्यम में कमी नहीं।

लेकिन बाजारों में मांग की कमी और पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में अबाध वृद्धि आज भी निवेश वृद्धि के लिए लक्ष्मण रेखा बन रही है। तीसरी लहर के कोरोना प्रकोप की घोषणा के बावजूद आम आदमी तो एक नयी दुनिया बसाने के लिए जूझने को तत्पर है, लेकिन बहुतायत है लघु, कुटीर और मध्यम उद्यमियों की, छोटे बाजारों और फड़ियों पर बैठे अनियमित व्यापारियों की और उन छोटे किसानों की जो पूरी मेहनत के बावजूद प्रतिफल मिलने पर अपने आपको वंचित प्रतिबंधित पाते हैं।

सरकार ने एेसे कठिन समय में आत्मनिर्भरता का नारा तो दे दिया, मिश्रित अर्थव्यवस्था को त्याग कर सरकारीकरण के स्थान पर निजीकरण को प्रश्रय दिया है। लेकिन छोटा किसान और छोटा उद्यमी, जो युवा इस देश का आज भी बहुभाग है, अपने पैरों के नीचे की धरती तलाश रहा है।

सही है कि घोषणाओं में मध्यम, लघु, कुटीर उद्योगों के लिए उदार और रियायती ऋण की व्यवस्था है, लेकिन इन्हें आरक्षित मंडियों का उत्साह भी तो मिलना चाहिए। इन उद्योगों से पैदा होने वाली वस्तुएं भारतीय लोकसंस्कृति की अनूठी छाप लिये रहती हैं, लेकिन इनके लिए विदेशी निर्यात का प्रोत्साहन भी तो जुटाना होगा। इनकी विशिष्ट मांग पर बड़े व्यावसायिक घरानों की स्वचालित मशीनों के कम लागत वाले सस्ते उत्पादों का दबदबा क्यों बना रहता है?

आने वाला युग कृषि आधारित छोटे-बड़े उद्योगों का युग होना चाहिये, जो गांवों में वापस लौटते श्रम को वहीं रोजगार प्रदान करे। सरकार ने अभी ग्रामीण इलाकों में लाल रेखा के अंदर बड़े व्यवसायियों को भी उद्यम लगाने की इजाजत दे दी है। लेकिन खेती में फालतू हो गये श्रमिकों को भी तो अपनी धरती पर उद्यम के अवसर चाहिए। कब तक इन्हें मनरेगा की कार्य लक्ष्य विहीन योजना, अथवा कानूनी गैर कानूनी मार्ग से निवेश पलायन का ही एकमात्र मुक्ति मार्ग देते रहोगे?

अभी सरकार ने इन कृषि वंशजों को भी अपने-अपने कारपोरेट यूनिट बना कर बड़े उद्यमियों का मुकाबला करने का संदेश दिया है। लेकिन जरूरत इन आयातित साधनों से ही नहीं, बल्कि अपनी धरती से उपजी विसंगतियों से जंग लड़ने की है। इस बार लालकिले की प्राचीर से स्वाधीनता दिवस पर जिंदगी संवारने के लिए सबके प्रयास का नया नारा दिया गया है। क्यों न यह प्रयास एक साधारण हाथ से दूसरे को जोड़ सहकारी आंदोलन के पुनर्जीवन के रूप में हो। ठीक है यह संकल्प पुराना है, नेहरू युग का है, जो अक्षम और स्वयंपरक राजनीतिज्ञों और भ्रष्ट तत्वों की आपाधापी के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं दिखा सका। लेकिन जब देश में नया युग लाने का सपना सच करना है तो क्यों न मामूली लोगों के हर क्षेत्र में सहकारी आंदोलन की इस धारणा को पुन: प्रेरित किया जाये। इस बार चौकस रहेंगे तो पिछली त्रुटियां इसका चेहरा बिगाड़ नहीं पायेंगी।

लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।

Advertisement
Tags :
Advertisement